बीसवीं सदी की शुरुआत में ईरान में स्वेच्छाचारी पारसी राजतंत्र का निर्मूलन और जनतंत्र प्रतिष्ठा की मकसद से सशस्त्र क्रांतिकारी संग्राम भी उस वक्त ज़ोरशोर से चल रहा था और साथ ही साथ आंदोलनकारियों पर बढ़ रहा था सरकारी का दमन भी। इस आंदोलन के एक बड़े नेता थे आगा मुयाज़ादा इस्लाम। अपनी मातृभूमि की दुर्दशा और वहां चल रहे जनआंदोलन के बारे में बाहरी दुनिया को सचेत कर विश्व स्तर पर सरकारी तानाशाही के ख़िलाफ़ जनमत और आंदोलन संगठित करने के लिए आगा मुयाज़ादा अपने पूरी परिवार को लेकर चले आए थे अपना देश छोड़कर बहुत दूर तब के ब्रिटिश भारत की राजधानी शहर कलकत्ता में। वह भारत में खुद को किसी प्रकार से ब्रिटिश विरोधी राजनैतिक आंदोलन में नहीं जोड़ेंगे, इस लिखित शर्त के बदले उनको कलकत्ता में रहने की अनुमति मिली पर आगा का कट्टर क्रांतिकारी दिल पूरे भारत में साम्राज्यवादी ब्रिटिश द्वारा किए जा रहे बर्बर अत्याचारों को देखकर दहल उठा और वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के साथ भी प्रत्यक्ष तरीके से शामिल हो गए। इसके साथ ही उन्होंने अपनी मातृभूमि में चल रहे जनतांत्रिक आंदोलन को पूरी दुनिया में परिचित करने के लिए ‘हबुल-ए- मतीन’ नाम की एक राजनीतिक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन भी गुप्त तरीके से शुरू किया।
आगा परिवार की बेटियां
आगा अपने व्यक्तिगत जीवन में भी एक बहुत ही प्रगतिशील इंसान और औरतों की शिक्षा के सच्चे समर्थक थे। उन्होंने अपनी दोनों बेटियों को सर्वोत्तम शिक्षा और परवरिश मुहैया करवाई। उनकी बड़ी बेटी बेगम सुलतान तमाम भारतीय उपमहादेश की सबसे पहली मुसलमान औरत थीं, जो ग्रैजुएट बनीं। उनकी छोटी बेटी बेगम सकीना भी बहुत मेधावी थी, जो 1920 के दशक में बीए और एमए दोनों ही परीक्षाओं में फर्स्ट क्लास से उत्तीर्ण हुई और भारतीय मुसलमान महिला के तौर पर लॉ की भी डिग्री हासिल की। इसके बाद उन्होंने कलकत्ता हाईकोर्ट में पेशेवर वकील की हैसियत से अपने स्वतंत्र करियर की नींव रखी। वह शुरुआत से ही सामाजिक या आर्थिक कारणों से पीड़ित महिलाओं के हक़ के लिए लड़ती रहीं।
अनोखी बेगम सकीना
वक़ालत के साथ-साथ सकीना को समकालीन साहित्य और राजनीति में भी गहरी रुचि थी। अपनी मातृभाषा के अलावा उन्हें और भी कई भाषाओं का ज्ञान था। जैसे उर्दू, हिंदी, अंग्रेज़ी और फ्रेंच लेकिन उन्हें सबसे ज़्यादा लगाव था बांग्ला भाषा से। उस वक़्त की मशहूर बांग्ला उदारवादी पत्रिका ‘सौगात’ की वह एक नियमित लेखिका रहीं। 1930 में ‘मुस्लिम समाज में नारी शिक्षा’ शीर्षक एक अपने एक निबंध में उन्होंने सदियों से मुसलमान समाज में महिलाओं पर चल रही अनेक रोकटोक पर सीधा सवाल उठाया। इस निर्भीक लेख में सकीना ने महिलाओं को रूढ़िवादी रीति-रिवाज़ों को तोड़कर शिक्षा और अपनी सामाजिक-आर्थिक स्वाबलंबन के रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए से दृढ़ता से आवाज़ दी थी।
