एक महिला बच्चा पैदा करेगी, नहीं करेगी, कब करेगी या कितने बच्चे पैदा करेगी यह तय करने के लिए दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में महिला के पास अपनी कोई मर्ज़ी नहीं है। परिवार और रिश्तों के बाद सरकार भी यह तय करती है कि एक महिला को कितने बच्चे पैदा करने हैं। बढ़ती आबादी को कम करने के लिए सरकार के ऐसे फैसलों में सबसे ज्यादा महिलाएं प्रभावित होती हैं। पहले से हाशिये पर जी रही महिलाओं के पक्ष को नीति-निर्माण में नजरअंदाज़ कर उन पर फरमान की तरह आदेश थोप दिए जाते हैं। महिलाओं की जिंदगी पर इसका क्या असर पड़ेगा इसकी परवाह किये बगैर योजनाएं लागू की जा रही हैं।
असम के बाद देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार ने राज्य के विकास में बाधा बनती बढ़ती आबादी को रोकने के लिए ‘जनसंख्या नियंत्रण नीति 2021-30’ का एक प्रारूप जारी किया है। राज्य सरकार ने ‘हम दो हमारे दो’ पर जोर देकर प्रस्तावित कानून में सरकारी योजनाओं में प्रमुखता, अन्य प्रोत्साहन लाभ और छूट और दंडात्मक प्रावधान बनाए हैं। इस बिल में यह भी सिफारिश की गई है कि दो बच्चों की नीति का उल्लंघन करने वाले को स्थानीय निकाय चुनाव में हिस्सा लेने की भी इजाज़त नहीं होगी। सरकारी नौकरी में आवेदन करने और प्रमोशन पाने पर रोक के अलावा सरकार से मिलने वाली सब्सिडी से लोगों को वंचित कर दिया जाएगा। राज्य सरकार की ओर से कहा गया है कि सर्वागीण विकास के लिए ऐसे कदम उठाने आवश्यक हैं। इस तथाकथित विकास के क्रम में महिलाएं क्या सोचती हैं और वे क्या चाहती हैं इस बात पर बिना ध्यान दिए ऐसे कानून बना दिए जाते हैं जहां सीधे तौर पर विषय महिला से संबंधित ही क्यों न हो।
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क्या कहते हैं जनसंख्या के आंकड़े ?
भारत तेज़ी से बढ़ती जनसंख्या वाला देश है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार साल 2019 से साल 2050 के बीच भारत की आबादी में 273 मिलियन और लोग जुड़ेंगे। दुनिया की कुल आबादी का 16 फ़ीसद भारत की आबादी का हिस्सा है। उत्तर प्रदेश सरकार का दो बच्चों की नीति का प्रस्ताव रखने वाला देश का पहला राज्य नहीं है। इससे पहले असम, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलगांना, गुजरात, कर्नाटक ओडिशा और राजस्थान जैसे कई राज्यों में दो बच्चा नीति लागू हो चुकी है। साथ ही कुछ राज्य जिन्होंने जनसंख्या नियत्रंण की इस तरह की नीति बनाई थी और बाद में वापस भी ले लिया था। सियासत के खेल में जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर चुनाव की राजनीति पर ज्यादा जोर दिया जाता है। यहीं कारण है कि इस जरूरी मुद्दे को उस गंभीरता से नहीं लिया जाता, जितना लेना चाहिए।
एक महिला बच्चा पैदा करेगी, नहीं करेगी, कब करेगी या कितने बच्चे पैदा करेगी यह तय करने के लिए दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में महिला के पास अपनी कोई मर्ज़ी नहीं है।
भारत की कुल आबादी की प्रजनन दर 2.3 है। भारत सरकार के आंकड़ों पर ही बात करें तो राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण साल 2019-20 के अनुसार भारत के 22 में से 19 राज्यों की जनसंख्या में गिरावट आ रही है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-2, 3, 4 के विश्लेषण के बाद भी यह बात सामने आती है कि उत्तर प्रदेश की आबादी पहले की तरह नहीं बढ़ रही है। इससे तो यही दिखता है कि राज्य की आबादी भी उस तेजी से नहीं बढ़ रही है कि ‘जनसंख्या विस्फोट’ जैसी समस्या का सामना करना पड़ेगा। प्रदेश सरकार के प्रस्तावित बिल के उपाय को ध्यान से देखने पर यह साफ हो जाता है कि इन सुझावों से भारत जैसे देश में जहां पहले से ही व्याप्त लिंग असमानता है वह बढ़ेगी और महिलाओं के लिए ज्यादा नुकसानदेह साबित होगी।
देश या राज्य के परिपेक्ष में कही भी जनसंख्या नियंत्रण की नीति लागू करने के बारे में विशेषज्ञों ने कहा है कि बढ़ती आबादी को रोकने के लिए कठोर या दंडात्मक प्रावधान से रोकना नामुमकिन है। दुनिया के कई देशों और अपने ही देश के कुछ राज्यों में इसके नकारात्मक असर देखने को मिल चुके हैं। तमाम तरह के शोध से यह बात सामने आती है कि इस तरह की नीतियां प्रभावहीन तो साबित होती है, साथ ही महिलाओं की सामाजिक स्थिति को भी कमजोर करती है। देश के ही राज्य केरल और तमिलनाडु ने प्रजनन दर को नियंत्रित कर दिखाया है। इन राज्यों ने महिला शिक्षा, स्वास्थ्य, बच्चियों को ज्यादा संख्या में स्कूल में दाखिला दिलाकर, महिला प्रसव के लिए अस्पताल की सेवा मुहैया कराकर और शिशु जीवन को उच्च बनाकर जनसंख्या को नियंत्रित किया है।
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महिला पर होगा सबसे अधिक असर
महिलाएं बच्चा पैदा करती हैं तो जाहिर सी बात है जन्म को लेकर किया जाने वाला कोई भी फैसला सबसे ज्यादा उन्हें ही प्रभावित करेगा। जनसंख्या नियंत्रण के इस तरह के मसौदे जो दंडात्मक सोच के आधार पर बने हो उनका असर भी उतना ही कठोर होगा। इसके परिणाम कन्या भ्रूण हत्या, असुरक्षित गर्भपात, महिला मृत्यु या खराब स्वास्थ्य, घरेलू हिंसा, पुत्र लालसा और बेटियों के साथ असमानता जैसे व्यवहार सामने आएंगे। दो बच्चा नीति में अगर दोनों बेटियां हो गई तो उनको हिंसा का सामना भी करना पड़ सकता है। लड़का ने होने के कारण महिला को घर से बाहर निकाल देने जैसी घटनाएं भी हमारे ही समाज मे होती रहती है। इसके अलावा ऐसे फैसलों से विवाह पंजीकरण में भी कमी आ सकती है, जिसमें महिला और उसके बच्चे को आसानी से नकार दिया जा सकता है।
बेटा ही है ‘बच्चा’
भारत दुनिया का वह देश जिसमें सबसे ज्यादा भ्रूण हत्या होती है। इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि यह भ्रूण लड़की का ही होता है। हर पचास सेकेंड में देश में एक कन्या भ्रूण हत्या होती है। यूनाइटेड नेशन पॉपुलेशन फंड की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार 4.6 करोड़ लड़कियां भारत में सिर्फ उनकी लैंगिक पहचान के कारण मार दी जाती है। इसी रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रसव के दौरान महिला मृत्यु दर भी बहुत अधिक है। भारत में पांच साल से कम आयु वाले बच्चे की हर पांच में से एक बच्चे की मौत उसकी लैंगिक पहचान के कारण होती है। भारत में 1000 बच्ची के जन्म में से 13.5 की मृत्यु का आंकड़ा दुनिया में लड़की की सबसे अधिक मृत्यु दर को दिखाता है।
जनसंख्या नियंत्रण के इस तरह के मसौदे जो दंडात्मक सोच के आधार पर बने हो उनका असर भी उतना ही कठोर होगा। इसके परिणाम कन्या भ्रूण हत्या, असुरक्षित गर्भपात, महिला मृत्यु या खराब स्वास्थ्य, घरेलू हिंसा, पुत्र लालसा और बेटियों के साथ असमानता जैसे व्यवहार सामने आएंगे।
समाज में एक महिला को सिर्फ इस बात पर अपमान, तिरस्कार का सामना करना पड़ता है कि वह एक बेटे को जन्म नहीं दे पाई है। भारत में छह साल से कम उम्र के 1000 बालक पर 927 बच्चियां है। यह अंतर साफ दिखाता है कि लड़कियों की संख्या में कितना अंतर है। इंडियन ह्यूमन डेवलपमेंट के एक सर्वे के अनुसार भारत में 77 प्रतिशत माता-पिता अपनी वृद्धा अवस्था में अपने बेटे के साथ रहना चाहते हैं। बेटे की चाहत के कारण बेटियों की हत्या और उनके साथ भेदभाव होता आ रहा है। इससे महिला असुरक्षित गर्भपात की ओर कदम भी बढ़ाती है। इंडिया टुडे के लेख के अनुसार भारत में हर दिन 13 महिला असुरक्षित गर्भपात के कारण अपनी जान गंवा देती हैं। 6.4 मिलयन से भी अधिक गर्भवती महिलाएं हर साल असुरक्षित गर्भपात के कारण मौत के मुंह में चली जाती हैं। बेटा और बेटी का यह अंतर एक महिला को सिर्फ इसलिए मार देता है क्योंकि वह एक बेटी को जन्म देने वाली थी।
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कानून से अलग नीति-व्यवहार में करना है सुधार
बढ़ती जनसंख्या भारत के लिए एक प्रमुख समस्या है। इसके लिए सख्ती और प्रलोभन से कही अधिक मौजूदा सिस्टम को बदलने की अधिक आवश्यकता है। जागरूकता एक ऐसा उपाय है जिसके द्वारा समस्याओं का समाधान आसानी से किया जा सकता है। स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी सुविधाओं के माध्यम से ही जनसंख्या नियंत्रण पर काबू किया जा सकता है। जनसंख्या नियत्रंण के लिए परिवार नियोजन की ज़िम्मेदारी महिला-पुरुष दोनों पर बराबर होनी चाहिए। समाज में भले ही ‘वंश चलाने के लिए’ बच्चे को पुरुष से जोड़ा जाता हो, लेकिन उनकी जिम्मेदारी का अधिक भार महिला पर ही होता है। परिवार नियोजन का भार भी महिलाओं पर ही पड़ता है।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य परिवार सर्वेक्षण-2015-16 के अनुसार परिवार नियोजन में पुरुष की नसबंदी का हिस्सा मात्र 0.3 फ़ीसद है। 36 प्रतिशत महिलाएं नसबंदी कराती हैं। 53.5 फीसद परिवार नियोजन के लिए किसी भी विधि का इस्तेमाल नहीं करते हैं। इस सर्वेक्षण के अनुसार देश में परिवार नियोजन के लिए आधुनिक तरीकों के प्रयोग में वृद्धि हुई है। परिवार नियोजन के आधुनिक तरीकों में कंडोम का प्रयोग 5.6 फ़ीसद, गोली का इस्तेमाल 4.1 फ़ीसद, आईयूपी या पीपीआईयूडी का 1.5 फ़ीसद ही प्रयोग करते हैं। परिवार नियोजन में पुरुषों की नसबंदी महिलाओं से बहुत कम है। यह आंकड़ा यह दिखाता है कि परिवार नियोजन की जिम्मेदारी भी महिलाओं पर डाल दी जाती है। इसी सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार महिलाएं अपनी प्रेग्नेंसी में अंतर को रोकना या बढ़ाना चाहती थी, लेकिन उपाय तक पहुंच न होने के कारण व ऐसा नहीं कर सकी। भारत सरकार के द्वारा जारी ये आंकड़े बिना किसी बच्चा नीति के महिलाओं की खराब स्थिति को दर्शाते हैं।
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जागरूकता है उपाय
बढ़ती आबादी को रोकने के लिए भी लोगों को इसके बारे में जागरूक कर ही आसानी से नियंत्रण पाया जा सकता है। लिंगभेद को खत्म करने के लिए मानसिकता में परिवर्तन लाना बेहद आवश्यक है। महिला की देह को केवल बच्चा पैदा करने तक सीमित मानने वाली सोच से आगे आना होगा। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के साधनों में महिला की भागीदारी को अधिक कर समाज में महिला स्थिति को बदल सकते है। जानकारों के मुताबिक सेक्स एजुकेशन के माध्यम से जनसंख्या नियत्रंण को बेहतर तरीके से नियंत्रित किया जा सकता है। नीति से अलग रीति-परंपराओं में भी लड़कियों को बराबर की जगह देकर असमानता के जाल से निकला जा सकता है। शादी के बाद केवल पति के घर ही रहना और संपत्ति पर केवल पुत्र का ही हक होने जैसी रूढ़िवादी सोच को नकार कर लड़कियों को आर्थिक रूप से सशक्त कर बढ़ती आबादी की स्थिति पर नियंत्रण संभव है। जनसंख्या को किसी विशेष धर्म से जोड़ना केवल नफरत की राजनीति से ग्रसित सोच है, जो विशेष रूप से मुस्लिम धर्म को देश में बढ़ती आबादी के लिए जिम्मेदार मानती है। गरीबी के कारण बच्चे पौष्टिक आहार और पोषण से पहले ही दूर होते हैं। गरीबों में शिशु मृत्यु दर अधिक होती है, ऐसे में ज्यादा बच्चे होने पर उनसे सब्सिडी छीनना, उन्हें सस्ता अनाज, सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं व सरकारी जनकल्याण की सीमित योजनाओं से वंचित करना नियत्रंण कानून को दंड के रूप में लागू कर उसके मूल भाव को पीछे छोड़ देता है।
वहीं, हमेशा यह भी कहा जाता है कि प्राकृतिक संसाधनों को खत्म करने के लिए जनसंख्या जिम्मेदार है। लेकिन यह कितना बड़ा मिथ्य है क्योंकि 99 फीसद संसाधनों पर तो 1 फीसद अमीर लोगों का कब्जा है। भले ही अमीर लोगों में बच्चा पैदा करने की दर कम हो लेकिन संसाधनों को प्रयोग सबसे अधिक संपन्न लोग करते हैं। महामारी के समय में भी इन पूंजीपतियों की पूंजी में बढ़ोत्तरी हुई है। ऑक्सफैम की रिपोर्ट भी कहती है कि भारत के 1 फ़ीसद अरबपतियों के पास कुल 70 फ़ीसद भारतीयों के धन से चार गुना ज्यादा धन है। बढ़ती जनसंख्या की समस्या को नियंत्रित करने के लिए हमें दंड़ात्मक नीतियों के बजाय ऐसे सशक्त कार्यों को करने की आवश्यकता है जो लड़कियों और महिलाओं को उनके अधिकार के प्रयोग के लिए सशक्त करते हो। विशेषज्ञ और शोध के सुझाव यही कहते हैं कि ‘बेटी भार होती है’ की सोच को बदलकर उसके कल्याण को प्रमुखता देकर सामाजिक परेशानियों को खत्म किया जा सकता है। महिला को उसके प्रजनन के निर्णय लेने के लिए किसी अन्य के अधीन न होकर स्वयं से फैसला लेने की स्वतंत्रता दी जाए। साथ ही शैक्षिक और आर्थिक संपन्नता को सब तक समान रूप से पहुंचा कर उसमें सजगता लाकर समाजिक समस्याओं का समाधान किया जाए।
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तस्वीर साभार : Scroll