शॉपिंग का शौक़ कमोबेश सबको होता है। कुछ लोग तो हर महीने या हर सप्ताह कपडे़ खरीदते हैं। इनमें से कुछ को तो अपने पसंदीदा सेलिब्रिटी के लुक को फॉलो कर लेटेस्ट फैशन के साथ अपडेट रहना होता है। वहीं कुछ लोग तो बोरियत दूर करने के लिए ही शॉपिंग करने चल देते हैं। पहले तो कई- कई महीनों में कपड़ों के नए सीजन आते थे लेकिन आज तो ऑनलाइन फैशन स्टोर्स ग्राहकों के सामने हर महीने कुछ नया पेश कर देते हैं। नया सीजन है, नया कलेक्शन है और ऊपर से सेल लगी है तो क्या ही बात। लेकिन क्या आपको पता है कि फास्ट फैशन और कपड़ों के प्रति आपकी ये दीवानगी पर्यावरण को कितना नुकसान पहुंचाती है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के मुताबिक, फैशन इंडस्ट्री दूसरे नंबर पर पानी का सबसे ज्यादा उपयोग करती है। इसके अलावा सभी इंटरनेशनल फ्लाइट्स और मैरीटाइम शिपिंग मिलकर जितना कार्बन उत्सर्जन करती हैं, उससे कहीं ज्यादा फैशन इंडस्ट्री करती है जो वैश्विक कार्बन उत्सर्जन का 8- 10 फीसद है। इकोवॉच के अनुसार तो गारमेंट इंडस्ट्री तेल इंडस्ट्री के बाद प्रकृति के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक है। इसी से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि हालात कैसे हैं। अगर फिर भी आपको शक है तो चलिए थोड़ा जान लेते हैं कि ये फास्ट फैशन क्या है और इसने कितने फास्ट तरीके से पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया है।
आखिर यह फास्ट फैशन है क्या
आपने कभी इस पर गौर फरमाया है कि जो कपड़े सेलिब्रिटीज पहनते हैं, वे इतनी जल्दी किफायती दामों में सबके लिए कैसे उपलब्ध हो जाते हैं। बता दें कि इस सिस्टम को फास्ट फैशन कहते हैं जो शुरू तो हुआ था पश्चिम में, लेकिन अब पूरी दुनिया में इसने अपनी जड़ें जमा ली हैं। इसमें लेटेस्ट लुक्स और सेलिब्रिटीज स्टाइल्स की नकल करके कम उत्पादन लागत पर बहुत तेज़ी से कपड़े बनाए जाते हैं यानी कि हर मौसम, हर सप्ताह, नया कलेक्शन। फास्ट फैशन शब्द का सबसे पहले उपयोग 1990 के दशक की शुरुआत में हुआ था। उस वक्त गारमेंट कंपनी ज़ारा नई-नई न्यूयॉर्क में आई ही थी जिसका मिशन गारमेंट को उत्पादन के 15 दिन के अंदर स्टोर में बेचे जाने के लिए उपलब्ध कराना था। इसे न्यूयॉर्क टाइम्स ने फास्ट फैशन नाम दिया था।
आज फास्ट फैशन की इस दुनिया में फैशननोवा, टॉपशॉप, फॉरएवर 21, एच एंड एम और प्रीमार्क जैसे कई बड़े फास्ट फैशन रिटेलर्स शामिल हो गए हैं। फास्ट फैशन को भारत के संदर्भ में समझना चाहें तो उदाहरण के लिए दिल्ली का सरोजिनी नगर मार्केट ही देख लें जहां आपको बेहद कम दामों में लेटेस्ट फैशन के बढ़िया आउटफिट्स देखने को मिल जाते हैं। अगर कोई यहां जाए और कपड़ों से भरे बैग न लेकर आए, ऐसा हो नहीं सकता। हालांकि यह अकेला मार्केट नहीं, दिल्ली के जनपथ मार्केट, पालिका मार्केट, मुंबई का कोलाबा मार्केट और कोलकाता की पार्क स्ट्रीट जैसे मार्केट भी इसी श्रेणी में आते हैं। कपड़े बनने और उसके बाद की प्रक्रिया से पारिस्थितिकी तंत्र को भारी नुकसान होता है। कपड़ों के उत्पादन के हर चरण में पानी की बर्बादी और जहरीले और खतरनाक रसायनों के इस्तेमाल से पर्यावरण पर प्रभाव पड़ता है। चलिए विस्तार में जानते हैं, कैसे।
