संघर्ष, एक ऐसा शब्द है जो शायद हम सबकी जिंदगी को समेटे हुए है। रोज़मर्रा की ज़िंदगी एक संघर्ष है। समाज में हाशिये पर गए हुए समुदाय को बराबरी तक लाने के लिए लगातार संघर्ष चालू है। जैसे महिलाओं का इस पितृसत्तात्मक समाज से हर रोज का संघर्ष, दलित समुदाय का समाज में बराबरी के लिए और ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ का संघर्ष। हम सब का एक समावेशी समाज के लिए संघर्ष, किसी का दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष और न जाने कितने संघर्ष हमारे आस-पास समाए हुए हैं। ऐसा ही एक संघर्ष है, अपनी पहचान को बराबरी दिलाने का, जो एलजीबीटीक्यूआई+ समुदाय न जाने कितने बरसों से करता आ रहा है और आज भी कर रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं है की उत्पीड़न के खिलाफ़ हाशिये पर गए लोग हमेशा से ही आवाज़ उठाते आए हैं। आप लोगों की आवाज़ को ज्यादा दिन तक अनसुना नहीं कर सकते हैं। इसका उदारण आप आसानी से एलजीबीटीक्यूआई+ समुदाय के इतिहास में देख सकते हैं।
अगर बात करें इतिहास के कुछ ऐसे पन्नों की, जो अधिकारों और उत्पीड़न के खिलाफ एलजीबीटीक्यूआई+ समुदाय के संघर्ष को बखूबी दर्शाते हैं तो इसमें स्टोनवाल विद्रोह काफी अहम है। 1969 में हुए इस विद्रोह ने ना केवल समुदाय की स्थिति में एक सुधार लाने की कोशिश की बल्कि उन्हें अपनी आवाज़ दुनिया के सामने रखने के लिए एक मंच भी दिया। इसकी की शुरुआत 28 जून 1969 में हुई, जब न्यूयॉर्क सिटी पुलिस ने एक समलैंगिक क्लब स्टोनवाल इन पर छापा मारा। यह क्लब ग्रीनविच विलेज में एलजीबीटीक्यूआई+ समुदाय के लिए एक जानी-पहचानी जगह थी। किसी के लिए यह रात को रहने का ठिकाना था, तो किसी के लिए यह क्लब अपनी पहचान के साथ सामाजिक भेदभाव से दूर कुछ समय बिताने की जगह थी। उस दौर में इस क्लब में ड्रैग क्वींस को आने की भी इजाज़त भी थी जो कि दूसरे क्लब में नहीं थी। यह एलजीबीटीक्यूआई+ समुदाय के ग्राहकों के लिए नाचने-गाने और अपने आप को व्यक्त करने की एक महत्वपूर्ण जगह बनती जा रही थी।
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लेकिन वेबसाइट हिस्ट्री के मुताबिक 28 जून 1969 की सुबह को बिना कोई जानकारी दिए, वारंट के साथ पुलिस क्लब के परिसर में चली गई। पुलिस अधिकारियों ने लोगों के साथ उत्पीड़न चालू कर दिया और 13 लोगों को अवैध शराब के इस्तेमाल के लिए गिरफ्तार कर लिया। वहीं, दूसरी और राज्य के ‘लिंग-उपयुक्त कपड़ों’ के क़ानून का उल्लंघन करने वाले लोगों को लिंग जांच के लिए महिला अधिकारी बाथरूम में लेकर जाने लगीं। पुलिस अधिकारियों ने लोगों के साथ मारपीट करना शुरू कर दिया। बहरहाल, सामाजिक भेदभाव और पुलिस के इस रवैये से लोगों ने परेशान होकर पुलिस अधिकारियों के खिलाफ़ बगावत का माहौल पैदा कर दिया। हर बार की तरह, इस बार उत्पीड़न सहने की जगह लोगों ने गुस्से में आकर पुलिस अधिकारियों के ऊपर शराब की बोतलें, पत्थर और सिक्के फेंकना चालू कर दिया। देखते ही देखते सैकड़ों लोगों की भीड़ स्टोनवाल इन के बाहर इकट्ठा हो गई और पुलिस अधिकारियों के खिलाफ़ जमकर आवाज़ उठाने लगी। धीरे- धीरे बगावत इतनी बढ़ गई की पुलिस अधिकारियों ने अपने आप को स्टोनवाल इन के अंदर बंद कर लिया। वहीं, भीड़ ने क्लब को आग लगाने की कोशिश भी की लेकिन दमकल विभाग और एक दंगा दस्ता आग की लपटों को बुझाने और भीड़ को तितर-बितर करने में सक्षम रहें लेकिन उसके बाद, इस विद्रोह के साथ हजारों लोग जुड़ गए थे और इसके चलते यह प्रदर्शन क्षेत्र में पांच और दिनों तक जारी रहा।
स्टोनवाल के इस विद्रोह के बाद, बहुत से समलैंगिक अधिकार संगठन सामने आए जैसे गे लिबरेशन फ्रंट, ह्यूमन राइट्स कैंपेन, आदि। ऐसा नहीं है कि एलजीबीटीक्यूआई+ समुदाय इससे पहले कभी अपने अधिकारों की लड़ाई के लिए आगे नहीं आया था लेकिन स्टोनवाल का विद्रोह कुछ अलग था। इसने जैसे उनकी आवाज़ को लोगों और सरकार तक पहुंचाया। वहीं, धीरे- धीरे 1980 के बाद से समुदाय सामाजिक भेदभाव के खिलाफ़ और मुखर होता गया। इस घटना के पूरे एक साल बाद क्रिस्टोफर स्ट्रीट लिबरेशन डे पर पहली प्राइड परेड की शुरुआत हुई जो न्यूयॉर्क के इतिहास का पहला प्राइड मार्च था। इस दिन चौंकाने वाली बात तो यह थी कि उम्मीद से ज्यादा लोगों ने मार्च में हिस्सा लिया। इस प्राइड परेड के बाद विश्व के अलग-अलग देशों में इनका आयोजन होने लगा और प्राइड परेड एलजीबीटीक्यूआई+ समुदाय के गौरव के प्रतीक के तौर पर जानी जाने लगी जिसमें वे अपनी आत्म स्वीकृति, उपलब्धियों, या कानूनी अधिकारों के खिलाफ़ जश्न मनाते हैं।
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भारत में प्राइड परेड का इतिहास
वहीं, पूरे विश्व की तरह भारत में भी प्राइड परेड का आयोजन होता है। भारत की पहली प्राइड परेड 1999 में कोलकाता में हुई, जिसे दूसरे शब्दों में फ्रेंडशिप वॉक बोला गया। बहरहाल, इस मार्च में ज्यादा लोगों की उपस्थिति नहीं देखी गई और ना ही 2003 तक कोई और परेड का आयोजन किया गया लेकिन यह परेड भारत में अपनी छाप छोड़ने में कामियाब रही और 2003 के बाद भारत में प्राइड मार्च का आयोजन तेजी से होने लगा। वहीं, अगर बात करें भारत में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के संघर्ष की तो हमारे देश में यह संघर्ष ब्रिटिश काल से भी ज्यादा समय से चलता आ रहा है। ब्रिटिश राज ने 1861 में भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत समलैंगिक यौन गतिविधियों का अपराधीकरण किया जिसके चलते बहुत सालों तक भारत में उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन होता रहा। एक लंबा सफर तय करने के बाद, जनवरी 2018 में, सुप्रीम कोर्ट ने नाज़ फ़ाउंडेशन के फैसले पर फिर से विचार करने के लिए एक याचिका पर सुनवाई करने पर सहमति व्यक्त की और 6 सितंबर 2018 को कोर्ट ने फैसला सुनाया कि धारा 377 असंवैधानिक थी। वहीं, देखा जाए तो भारत में भी समय-समय पर समलैंगिक अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई गई है लेकिन अभी भी भारत में एलजीबीटीक्यूआई+ समुदाय का संघर्ष जारी है और ना जाने कब उनका यह संघर्ष खत्म होगा। सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि विश्व में भी एलजीबीटीक्यूआई+ समुदाय के ख़िलाफ़ सामाजिक भेदभाव, हिंसा जारी है। स्टोनवाल के विद्रोह के बाद सिर्फ न्यूयॉर्क में नहीं बल्कि विश्व में भी एलजीबीटी+ समुदाय के बारे में चर्चा होने लगी और समुदाय के लोगों के बीच सामाजिक भेदभाव के खिलाफ़ आवाज़ उठाने की लहर दौड़ गई। स्टोनवाल एलजीबीटीक्यूआई+ के इतिहास का अहम पन्ना बन गया।
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तस्वीर साभार : BBC