सोनी (बदला हुआ नाम) की शादी के लिए लड़का खोजने में बहुत दिक़्क़त हुई। चार साल लगातार लड़का खोजने के बाद सोनी की शादी हो सकी। सोनी के लिए ये चार साल बहुत बुरे थे। अमिनी गांव की रहनेवाली सोनी से जब भी मीटिंग में मिली वह हमेशा कहती, “दीदी हमारे अंदर कमी है तभी शादी नहीं हो रही।” इस पर जब मैं कहती कि ऐसा क्यों कहती हो तो, उसका ज़वाब होता, “सब यही कहते हैं।” करमसीपुर गांव की परमशीला की शादी के दो साल बाद उसके पति की मौत हो गई। सालभर के बच्चे के साथ गरीब परिवार की परमशीला को अपने ससुराल में ही ताने सुनते हुए अपने दिन गुज़ारने पड़ रहे है। सभी कहते हैं कि उसके पति की मौत उसकी बुरी क़िस्मत की वजह से हुई। शादी को हमारे समाज में बहुत ज़रूरी और अच्छा बताया जाता है। समाज में महिलाओं और पुरुषों के लिए इसे लेकर हमेशा कहा जाता है कि शादी के बिना ज़िंदगी अधूरी होती है। जैसे शादी के बिना जीवन तो संभव ही नहीं है लेकिन सोनी और परमशीला की जिदंगी में शादी किसी बड़ी समस्या से कम नहीं रहा। बचपन से ही हम लोगों के दिमाग़ में शादी की ज़रूरत और इसकी तैयारी के लिए रहन-सहन, काम करने के गुण और घर संभालने के हुनर को विकसित किया जाता है।
“लड़की सांवली है तो वो गोरी हो जाए, नहीं तो शादी में दिक़्क़त होगी। लड़की अगर छोटी है तो उसकी लंबाई बढ़ जाए, नहीं तो शादी में दिक़्क़त होगी। घर का काम सीख ले, नहीं तो शादी में दिक़्क़त होगी। परिवार संभालना आ जाए, नहीं तो शादी में दिक़्क़त होगी।” ये कुछ ऐसी बातें है जो हर लड़की को कभी न कभी ज़रूर सुनाई जाती हैं। इसमें आगे की लाइन भले ही बदल जाए लेकिन “नहीं तो शादी में दिक़्क़त होगी” वाली लाइन नहीं बदलती है। कहने का मतलब यह है कि लड़की के जन्म लेते ही परिवार उसकी शादी की तैयारी में जुट जाता है और अपनी ज़िंदगीभर की पूरी ताक़त लड़की की शादी के लिए झोंक देता है पर सवाल ये है कि क्या वाक़ई शादी इतनी ज़रूरी और सभी के लिए अच्छी होती है? इस पितृसत्तात्मक समाज में हर वह लड़की जो शादी के लिए बताई जाने वाली ‘आदर्श लड़की की छवि’ में फ़िट नहीं होती उसे अपनी आधी से ज़्यादा ज़िंदगी उस छवि में फ़िट होने की मेहनत में गुज़ारनी पड़ती है। शादी के बाद उसकी बाक़ी की बची ज़िंदगी शादी को निभाने में चली जाती है। अगर टीवी में दिखाई जाने वाली शादियों को छोड़ दिया जाए तो वास्तव में गांव की अधिकतर लड़कियों के लिए शादी किसी सज़ा से कम नहीं है।
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लड़कियों का जीवन सिर्फ़ शादी से सार्थक नहीं होता है ?
शहरों से ज़्यादा शादी का दबाव गांव की लड़कियों में ज़्यादा देखने को मिलता है। ख़ासकर वे लड़कियां जो गरीब परिवार से आती हैं। लैंगिक भेदभाव की वजह से लड़कियों को पढ़ने या आगे बढ़ने का अवसर ज़्यादा नहीं दिया जाता है। अगर वह गरीब ग्रामीण परिवार से है तो ये सब और भी ज़्यादा होता है। गांव के परिवारों में लड़कियों को कम पढ़ाना हमेशा से रहा है। ऐसे में लड़कियां ख़ुद भी अपने परिवार में किसी महिला को पढ़ते या आगे बढ़ते नहीं देख पाती और इसलिए उनके सपने भी इस दिशा में नहीं हो पाते हैं। समाज इसी मौक़े का फ़ायदा उठाकर शादी को लड़कियों के लिए इतना ज़्यादा ज़रूरी बना देता है कि अगर किसी लड़की की शादी न हो तो उसका जीना मुश्किल कर दिया जाता है। इतना ही नहीं, गांव में कई बार ये भी देखने को मिलता है कि शादी के बाद अगर किसी कारणवश लड़के की मौत हो जाए तो लड़की को ‘अपशकुनी’ जैसे ढ़ेरों शब्दों से प्रताड़ित भी किया जाने लगता है।
इस पितृसत्तात्मक समाज में हर वह लड़की जो शादी के लिए बताई जाने वाली ‘आदर्श लड़की की छवि’ में फ़िट नहीं होती उसे अपनी आधी से ज़्यादा ज़िंदगी उस छवि में फ़िट होने की मेहनत में गुज़ारनी पड़ती है।
शादी ज़रूर समाज में एक रिश्ते को वैधता देती है पर ग्रामीण क्षेत्रों में मैंने पाया कि इसे ही लड़की का ज़िंदगी का एकमात्र लक्ष्य बनाकर पेश किया जाता है और लड़की की पूरी ज़िंदगी शादी में लपेट दी जाती है। शादी का यह रूप तब महिलाओं के लिए एक अभिशाप बन जाता है जब शादी से जुड़ी या शादी में समस्या होना शुरू होती है। अगर शादी में देरी होती है तो परिवार और समाज लड़की के रंग-रूप-हुनर और क़िस्मत के नाम पर ऐब निकालता है और अगर शादी के बाद किसी एक ख़ासकर पुरुष की मौत हो जाए तो उसका पूरा दोष लड़की की बुरी क़िस्मत पर मढ़ दिया जाता है। ये ऐब निकलना या दोष मढ़ना सिर्फ़ बातों तक सीमित नहीं रहता है, बल्कि इसका बुरा प्रभाव भी महिलाओं के ऊपर होने वाली शारीरिक और मानसिक हिंसा के रूप में देखने को मिलता है। जब शादी में देरी के दबाव से बचने के लिए परिवार वाले किसी भी बुरे परिवार में जैसे-तैसे लड़की की शादी कर देते हैं और विधवा बनी महिलाओं को ससुराल में मानसिक और कई बार शारीरिक हिंसा का भी सामना करना पड़ता है।
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अगर हम शादी के पीछे समाज की सोच को समझें तो यही समझ में आता है कि ये महिलाओं पर पुरुषों के आधिपत्य को और मज़बूत करने का एक साधन है, जिसमें एक परिवार के पुरुषों की सत्ता (पिता और पुत्र) दूसरे परिवार के पुरुषों (पति और ससुर) को दे दी जाती है। इतना ही नहीं ये जाति, धर्म और वर्ग को भी मज़बूत करने में अहम भूमिका निभाती है, जिसमें महिलाओं की इच्छा कोई ख़ास मायने नहीं रखती है। ये सत्ता का विचार ही महिलाओं के ऊपर होने वाली हर हिंसा की मूल वजह है। चूंकि पुरुष को हमेशा मालिक और महिला को दासी के रूप में माना जाता है, इसलिए जैसे ही महिला ग़ुलामी के विचार को चुनौती देती है या कई बार अनजाने में ही पुरुष को अपनी सत्ता कमजोर होती दिखाई पड़ती है तो वो महिलाओं पर हिंसा करने लगता है। जैसे परिवार और समाज के दबाव में लड़की की जल्दी शादी या फिर पत्नी के साथ मारपीट, ये दोनों ही इसी बात का उदाहरण हैं।
हम जब तक ये नहीं समझेंगें कि सिर्फ़ शादी ही लड़कियों के जीवन को सार्थक नहीं बनाता तब तक गांव के गरीब परिवारों की लड़कियों को हिंसा का सामना करना पड़ता रहेगा। अब तक हम सिर्फ़ लड़कियों की शारीरिक सुंदरता और घर संभालने के गुण को शादी के हिसाब से तैयार करते हैं, जिसकी वजह से लड़कियां आज भी अपने ज़िंदगी से जुड़े फ़ैसलों के लिए परिवार वालों का मुंह ताकती है, लेकिन अगर उन्हें अच्छी शिक्षा और ज़िंदगी में आगे अपने पैरों पर खड़े होने के लिए प्रोत्साहित किया जाए तो उनके साथ होने वाली हिंसा को भी कम किया जा सकता है। ये सब तभी हो सकता है जब हम ख़ुद ये समझेंगे कि लड़की की ज़िंदगी सिर्फ़ शादी से नहीं बल्कि विकास के समान अवसर से सार्थक होती है। ये शादी ही है जिसके नाम पर लड़कियों को शादी से पहले इसके तय किए गए मानक में फ़िट बैठने के लिए मजबूर किया जाता है और शादी के बाद कम पढ़े-लिखे होने और आर्थिक रूप से सशक्त न होने की वजह से हिंसा सहनी पड़ती है। ये सब इसलिए होता है क्योंकि जो समय हमें ख़ुद को मज़बूत करने में लगाना चाहिए हमारा वो समय परिवार गोल रोटी बनाने और परिवार अच्छे से संभालने में लगा देता है। इसलिए परिवार और लड़कियों को ख़ुद भी अब ये बात गांठ बांध लेनी चाहिए कि शादी ज़िंदगी का अंत नहीं है, ये सिर्फ़ हमारी ज़िंदगी का एक हिस्सा है।
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तस्वीर: रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए