हिंदी साहित्य जगत में हमेशा से पुरुषों का प्रभुत्व रहा है। बड़े-बड़े आदर्शों और यथार्थ को बयां करने वाले पुरुष अपने ही लेखन क्षेत्र में स्त्री लेखिकाओं के अभाव को कभी महसूस नहीं कर पाए। ऐसे में कुछ चुनिंदा स्त्री लेखिकाएं ही थीं जिन्होंने अपनी कलम से पुरुष लेखकों को चुनौती दी। राजनीति, समाज, स्त्री, मनोविज्ञान, साहित्य जैसे अनेक मुद्दों में दखल देते हुए अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवाई। ऐसी ही एक लेखिका थीं- कृष्णा सोबती।
कृष्णा सोबती का लेखन विलक्षण रहा है। इन्होंने अपनी हर कृति के साथ एक नया मुद्दा उठाया और समाज की संकीर्ण सोच पर प्रश्न चिह्न लगाया। कृष्णा सोबती ने स्त्री यौनिकता पर भी लिखा है। ‘मित्रो मरजानी’ की मित्रो हो या ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ की रत्ती, दोनों के क्रमशः यौन संबंधों और शोषण की दासतां को बयां करती इस लेखिका ने हिंदी साहित्य जगत में स्त्री की यौनिकता को साधारण विषय बनाने की कोशिश की है। हमारे समाज में स्त्री यौनिकता को नीची नज़रों से देखा जाता है। इतना कि इसके बारे में बात करना ही तकरीबन वर्जित है। स्त्री यौन शोषण की बात करें तो समाज की चिंता का मुद्दा शोषित हुई स्त्री का मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य नहीं होता बल्कि सामाजिक स्वास्थ्य होता है। यौन शोषण का सामना करने के बाद अगर कोई इंसान इस पीड़ा से उबरना भी चाहे तो यह समाज उसे उबरने नहीं देता।
कृष्णा सोबती का उपन्यास ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ तीन भागों में, पुल, सुरंगे और आकाश, बंटा हुआ है। इस उपन्यास में सोबती की नायिका रत्ती एक सशक्त स्त्री के रूप में उभरती है। वह खुद से भागकर भी ख़ुद के साथ रहना चाहती है। अपनी यौन इच्छाओं और ज़रूरतों से अवगत होकर भी उन्हें पीछे ढकेलती है ताकि उसका अंतर्मन और अधिक आहत न हो। बचपन में यौन शोषण का सामना करनेवाली रत्ती बड़े होने तक उस अनुभव से सहज नहीं हो पाई। इसका कारण, उसके अपने ही मित्रों द्वारा उसका मज़ाक उड़ाना। इस सदमे के बाद वह कभी भी, किसी के भी साथ प्रेम के धागे बुन ही नहीं पाई।
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पहला भाग- पुल
कहानी के पहले भाग में रत्ती और उसके दो दोस्त केशी और रीमा का वर्णन है। केशी और रीमा एक दूसरे से प्रेम करते हैं और हंसता-खेलता जीवन व्यतीत कर रहे हैं। केशी रत्ती को बहुत अच्छे से समझते हैं। वह अन्य पुरुषों से अलग उसके अंतर्मन को पढ़ सकते हैं और इसी चीज़ से रत्ती को भय है। वह अपने भय और अपनी असुरक्षाओं को ख़ुद के भीतर ही रखना चाहती है। उसे लगता है कि अपनी कमियां लोगों को बता देने से लोग उसे कमज़ोर समझेंगें और दोबारा फ़ायदा उठा सकते हैं। उसके हर व्यवहार के पीछे उसके बीते अतीत का दर्द और उसकी दबी इच्छाएं झलकती हैं। वह छोटे बच्चे कुमू से अत्यंत स्नेह करती है। उसकी आवाज़ सुनकर उसका दिल पसीज उठता है लेकिन वह बच्चा भी रत्ती को उसके अतीत की याद दिलाता है। वह हर पल यह सोचती है कि शायद अब वह मां कभी बन ही न पाए क्योंकि वह किसी भी पुरुष को अपने निकट नहीं आने देती। सोबती ने इस भाग का नाम पुल इसलिए रखा होगा क्योंकि पुल एक छोर से दूसरे छोर तक का सफ़र है। रत्ती अपनी ज़िंदगी के एक छोर पर खड़ी है। वह दूसरे छोर पर पहुंचना तो चाहती है किंतु उसका अतीत और समाज का रवैया उसे जकड़े रखता है। वह कदम उठाकर कभी भी आगे नहीं बढ़ सकी। वह अपने ही मन मे बार-बार दोहराती रहती है, ‘रत्ती अच्छी लड़की नहीं, रत्ती कोई औरत नहीं, वह सिर्फ़ गीली लकड़ी है, जब भी जलेगी, धुआं देगी, सिर्फ़ धुआं।’
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कृष्णा सोबती का उपन्यास ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ तीन भागों में, पुल, सुरंगे और आकाश, बंटा हुआ है। इस उपन्यास में सोबती की नायिका रत्ती एक सशक्त स्त्री के रूप में उभरती है। वह खुद से भागकर भी ख़ुद के साथ रहना चाहती है।
दूसरा भाग – सुरंगें
कहानी का दूसरा भाग सुरंगें के नाम से लिखा गया है। इसमें रत्ती के बचपन की त्रासदी रहस्यात्मक भाषा के साथ बयां की गई है। इस मामले में सोबती की भाषा शैली की सराहना करनी पड़ेगी। वह जटिल से जटिल मुद्दों और किस्सों को भी इतनी सहज भाषा में लिखती हैं कि पाठक को कुछ पल के लिए रुककर चीजों को अपने अंदर समाहित करना पड़ता है। कहानी पढ़ते-पढ़ते ही अचानक बीच में कुछ ऐसा पढ़ने को मिलता है जिससे मन कचोट जाता है लेकिन आगे पढ़ते रहने का मन भी करता है। इस अंश में बिना मुजरिम का नाम लिए, उसकी अनुपस्थिति में ही परोक्ष रूप से उसके किए गए अपराध को बता देती हैं।
रत्ती का बचपन में यौन शोषण हुआ था, जिसका प्रभाव उसे अपनी युवावस्था में भी झेलना पड़ रहा है। उसके स्कूल में बच्चे उसका मज़ाक बनाया करते थे, उसे गंदी लड़की कहकर बुलाते थे। वह असद भाई से कहती है, ‘जाने क्या-क्या कहा करते हैं! रत्ती बुरी है, इसे लड़के पसंद हैं, इसे गिरजाघर के पीछे देखा था, मैं तो किसी से कुछ कहती नहीं हूं असद भाई… पुरानी बात है… फिर भी।’ इस सबने उसके व्यक्तित्त्व को प्रभावित किया। वह अंदर ही अंदर परेशान रही। ख़ुद से आलाप कर बड़ी हुई और ख़ुद में ही रह गई। वह किसी भी पुरुष को अपने पास नहीं आने देता चाहती थी। ऐसा नहीं था कि वह सबसे नफ़रत करती थी, बस किसी से प्रेम नहीं कर पाई। वह अपनी इच्छाओं और अपने आप को लेकर बहुत स्पष्ट थी लेकिन उसके बचपन का सदमा उसे उनकी पूर्ति के लिए बढ़ने नहीं दे रहा था। वह एक सुरंग में थी, जहां से उसे रोशनी दिखाई दे रही थी तरफ़ लेकिन चारों तरफ इतना गहरा अंधेरा था कि रोशनी तक पहुंचते-पहुंचते उसे कई साल लग गए।
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तीसरा भाग- आकाश
उपन्यास के आखिरी अंश ‘आकाश’ में दिवाकर का वर्णन है। वह इकलौता ऐसा मर्द है जिस पर रति भरोसा करती है और जो अन्य पुरुषों से विपरीत उसे सुनता और समझता है। वह उसे दंडित या किसी भी चीज़ का जिम्मेदार नहीं ठहराता लेकिन रत्ती उसे भी छोड़कर दूर चली जाती है। वह जानती है कि दिवाकर का संबंध किसी और स्त्री के साथ है और वह दो प्रेम करने वालों अलग नहीं कर सकती। वह कहती भी है, ‘शून्य की लंबी कतार में तुमने एक और अंक जोड़ दिया है। जो कुछ भी नहीं था, वह अब बहुत बड़ी राशि है।’ यहां रत्ती अपने ज़िंदगी के अकेलेपन का बयां कर रही है। वह अपनी ज़िंदगी में आए हर उस रिश्ते को शून्य की उपाधि देती है जो अब केवल आंकड़े बनकर रह गए हैं।
इस उपन्यास में शुरुआत से लेकर अंत तक सोबती की विलक्षण भाषा पाठकों को बांधे रखती है। पूरे उपन्यास में एक रहस्यात्मकता बनी रहती है। पाठक रत्ती के व्यवहार को देखकर उसके मनोवैज्ञानिक व्यवहार पर सवाल उठाएंगे लेकिन यह सब उस इंसान के लिए बहुत स्वाभाविक है, जिसने बचपन में ही अपना बचपन खो दिया हो। सोबती इस उपन्यास का अंत अपने इन शब्दों से करती हैं, जो सटीकता से रत्ती के मन के द्वंद्व को बयां करते हैं:
“सिर्फ़ आकाश
आकाश में घरौंदे नहीं बनते
आकाश में धरती के फूल नहीं खिलते
नहीं उगते तो बस नहीं उगते
उगते ही नहीं!
नहीं!”
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