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गर्दिशों से उभरकर एक नई शुरुआत
सकीना अपनी पेशेवर सफलता के रास्ते पर आगे बढ़ ही रही थीं पर तभी पूर्वी बंगाल के रंगपुर ज़िले के एक उच्चस्तरीय सरकारी कर्मचारी के साथ उनका निकाह हो गया पर बचपन से ही आज़ाद ख्याल सकीना को लगातार घरेलू समझौते और लैंगिक विषमता रास नहीं आई। अपनी गृहस्थी को किसी भी क़ीमत पर कायम रखने की कुछ सालों की असफल कोशिशों को ख़त्म कर के एकदिन सकीना अपनी इकलौती बच्ची को लेकर हमेशा के लिए कलकत्ता वापस आ गई। अपनी शादीशुदा ज़िंदगी की कड़वी यादों को भुलाकर एक नए सिरे से सकीना ने कलकत्ता हाईकोर्ट में अपनी वक़ालत की प्रैक्टिस शुरू कर दी। लगभग इसी समय में उन्होंने समकालीन भारतीय राजनीति से भी खुद को जोड़ने का निश्चय किया था। हमेशा अपने संपन्न परिवार और अभिजात्य सामाजिक परिवेश में रहने के बावजूद बेगम सकीना अपने पिता के राजनीतिक विश्वास और काम की वजह से किशोरावस्था से ही कम्युनिज़्म के समानतावादी आदर्श की ओर आकर्षित हुई थीं। उधर अपनी अम्मी से उन्हें धरोहर में मिले थे निस्वार्थ समाजसेवा और धर्मनिरपेक्षता जैसे महान आदर्शों के पाठ।
प्रत्यक्ष राजनीति से जुड़ने का फैसला
साल 1937, अपने अब्बू -अम्मी के खुले समर्थन और प्रोत्साहन के बल पर कलकत्ता कॉरपोरेशन के चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में हिस्सा लिया और जीतकर भी आईं। अब अपने इलाके की काउंसलर के तौर पर पूरे जोश के साथ बेगम सकीना ने उन्नति के कई काम शुरू किए पर दुनियादारी से परे इस नए आदर्शवादी राजनीतिक ने जैसे सोच रखा था, असलियत उतनी सहज नहीं थी। एक के बाद एक नई-नई कठिनाइयों का सामना सकीना को करना पड़ रहा था जिनमें उनके के लिए सबसे चुनौतीपूर्ण था, अपने इलाके में काम करनेवाले कलकत्ता कॉरपोरेशन के सफाई कर्मचारियों की दयनीय स्थिति को सुधारना।
ज़्यादातर दलित और आदिवासी वर्ग के ये ग़रीब बिहार और ओडिशा के गांवों से कलकत्ता में काम की तलाश में आकर मजबूरन बेहद कम तनख्वाह के बदले शहर के रास्ते, गटर और नालों की सफाई के काम में जुट जाते थे पर शहर को रोज़ाना साफ-सुथरा रखने जैसी ज़रूरी ज़िम्मेदारी इनके कंधों पर होते हुए भी इन्हें बदले में शहर की ओर से उपेक्षा और अपमान के अलावा कुछ नहीं मिलता था। इन श्रमिकों को कलकत्ता कॉर्पोरेशन से ना कभी नियमित और उचित वेतन, न ही रहने की कोई जगह। झुग्गी-झोपड़ियों में पूरे परिवार सहित रहनेवाले इन मजदूरों के लिए ना काम की कोई तय समयसीमा थी, न रिटायर होने के बाद पेंशन। महिला मज़दूरों के लिए मातृत्व अवकाश या दूसरी छुट्टियां भी नहीं थीं। श्रमिक परिवारों के बच्चों के लिए शिक्षा, साफ पीने का पानी और चिकित्सा जैसी मौलिक सुविधाओं के बारे में भी कॉर्पोरेशन के उच्चस्तरीय ब्रिटिश और भारतीय ‘साहिब’ लोग कभी सोचते ही नहीं थे। विदेशी सरकार तो खैर अविवेकी ही थी पर देश में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन के ‘महान’ नेताओं में भी किसी ने इनकी सुख-सुविधाओं, अधिकारों के लिए कभी आवाज़ नहीं उठाई।
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मज़दूरों की ऐसी दुखद स्थिति को संवेदनशील बेगम सकीना सहन नहीं कर पाई और उन्होंने अपनी काउंसिलर की सीमित क्षमता के भीतर ही बेरोज़गार मजदूरों के लिए रोज़गार के दूसरे विकल्प खोजे और सब के लिए मुफ्त शिक्षा और चिकित्सा सुविधा मुहैया करवाने जैसे सामाजिक काम शुरू किए। धीरे-धीरे वे अपना पूरा समय श्रमिकों की झोपड़ियों में उनके साथ ही बिताने लगीं। उनके सेवा कार्यों में सबसे आगे बढ़कर साथ दिया मज़दूर परिवार की महिलाओं ने जिनके लिए भी वह वैकल्पिक आय की तलाश करने लगी थीं।
कम्युनिस्ट श्रमिक आंदोलन और सफाईकर्मी
1920 के दशक से कलकत्ता में कम्युनिस्ट आंदोलन के प्रसार के चलते धीरे-धीरे छवि कुछ बदलने लगी थी। सदियों से शोषण सहन करने के आदि इन सर्वहारा सफाई श्रमिकों को पहली बार अपने राजनीतिक, आर्थिक और बाक़ी मानवाधिकारों के लिए सचेत और एकजुट किया कम्युनिस्ट नेता प्रभावती दासगुप्ता ने। उन्होंने सन् 1927 में सफाई कर्मचारियों का पहला ट्रेड यूनियन बनाकर इनके अधिकारों के लिए सरकार से लड़ना शुरू किया। साल 1928 में सैकड़ों सफाई कर्मचारियों ने उनके नेतृत्व में अपनी पहली हड़ताल को सफल किया। प्रभावती की पहल के बाद इनकी मांगों पर आंदोलन चलता तो रहा पर पूरे एक दशक के बाद भी सरकार की ओर से उनकी दुर्दशा में सुधार का कोई प्रयास नहीं किया गया। उल्टा 1939 में शुरू हुए दूसरे विश्वयुद्ध के चलते, सफाई कर्मचारियों के अलावा कॉर्पोरेशन के बाकी सारे डिपार्टमेंट के कर्मचारियों की तनख्वाह में बढ़ोतरी की गई। इधर युद्धकाल की बढ़ती महंगाई, कम तनख्वाह, खान-पान की ज़रूरी चीज़ों की किल्लत, मालिक और ठेकेदारों द्वारा अंधाधुंध बर्खास्तगी की वजह से बढ़ती हुई बेरोज़गारी और ग़रीबी ने पहले से ही हालात के मारे सफाईकर्मी, रिक्शावाला, मज़दूर सहित शहर के कारखानों में रोज़ी-रोटी कमानेवाले अनगिनत श्रमिकों को असहायता के एक असहनीय अंधेरे में ढकेल दिया।
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सर्वहारा मजदूरों की ‘माईजी’
मज़दूरों की ऐसी दुखद स्थिति को संवेदनशील बेगम सकीना सहन नहीं कर पाई और उन्होंने अपनी काउंसलर की सीमित क्षमता के भीतर ही बेरोज़गार मजदूरों के लिए रोज़गार के दूसरे विकल्प खोजे और सब के लिए मुफ्त शिक्षा और चिकित्सा सुविधा मुहैया करवाने जैसे सामाजिक काम शुरू किए। धीरे-धीरे वे अपना पूरा समय श्रमिकों की झोपड़ियों में उनके साथ ही बिताने लगीं। उनके सेवा कार्यों में सबसे आगे बढ़कर साथ दिया मज़दूर परिवार की महिलाओं ने जिनके लिए भी वह वैकल्पिक आय की तलाश करने लगी थीं। बेगम सकीना की कोशिशों की सच्चाई और बर्ताव ने उन्हें ना ही सिर्फ मज़दूर परिवारों के हर सुख-दुख का निकटतम साथी बना दिया पर मज़दूर भी अपने हर सामाजिक और आर्थिक समस्या के समाधान के लिए उनके ऊपर भरोसा करने लगे थे। विश्वास इतना था कि जल्द ही मज़दूर उन्हें ‘माईजी’ और ‘मां’ जैसे प्यार भरे नामों से बुलाने लगे। इन लोगों से सकीना को भी मिली थी एक अनोखी इज़्जत और मोहब्बत जो उन्हें अपनी अभिजात्य ज़िंदगी में कहीं कभी नसीब नहीं हुई। इस निस्वार्थ प्यार के बदले उन्होंने भी अपनी बाकी ज़िंदगी इनके लिए समर्पित करने का निश्चय किया।
राजनीतिक चेतना के शुरुआती दिनों से ही कम्युनिज़्म से प्रभावित बेगम सकीना साल 1937 से सफाईकर्मियों के अधिकार की लड़ाई को एक बड़े पैमाने पर ले जाने के लिए उस वक़्त के कम्युनिस्ट श्रमिक आंदोलन के साथ खुद को प्रत्यक्ष तरीके से जोड़ लिया। उस वक़्त के सबसे लोकप्रिय नेता सुभाषचंद्र बोस की सहायता से कॉर्पोरेशन के मेयर पद पर बैठे मुस्लिम लीग के ए.एम.सिद्दीकी। पहले ही राष्ट्रीय स्तर के नेताओं ने सफाईकर्मियों की समस्याओं से मुंह फेर लिया था पर इस बार सुभाषचंद्र के कॉपोरेशन से जुड़े होने की वजह से सकीना ने बड़ी उम्मीद से उनके पास सफाई श्रमिकों की युद्धकालीन महंगाई भत्ता, वेतन में बढ़ोतरी और नौकरी संबंधित अधिकारों की सुरक्षा निश्चित करने की गुहार लगाईं पर इस विषय में महान जननेता की अप्रत्याशित उदासीनता देख कर दंग रह गई सकीना को एक गहरा धक्का लगा।
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बेगम सकीना और वामपंथी सफाईकर्मी आंदोलन
अब सकीना और उनके श्रमिक साथियों के पास प्रत्यक्ष आंदोलन शुरू करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा। 1940 कि 26 मार्च से बेगम सकीना और बाकी कम्युनिस्ट नेताओं के नेतृत्व में शुरआत हुई सफाई कर्मचारियों की सबसे बड़ी हड़ताल की। पूरे शहर के 25 हज़ार से अधिक सफाई श्रमिकों ने शहर की साफ-सफ़ाई का काम बंद कर दिया। उनकी मुहिम के साथ जल्द ही शामिल हो गए कलकत्ता कॉर्पोरेशन और आसपास के सभी जूट कारखानों और दूसरे क्षेत्र के श्रमिक भी। 26 मार्च से 2 अप्रैल तक शहर के हर ओर हज़ारों श्रमिकों के की हड़ताल जारी रही, जिसका पैमाना दिन-ब-दिन बढ़ता ही रहा था।
यह बेशक़ शर्म की बात है कि मजदूरों के लिए उनकी लड़ाई और जीवनभर के अनगिनत सेवाकार्यों के ऐतिहासिक तथ्यों को न्यूनतम तरीके से भी संरक्षित नहीं किया गया, ना ही हमेशा से प्रचार से अलग रहीं बेगम सकीना ने अपनी कोई आत्मकथा लिखी थी। यहां तक कि उनकी एक तस्वीर को भी उनके समकालीन किसी ने संजोकर नहीं रखा।
एक ओर शहर की स्थिति को सुधारना और दूसरी ओर श्रमिकों की एकता और दृढ़ता से चिंतित ब्रिटिश सरकार अब हरकत में आई। कई जगहों पर आंदोलनकारियों की मीटिंग और रैलियों पर पुलिस की ओर से लाठीचार्ज किया गया, गिरफ्तारियां हुई, यहां तक कि गोली भी चलाई गई जिससे कई श्रमिक घायल हुए। सरकार की सख़्ती से मजदूर भड़क उठे और उनकी शांतिपूर्ण हड़ताल अब हिंसक रूप लेने लगी। स्थिति की गंभीरता और सफाई मजदूरों की मांगों को उचित को समझते हुए किसान नेता सहजानंद सरस्वती ने सुभाषचंद्र बोस से श्रमिकों की न्यायसंगत मांग तथा अधिकारों को मान्यता देने का अनुरोध किया। तब सुभाषचंद्र इस मुद्दे पर सक्रिय हुए। बेगम सकीना सहित मज़दूर प्रतिनिधियों के साथ मंहगाई भत्ता को ले कर की गई एक महत्वपूर्ण बैठक में 3 अप्रैल से उन्हें कॉर्पोरेशन के दूसरे कर्मचारियों के साथ महगांई भत्ता देने की बात तय हुई। अपनी इस छोटी सी जीत से श्रमिक इतने खुश हुए कि वे तुरंत अपनी हड़ताल तोड़कर शहर की सफाई के काम में लग गए।
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हालांकि सकीना जानती थीं, यह अधिकारों की लड़ाई अभी बस शुरू ही हुई है। आगे भी आंदोलन को जारी रखने के लिए उन्होंने अपने नेतृत्व में ‘कलकत्ता कॉर्पोरेशन सफाई श्रमिक यूनियन’ की नींव रखी, जिसके शुरुआती सदस्य बने शहर के विभिन्न क्षेत्र के 10 हज़ार मज़दूर। राजनीति के बाहर भी बेगम सकीना का पूरा समय पहले जैसे ही झुग्गियों में रहनेवाले श्रमिक परिवारों के देखभाल में बीता करता था। यहां तक कि उनका अपना मिडल रोड स्थित घर, जो कि अब ‘सफाई श्रमिक यूनियन’ का मुख्य दफ्तर बन चुका था, उसका दरवाज़ा भी 24 घंटे मज़दूरों के लिए खुला रहता था, जहां आंदोलनरत या फिर भूखे मजदूरों को दो वक़्त का खाना और रात में रहने की एक जगह मिल जाया करती थी। मालिक-मज़दूर, अमीर- गरीब जैसी विपरीत सामाजिक श्रेणियों में टकराव के बदले इन सभी में सूझबूझ और शांति से बनी एक समन्वयवादी यूटोपियन समाज का गठन और कम्युनिज़्म के सामाजिक और आर्थिक समानता के आदर्शों में विश्वास रखनेवाली सकीना कम्युनिस्ट आंदोलन और नेताओं के साथ होते हुए भी उनकी श्रेणी संग्राम सहित कई दूसरे कट्टर मतवाद के साथ सहमत नहीं होती थी। फिर भी अपने जान से प्यारे मजदूरों को उनका जन्मसिद्ध हक़ दिलाना और ब्रिटिश साम्राज्यवाद को भारत से उखाड़ फेंकने के दोहरे लक्ष्य से सकीना ने कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ खुद को जोड़ा था।
सरकारी दमन नीति और आंदोलन का ख़ात्मा
अप्रैल का महीना शुरू हुआ पर अचानक ही अपने पहले किए गए वादे से मुकर कर कलकत्ता कॉर्पोरेशन ने सफाई कर्मियों को उनका महंगाई भत्ता नहीं दिया। स्वाभाविक रूप से खुद को ठगा हुआ महसूस कर मज़दूर अशांत हो उठे और नई तीव्रता के साथ आंदोलन शुरू किया। बेगम सकीना भी इस बार मांगों की अदायगी के मुद्दे पर दृढ़ निश्चय कर चुकी थीं और उनकी दिशा निर्देश से 26 अगस्त से मज़दूरों ने अपनी हड़ताल का दूसरा दौर शुरू किया पर इस बार शुरुआत से ही कॉर्पोरेशन के चालक समिति और ब्रिटिश सरकार ने भी अपनी तैयारी कर रखी थी। उनकी पुलिस पहले दिन से ही हड़ताली मज़दूरों पर टूट पड़े। 