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पानी का अत्यधिक उपयोग
हममें से अधिकतर लोग सूती कपड़े पहनना ज्यादा पसंद करते हैं, खासकर उन प्रदेशों में जहां गर्मी अधिक पड़ती है, जिनके निर्माण के लिए कपास की जरूरत होती है। क्या आप जानते हैं कि कपास अन्य फसलों की तुलना में पर्यावरण को ज्यादा नुकसान पहुंचाती है। वह ऐसे कि एक तो कपास के उत्पादन के लिए पानी की ज्यादा ज़रूरत पड़ती है और दूसरे इसमें हानिकारक रसायन और उर्वरकों का भी अधिक इस्तेमाल होता है जो धीरे- धीरे जमीन की उर्वरक क्षमता को कम करते हैं। बीबीसी के मुताबिक विश्वभर में कपास की खेती में कुल कीटनाशकों का 22.5 फीसद उपयोग किया जाता है जो पानी को दूषित करते हैं। वहीं एक टी- शर्ट बनाने के लिए 700 गैलन यानी कि लगभग 2,700 लीटर पानी की जरूरत होती है। इसके साथ ही वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट के अनुसार, कपड़ों की रंगाई के लिए हर साल 5.9 ट्रिलियन लीटर पानी का उपयोग किया जाता है।
कपड़ों के उत्पादन के हर चरण में पानी की बर्बादी और जहरीले और खतरनाक रसायनों के इस्तेमाल से पर्यावरण पर प्रभाव पड़ता है।
कपड़ों की धुलाई से बढ़ता प्रदूषण
सिंथेटिक फाइबर्स जैसे पॉलिएस्टर, एक्रिलिक, स्पैन्डेक्स और नायलॉन से बने कपड़ों की धुलाई से समुद्र और नदियों में प्लास्टिक खतरनाक स्तर तक पहुंच गया है। इन कपड़ों को वॉशिंग मशीन में जब धोया जाता है तो इनमें से माइक्रोफाइबर्स रिलीज़ होते हैं जो सीवेज और वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट प्लांट्स से होते हुए समुद्रों, झीलों और नदियों में पहुंच जाते हैं और जलीय पारिस्थितिकी तंत्र पर बुरा असर डालते हैं। बिजनेस इनसाइडर के मुताबिक कपड़ों की धुलाई से हर साल 500,000 टन माइक्रोफाइबर समुद्र में रिलीज होते हैं, जो 50 अरब प्लास्टिक की बोतलों के बराबर है। इन माइक्रोफाइबर्स को बायोडिग्रेड होने में सैकड़ों साल लग जाते हैं जिससे ये जलीय स्त्रोतों में लंबे समय तक मौजूद रहते हैं। प्लैंकटन जैसे सूक्ष्म जलीय जीव इन माइक्रोफाइबर्स को ग्रहण कर लेते हैं जो खाद्य श्रृंखला के जरिए मछलियों, झीगों और केंकड़ों जैसी प्रजातियों से मनुष्यों के शरीर तक पहुंच जाते हैं जिसका स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव होता है। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ रिसर्च की 2017 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, समुद्रों में माइक्रोप्लास्टिक का 35 फीसद पॉलिएस्टर जैसे सिंथेटिक टैक्सटाइल्स की लॉन्ड्रिंग से आता है।
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ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में बढ़त
जैसा कि हमने लेख की शुरुआत में बताया कि गारमेंट इंडस्ट्री वैश्विक कार्बन उत्सर्जन के 10% के लिए जिम्मेदार है। हर साल खरीदे जाने वाले लाखों कपड़ों के उत्पादन, निर्माण और परिवहन के दौरान उपयोग की जाने वाली ऊर्जा की वजह से ग्रीनहाउस गैसों का अधिक उत्सर्जन हो रहा है। हमारे अधिकांश कपड़ों में उपयोग किए जाने वाले सिंथेटिक फाइबर जीवाश्म ईंधन से बने होते हैं, जो प्राकृतिक फाइबर की तुलना में अधिक ऊर्जा का उपयोग करते हैं। वहीं अधिकांश कपड़ों का उत्पादन चीन, बांग्लादेश या भारत जैसे देशों में होता है जिनमें कपड़ा मिलें अधिकतर कोयले से संचालित होती हैं जो प्रदूषण में वृद्धि करता है।
कपड़ों के सस्ते दाम और नए-नए ट्रेंड की वजह से ग्राहक पहले के मुकाबले अधिक कपडे़ खरीदने लगे हैं। ये अर्थव्यवस्था के लिए जितना फायदेमंद है उतना ही पर्यावरण के लिए हानिकारक। कम गुणवत्ता वाले ये कपड़े कुछ ही दिन चलते हैं और फिर कबाड़ में फेंक दिए जाते हैं। इन इस्तेमाल किए हुए कपड़ों के रिसाइकल होने की दर बेहद कम है और इनको बमुश्किल ही दान किया जाता है जिसकी वजह से लैंडफिल साइट्स पर इनका ढेर लगा रहता है। इसके अलावा जब इन कपड़ों के कबाड़ को नष्ट करने के लिए जलाया जाता है तो इनसे बड़ी मात्रा में जहरीले पदार्थ और गैसें निकलती है जो आसपास रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती हैं। एलेन मैकआर्थर फाउंडेशन के मुताबिक, कपड़ों का 1% से कम भी रिसाइकल नहीं किया जाता है और हर साल 35,618 अरब रुपए के मूल्य के कपड़े नष्ट हो जाते हैं।
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पेड़ों और मृदा के कटाव में बढ़ोतरी
रेयॉन और विस्कोस जैसे फेब्रिक बनाने के लिए लकड़ी की लुगदी का इस्तेमाल किया जाता है जिसकी वजह से हर साल हजारों हेक्टेयर पर फैले लुप्तप्राय और प्राचीन जंगलों को काट दिया जाता है। इन फैब्रिक्स के उत्पादन के लिए हर साल 150 मिलियन से अधिक पेड़ काटे जाते हैं जिनकी मात्रा अगले दशक तक दोगुना होने की उम्मीद है। जंगलों के इस नुकसान से पारिस्थितिकी तंत्र और वहां रहने वाले समुदायों की आजीविका पर खतरा मंडराने लगता है।
कपड़ों के सस्ते दाम और नए-नए ट्रेंड की वजह से ग्राहक पहले के मुकाबले अधिक कपडे़ खरीदने लगे हैं। कम गुणवत्ता वाले ये कपड़े कुछ ही दिन चलते हैं और फिर कबाड़ में फेंक दिए जाते हैं। इन इस्तेमाल किए हुए कपड़ों के रिसाइकल होने की दर बेहद कम है और इनको बमुश्किल ही दान किया जाता है जिसकी वजह से लैंडफिल साइट्स पर इनका ढेर लगा रहता है।
मृदा हमारे पारिस्थितिकी तंत्र का एक मूलभूत तत्व है। हमें खाद्य उत्पादन के लिए तो उपजाऊ मृदा की आवश्यकता होती ही है। वहीं यह कार्बन डाइऑक्साइड को सोखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मिट्टी का बड़े पैमाने पर वैश्विक क्षरण वैश्विक खाद्य सुरक्षा के लिए एक बड़ा खतरा है और यह ग्लोबल वार्मिंग को भी बढ़ावा देता है। फैशन इंडस्ट्री ने मिट्टी के कटाव में बढ़ोतरी की है। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह है दुनियाभर में सस्ते कश्मीरी ऊन की बढ़ती मांग। बीबीसी की ही रिपोर्ट के मुताबिक, इस बढ़ती मांग की वजह से 1990 के दशक से अब तक बकरियों और भेड़ों जैसे पशुओं की संख्या तीन गुणा तक बढ़ गई है जिनकी चराई से घास के मैदानों को बहुत नुकसान हो रहा है। इसके साथ ही कपास के उत्पादन के लिए उपयोग किए जाने वाले रसायन और पेड़ों की कटाई ने भी इसमें अपना योगदान दिया है।
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मजदूरों का शोषण
फास्ट फैशन के उपभोक्ताओं को इस बात का आभास ही नहीं होता कि फैशन की इस चमचमाती दुनिया के पीछे कितने मजदूरों का दिन-रात शोषण किया जाता है। कई फैशन ब्रांड्स ये दावा करते हैं कि वे अपने यहां काम करने वाले श्रमिकों को न्यूनतम कानूनी वेतन देते हैं लेकिन फिर ऐसा क्यों है कि इन श्रमिकों का अपनी आजीविका चलाना भी दूभर हो जाता है। चलिए हम आपको बताते हैं। ये कंपनियां लिविंग वेज यानी कि उतना वेतन जो एक परिवार की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा कर सके, न देकर अपने हिसाब से वेतन निर्धारित करती हैं जो लिविंग वेज का आधा या उससे भी कम होता है। ऑक्सफैम की एक हालिया रिपोर्ट में पाया गया है कि ऑस्ट्रेलिया में श्रमिक बेचे जाने वाले कपड़ों की कीमत का 2% जितना कम कमाते हैं। ‘द ट्रू कॉस्ट डॉक्यूमेंट्री‘ के मुताबिक, बांग्लादेश की कपड़ा मिलों में काम करने वाले मज़दूरों को दुनिया में सबसे कम वेतन मिलता है। इनमें से कुछ तो 3 डॉलर प्रति दिन के हिसाब से काम करते हैं जिससे उनके पास अपने बच्चों को खिलाने और उन्हें स्कूल भेजने तक के पैसे नहीं जुट पाते।
इसके अलावा कपड़ा मिलों में काम करने वाले इन श्रमिकों को अक्सर सप्ताह में 7 दिन 14 से 16 घंटे काम करने के लिए मजबूर किया जाता है। पीक सीज़न के दौरान तो उनको सुबह के दो-तीन बजे तक काम करना पड़ता है। वे ओवरटाइम काम से इनकार भी नहीं कर पाते क्योंकि अगर वे ऐसा करते हैं तो नौकरी से निकाले जाने का डर रहता है। कुछ मामलों में तो ओवरटाइम का भुगतान भी नहीं किया जाता है। इन कारखानों में सुरक्षा और स्वास्थ्य मानदंड़ों का पालन भी नहीं किया जाता है। 2013 में बांग्लादेश के ढाका में राणा प्लाजा के ढहने से 1134 श्रमिकों की मौत और 2500 से ज्यादा घायल हुए थे जिसने पूरी फैशन इंडस्ट्री के काले पक्ष को उजागर कर दिया था। वहीं यहां महिलाओं और बच्चों का शोषण भी किसी से छिपा नहीं है। यहां पर भी लैंगिक भेदभाव आम बात है। महिलाओं को पुरुषों के बराबर वेतन नहीं दिया जाता है, चाहे दोनों समान काम ही क्यों न कर रहे हों। इन मिलों में महिलाओं के लिए पृथक् शौचालय की व्यवस्था भी नहीं होती है। इतने कड़े कानूनों के बावजूद भी इन मिलों में बच्चों से दिन-रात काम कराया जाता है। चूंकि फैशन इंडस्ट्री को कम कुशल श्रम की आवश्यकता होती है, इसलिए बाल श्रम यहां आम बात है।
फास्ट फैशन के उपभोक्ताओं को इस बात का आभास ही नहीं होता कि फैशन की इस चमचमाती दुनिया के पीछे कितने मजदूरों का दिन-रात शोषण किया जाता है। कई फैशन ब्रांड्स ये दावा करते हैं कि वे अपने यहां काम करने वाले श्रमिकों को न्यूनतम कानूनी वेतन देते हैं लेकिन फिर ऐसा क्यों है कि इन श्रमिकों का अपनी आजीविका चलाना भी दूभर हो जाता है।
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तो क्या इसका कोई विकल्प है ?
ज़रूर है, उत्पादों और पर्यावरण की इस बर्बादी से बचने का विकल्प है, सस्टेनेबल फैशन। सस्टेनेबल फैशन का मतलब है, ऐसे उत्पादों का इस्तेमाल करना जो पर्यावरण को नुकसान न पहुंचाएं। हल्के क्वालिटी के कपड़े सस्ते होते हैं और इनको बनाने में हानिकारक रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है। इसलिए फैशन ब्रांड्स क्वांटिटी से ज्यादा क्वालिटी पर ध्यान दें। हर सीजन में नया- नया कलेक्शन जारी करने के बजाय डिजाइनर कपड़ों की ऐसी डिजाइन तैयार करने पर ध्यान दें जो हर सीजन में पहने जा सकें। सस्टेनेबल विस्कोस, ऑर्गेनिक कॉटन और ऊन जैसी कुछ सामग्रियां पारिस्थितिकी तंत्र के लिए बेहतर होती हैं। इसके साथ ही पुराने कपड़ों को मुख्यधारा के फैशन में वापिस लाकर हथकरघा उद्योग वाटर फुटप्रिंट और प्रदूषण को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। हथकरघा उद्योगों में इंफ्रास्ट्रक्चर, टेक्नोलॉजी और एनर्जी का उपयोग बहुत ही कम होता है और प्राकृतिक रंगों और धागों से कपड़े तैयार किए जाते हैं जिससे पर्यावरण को भी बहुत कम नुकसान होता है और वहां रहने वाले स्थानीय लोगों और बुनकरों को रोजगार भी मिलता है।
लेकिन वास्तव में इस सबका असर तभी होगा जब हम उपभोक्ता अपने व्यवहार में बदलाव लाते हैं। हम इतना तो कर सकते हैं कि अगली बार जब भी हम शॉपिंग करने जायें तो अपने चुनाव पर विचार जरूर करें। एक जिम्मेदार और जागरूक नागरिक होने के नाते ब्रांड के बारे में पता लगाएं कि वह सस्टेनेबल है या नहीं। उत्पाद के पीछे की प्रक्रिया को जानने की कोशिश करें कि वह कहां बना है और कैसे बना है, उसके बनने में पर्यावरण को कितना नुकसान पहुंचाया गया है। इसके साथ ही वॉशिंग मशीन में एक बार में अधिक से अधिक कपड़े धुलने की कोशिश करें। कोई कपड़ा अगर आपको पसंद नहीं है तो उसे अपने परिवारवालों के साथ अदला- बदली कर लें। एक साल में जितने कपड़े आप खरीदते हैं, उसे कम करना शुरू कर दें। जितनी जरूरत हो, उतना ही खरीदें, ये नहीं कि मेरे वार्डरोब में फलां कलर और डिजाइन नहीं है और उसे खरीदने चल दिए।
कपड़ों को दो- चार बार पहनने के बाद फेंके नहीं। उनका लंबे समय तक उपयोग करें या फिर दान कर दें। अगर कपड़ा कहीं से फट जाता है तो उसे फेंकने के बजाय रफू करवा लें या आप उसको डोरमैट या किसी और काम के लिए दोबारा उपयोग कर सकते हैं। अगर आपको ये सब नहीं आता है तो ‘5 मिनट क्राफ्ट्स’ देख लें जो बेहद आसान तरीके से बताते हैं कि चीजों को दोबारा उपयोग में कैसे लाया जा सकता है। एनबीसी न्यूज़ के मुताबिक, अगर आप एक जोड़ी कपड़े को 9 महीने ज्यादा तक उपयोग करते हैं तो इससे 30 फीसद तक कार्बन फुटप्रिंट कम हो सकता है। वहीं KRON 4 News के मुताबिक, अगर हर व्यक्ति इस साल नया आइटम लेने की बजाय एक रिसाइकल्ड आइटम खरीदता है तो तो इससे 6 पाउंड यानी कि लगभग 2.7 किलोग्राम कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन कम हो सकता है। जब तक ऐसे जरूरी कदम अमल में नहीं लाए जायेंगे तब तक सस्टेनेबल फैशन बेमानी ही नजर आएगा। यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी उपभोक्ताओं के साथ-साथ मैन्यूफैक्चरर्स, सेलिब्रिटीज और सरकार के कंधों पर भी है कि फैशन की दुनिया में आ रहे उत्पाद पर्यावरण के अनुकूल हो।
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तस्वीर: रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए