सत्रह साल की रोली की शादी तीन साल पहले कर दी गई थी लेकिन अभी उसका गौना नहीं हुआ। अट्ठारह साल की होने के बाद वह अपने ससुराल जाएगी। बनारस शहर से दूर सेवापुरी ब्लॉक में है बसुहन गांव जिसकी मुसहर बस्ती में रोली का घर है। मुसहर समुदाय आज भी एक ऐसा समुदाय है जो समाज के सबसे वंचित और हाशिये पर गए समुदाय में माना जाता है। जहां आज भी बंधुआ मज़दूरी एक आम बात है। बसुहन की इस मुसहर बस्ती में मैंने अपनी संस्था के माध्यम से तीस बच्चों को पढ़ाने का काम शुरू किया। शुरुआती दौर में बच्चों को एक जगह इकट्ठा करना हर दिन की चुनौती रहती थी और उसमें में रोली जैसी किशोरियों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना और भी बड़ी चुनौती।
एक लड़की का पढ़ा-लिखा होना कितना ज़रूरी है, इसके बारे में आज हर दूसरा इंसान जानता है। मुसहर बस्ती में शिक्षा का बहुत ज़्यादा अभाव देखने को मिलता है, पर ऐसा नहीं कि इन बस्तियों के आसपास स्कूल नहीं है। सरकार ने कुछ गांव में इन बस्तियों के आसपास स्कूल तो बनाया है लेकिन उस स्कूल में बिना किसी जातिगत भेदभाव और हिंसा के मुसहर बच्चे पढ़ें ऐसी व्यवस्था नहीं बन पाई। नतीजतन मुसहर बच्चों को स्कूल जाने को लेकर उदासीनता देखने को मिलती है। इन बच्चों में भी लड़कियों को कई पायदान पीछे रखा गया है। कम उम्र में शादी और शादी से पहले घर के कामों का बोझ कभी भी इन्हें इतना वक्त नहीं देता कि वे अपने नाम लिखने की भी रुचि दिखा पाएं। ज़मीनी हक़ीक़त यही है कि हम लाख कहें कि अब कहीं कोई जातिगत भेदभाव नहीं होता है पर वास्तविकता यही है कि हमारे गांव में आज भी अलग-अलग बस्तियां उनकी जाति से जानी जाती हैं।
और पढ़ें : कोविड-19 महामारी के दौरान भारत में लड़कियों की शिक्षा दांव पर
मुसहर समुदाय की किशोरियों को पढ़ाने के दौरान मैंने यह महसूस किया है कि सामाजिक व्यवस्था ने सीधेतौर पर उनका बचपन मानो छीन-सा लिया है। इन परिवारों में सात से आठ बच्चे होना आम बात है और कम उम्र में मां बनी महिलाओं की बड़ी बेटी पर ज़िम्मेदारी होती है परिवार और अपने छोटे भाई-बहन को संभालने की। बड़ी बहन की उम्र क्या हो इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। कम उम्र से ही उसे घर के काम ट्रेनिंग दी जाती है और आठ-नौ साल की होते-होते लड़कियां पूरा घर संभालने लग जाती हैं। इस बस्ती के मुसहर समुदाय के लोग आज भी खेतों में और ईंट भट्टो में मज़दूरी का काम करते हैं। एक तरफ़ जहां लड़कियों को कम उम्र से घर-परिवार संभालने की ट्रेनिंग दी जाती है वहीं लड़कों को छोटी उम्र से ही मज़दूरी के काम में लगाया जाता है।
ज़ाहिर है जब हम बच्चों के विकास और पढ़ने की उम्र में उन्हें काम करने और उनके कंधों पर जिम्मेदारियां डाल देंगें तो अपने भविष्य के बारे कुछ नहीं सोच पाएंगे और उनकी ज़िंदगी उसी तरह आगे बढ़ेगी जैसे उनके पूर्वजों की बढ़ी। ऐसे में जब हम लड़कियों के सपने और उनके विकास के अवसरों को तलाशने की कोशिश करते हैं तो सब कुछ बेहद धूमिल-सा नज़र आता है। चूंकि दलित समुदाय से आने वाली महिलाओं पर दोहरा भार होता है, एक उनकी जाति और दूसरा उसका महिला होना। इसके चलते वे शिक्षा जैसे बुनियादी अधिकारों से दूर रह जाती है। मुसहर बस्ती की लड़कियों और महिलाओं का शिक्षित ना होना एक बड़ी समस्या है, जिससे कई और जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इसके बारे में जब मैंने रोली से बात की तो उसने बताया कि अशिक्षा की वजह से हमारे गांव की महिलाएं किसी के खेत में या फिर किसी तरीक़े की मज़दूरी का काम करने जाती है तो अपनी मेहनत के पैसे नहीं ले पाती, उन्हें गिनती तक नहीं आती। इसी वजह से बहुत बार इस जातिवादी समाज में उन लोगों से ज़्यादा काम लिया जाता है, उनके श्रम का शोषण होता है पर पैसे बहुत कम मिलते हैं।
सरकार ने कुछ गांव में इन बस्तियों के आसपास स्कूल तो बनाया है लेकिन उस स्कूल में बिना किसी जातिगत भेदभाव और हिंसा के मुसहर बच्चे पढ़ें ऐसी व्यवस्था नहीं बन पाई। नतीजतन मुसहर बच्चों को स्कूल जाने को लेकर उदासीनता देखने को मिलती है।
और पढ़ें : शिक्षा में क्यों पीछे छूट रही हैं दलित लड़कियां
मुसहर समुदाय की स्थिति किसी से छिपी नहीं है, लेकिन इसके बावजूद इसपर कोई चर्चा या काम की पहल बहुत कम ही देखने को मिलती है। हाल ही में, जब हम लोगों ने बस्ती में माहवारी प्रबंधन पर एक कार्यक्रम के लिए ग्राम प्रधान को आमंत्रित किया तो ग्राम प्रधान को मुसहर बस्ती का रास्ता तक नहीं पता था। अब इससे हम समझ सकते हैं कि जब हमारे ज़नप्रतिनिधियों की पहुंच अपने गांव की मुसहर बस्ती तक नहीं है तो किसी भी सरकारी योजना की पहुंच उस समुदाय तक या उस समुदाय की पहुंच मुख्यधारा तक कितनी होगी। इसमें महिलाओं का सवाल और भी ज़्यादा उलझा हुआ है क्योंकि जाति का संघर्ष को अपनी सामाजिक भूमि पर है ही पर एक महिला होने की वजह से ये सब और भी ज़्यादा हिंसात्मक हो जाता है।
जाति व्यवस्था हमारे समाज में कई सारे भेदभाव को क़ायम रखती है, जिसे दूर करने के लिए शिक्षा और समान अवसर ही एकमात्र उपाय नज़र आता है। ऐसे में जब रोली जैसी किशोरियों को प्रोत्साहित करके शिक्षा से जोड़ पाती हूं और वे बच्ची अपना नाम लिखना सीख जाती है, हर दिन कुछ नया सीखने की ज़िद्द करती है तो उस ज़िद्द में बहुत उम्मीदें दिखाई पड़ती है। ये इस ओर इशारा करती है कि हो सकता है रोली बहुत ज़्यादा न पढ़ पाए पर वह अपनी आने वाली पीढ़ी को शिक्षा की रोशनी से दूर नहीं रखेगी। गांव में मुसहर समुदाय के लोग कहते हैं कि हर जाति के लोगों में घृणा का भाव देखने को मिलता है। आज के आधुनिक भारत की यह कड़वी सच्चाई है, जिसपर न तो हम बात करते हैं और न सुनना चाहते हैं पर ऐसे में मुझे लगता है कि हर वह इंसान जो इन बस्तियों तक पहुंच पा रहा है, वहां के मुद्दे और कहानियों को उजागर करें क्योंकि ये पहला सशक्त कदम होता एक समुदाय को न केवल मुख्यधारा के चर्चा में लाने का बल्कि उसे जोड़ने का भी।
और पढ़ें : लड़कियों को शिक्षा के अधिकार से दूर करता लैंगिक भेदभाव
तस्वीर साभार : मुहीम