27 अगस्त, बेगम सकीना के घर यूनियन की मीटिंग के दौरान पुलिस ने वहां छापा मारा जिसमें सौ से ज्यादा आंदोलनकारियों को गिरफ़्तार किया गया। पहले से तय सरकारी षड्यंत्र के तहत आंदोलनरत श्रमिकों के मनोबल को तोड़ने के लिए उनकी नेता बेगम सकीना को गिरफ्तारी से पहले घटनास्थल पर उपस्थित भीड़ के सामने पुलिस ने हर तरीके से ज़लील किया। आंदोलन के लगभग सभी नेताओं की गिरफ्तारी और निर्मम सरकारी दमनकारी नीति की दोहरी मार से आम हड़ताली मजदूरों का मनोबल टूटने लगा। 5 सितंबर को उन्होंने अपनी सारी मांगों को त्याग कर आंदोलन रोक देने की घोषणा की और अपने बरसों पुराने तनख्वाह के साथ ही काम पर लौट गए। इस तरह सर्वहारा सफाई मजदूरों के एक महान जनआंदोलन ख़त्म हो गया।
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बेगम सकीना की बाक़ी ज़िंदगी
एक महीने बाद बेगम सकीना जब जेल से छूटीं तो तुरंत सरकार ने उन्हें कलकत्ता शहर से निर्वासित कर दिया और उन्हें सैकड़ों मील दूर स्थित पहाड़ी शहर में नज़रबंद करके रखा गया। अपने साथ 27 अगस्त को हुए अपमान की वजह से बेगम जेल में रहते ही गहरे मानसिक सदमे में चली गई थीं जिससे वह खुद को उबार नहीं पाई। मानसिक अवसाद के चलते उन्होंने श्रमिक आंदोलन सहित हर प्रकार की प्रत्यक्ष राजनीति से खुद को हमेशा के लिए जुदा कर लिया। बेगम सकीना फिर कभी अपने कलकत्ता वापस नहीं आईं पर कुछ सालों बाद उन्होंने फिर से खुद को संभाल लिया और अपने लिए एक नई शुरुआत की। दार्जिलिंग की पहाड़ियों में ‘महिला आत्मरक्षा समिति’ जैसे सामाजिक संगठन बनाकर वहां की गरीब मज़दूर महिला और बच्चों के लिए कईं तरह के काम में बेगम सकीना ने अपनी बाकी ज़िंदगी को लगा दिया।
1937-1942 तक बेगम सकीना कलकत्ता के श्रमिक आंदोलन में सबसे लोकप्रिय व्यक्तित्व रहीं पर यह बेशक़ शर्म की बात है कि मजदूरों के लिए उनकी लड़ाई और जीवनभर के अनगिनत सेवाकार्यों के ऐतिहासिक तथ्यों को न्यूनतम तरीके से भी संरक्षित नहीं किया गया, ना ही हमेशा से प्रचार से अलग रहीं बेगम सकीना ने अपनी कोई आत्मकथा लिखी थी। यहां तक कि उनकी एक तस्वीर को भी उनके समकालीन किसी ने संजोकर नहीं रखा। इस वजहों से इस अनोखी इंसान के आखिरी सालों के बारे में शोधकर्ताओं को कोई ठोस विश्वसनीय सूत्र नहीं मिलता है। कलकत्ता के कम्युनिस्ट श्रमिक आंदोलन में बेगम सकीना के आगमन और गमन की बस एक आलोकित धूमकेतु या फिर टूटते हुए सितारे से तुलना की जा सकती है, जिन्होंने अपने कार्यकाल में सैकड़ों मजदूर परिवारों का सहारा बनकर उनके अंधेरे जीवन को उम्मीदों की रोशनी से भर दिया पर अपनी समाज सेवाओं से पहाड़ की मज़दूर महिलाओं को वह दे कर गईं कभी न ख़त्म होनेवाला एक अटूट मनोबल और आर्थिक स्वाबलंबन के उत्तराधिकार।
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संदर्भ:
1- Begum Sakina And The Calcutta Scavengers Strike: 1940 – Manju Chattopadhyay
2- Women Trade Union Leaders Who Emerged From The Ranks – Manju Chattopadhyay
तस्वीर : सुश्रीता भट्टाचार्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए