अक्सर हम हमारे समाज और परिवार में होने वाले लैंगिक भेदभाव की समस्या को बराबरी की सोच के आधार पर सुलझाने या खत्म करने की कोशिश करते हैं। हालांकि लैंगिक भेदभाव की इस समस्या का इलाज सिर्फ बराबरी नहीं है। इस समस्या की जड़ को मूल से समझना ज़रूरी है। कहने का मतलब यह है कि यह समझना बहुत ज़रूरी है कि आखिर यह भेदभाव क्यों है समाज में? आखिर क्यों हर मोर्चे पर फिर चाहे वह सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक हो या धार्मिक हो महिलाएं पुरुषों से पीछे ही हैं? इसका सीधा सा जवाब है है सत्ता। समाज, धर्म और परिवार का हर ताना बाना जानबूझ कर इसी तरीके से बना गया है जिससे सत्ता पुरुषों के हाथों में रहे, ख़ास तौर पर पैसे और संपत्ति की सत्ता।
अगर ऐसा नहीं है तो कोई यह बताए कि क्यों शादी के बाद बेटी को ही माँ -बाप का घर छोड़कर जाना पड़ता है? क्यों कभी बेटा अपनी बीवी के घर रहने नहीं जाता? कुछ इलाकों को छोड़ दें तो लगभग पूरे देश में यही हाल है। इस प्रथा के पीछे क्या तर्क है? कोई तर्क नहीं है इस प्रथा के पीछे बल्कि मकसद सिर्फ एक है बेटियों का अपने माँ-बाप की संपत्ति से हक़ छीनना। अगर बेटी शादी के बाद भी मां-बाप के पास रहेगी तो उनकी संपत्ति और व्यापर में वह भी हक़ मांगने की हक़दार होगी, तो उसको वह मौका ही नहीं मिले इसलिए शादी के बाद उसे दूसरे घर भेज दो यह कहकर कि वह तो पराया धन है। अगर ऐसा नहीं बोलेंगे तो तो माँ-बाप की संपत्ति में वह भी हिस्सा मांगेंगी और ऐसे में बेटे को सारा धन और संपत्ति नहीं मिल पाएंगे। इसीलिए इस पितृसत्तामक समाज ने बड़ी ही चालाकी अब तक इस प्रथा को कायम रखा है।
जब घर और बाहर के काम में बंटवारा हुआ, उसमे भी महिलाओं को जानबूझकर घर के कामों में धकेल दिया गया ताकि धन, व्यापर और संपत्ति इन सब से वे दूर रहें और इन सब पर नियंत्रण रहे पुरुषों का। मकसद सिर्फ एक था- धन, संपत्ति, व्यापार इन सब पर पुरुषों की सत्ता को बनाए रखना।
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अगर ऐसा नहीं है तो कोई ये बताए कि क्यों घर के काम की मूल ज़िम्मेदारी औरत पर ही डाली गई? रसोई और महिला इन दोनों के बीच में क्या लॉजिकल कनेक्शन है? लेकिन जानबूझकर इतने सालों से महिलाओं को रसोई के कामों में इतना उलझा दिया की आज खाने के बारे में सोचते ही मां की याद आती है। कोई भी औरत पैदा होते ही ‘माँ’ नहीं बनती, बल्कि हमारा समाज उसे ‘माँ’ के रूप में बनने के लिए मजबूर करता है। लेकिन यहां चर्चा का विषय यह है कि जब घर और बाहर के काम में बंटवारा हुआ, उसमे भी महिलाओं को जानबूझकर घर के कामों में धकेल दिया गया ताकि धन, व्यापर और संपत्ति इन सब से वे दूर रहें और इन सब पर नियंत्रण रहे पुरुषों का। मकसद सिर्फ एक था- धन, संपत्ति, व्यापार इन सब पर पुरुषों की सत्ता को बनाए रखना।
क्या कभी हम यह सोचते हैं कि क्यों पिता की मौत के बाद उसके व्यापार की सारी ज़िम्मेदारी बेटे को ही मिलती है। भले ही वह बेटा माँ-बाप की सबसे छोटी संतान ही क्यों न हो? भले ही उसकी बड़ी बहनें ही क्यों न हो। भले ही वे बहनें उस भाई से ज्यादा ज़िम्मेदार क्यों न हो, भले ही वे बहनें उस भाई से ज्यादा काबिल क्यों न हो। चाहे जो हो जाए, मृत पिता की संपत्ति, व्यापार और सारे धन पर सिर्फ बेटे को ही क्यों हक़ मिलता है। अगर बेटियां चाहे तो भी उन्हें क्यों दरकिनार कर दिया जाता है हर उस आर्थिक अधिकार से जो उनके पिता का होता है। इसका भी जवाब है ताकि पैतृक संपत्ति पर पुरुषों की सत्ता बरक़रार रहे।
क्यों किसी भी महिला को अपना कानूनन हक़ मांगने की कीमत अपने रिश्तों को खोकर चुकानी पड़ती है? क्योंकि मकसद सिर्फ एक है, रिश्तों को खोने की धमकी देकर, महिलाओं से उनके संपत्ति के अधिकारों का ‘त्याग’ करवा लेना।
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अगर ऐसा नहीं है तो कोई ये बताए कि क्यों किसी भी घर में विवाद होता है जब माँ-बाप अपनी संपत्ति का कुछ हिस्सा बेटी को देने के बारे में सोच भी लें? क्यों किसी भी घर में बेझिझक माँ-बाप अपनी संपत्ति का बराबर बंटवारा अपने सारे बच्चों में नहीं कर सकते? क्यों किसी भी घर में बेटी द्वारा अपना हक़ मांगने पर सारी पितृसत्तात्मक ताकतें लग जाती हैं उसे यह एहसास करवाने पर कि कैसे उसने कितनी बेशर्मी का काम किया है? क्यों कोई भी बेटी अपने खुद के मां-बाप से उनकी सम्पत्ति में अपना ही हिस्सा मांगने से कतराती है? क्यों हमारा समाज महिलाओं को संपत्ति और परिवार में से किसी एक को चुनने पर मजबूर करता है? क्यों किसी भी महिला को अपना कानूनन हक़ मांगने की कीमत अपने रिश्तों को खोकर चुकानी पड़ती है? क्योंकि मकसद सिर्फ एक है, रिश्तों को खोने की धमकी देकर, महिलाओं से उनके संपत्ति के अधिकारों का ‘त्याग’ करवा लेना।
अगर ऐसा नहीं है तो क्यों यह पितृसत्तामक समाज तिलमिला जाता है जब महिलाएं अपने कानूनन हक़ मांगती हैं, क्यों कोई भाई तिलमिलाता है जब पिता की संपत्ति में बहन अपना हक़ मांगती है? क्यों कोई बेटा परेशान होता है जब पिता अपनी संपत्ति अपने सारे बच्चों में बराबर बांटता है, क्यों पूरे परिवार का दिमाग ख़राब होता है जब पति की सारी सपंत्ति उसकी पत्नी की नाम हो जाती है? क्योंकि जब ऐसा होता है तो पितृसत्ता को डर लगता है कि इतनी सदियों से चली आ रही उसकी सत्ता कहीं महिलाओं की हाथों में न आ जाए। इसीलिए पितृसत्ता को चुनौती देने का एक तरीका है कि महिलाएं पैतृक संपत्ति पर अपना कानूनी अधिकार मांगने से पीछे न हटें। जब तक ये नहीं होगा तब तक भावनाओं की आड़ में महिलाओं को उनका कानूनन अधिकार कभी नहीं मिलेगा। अगर पितृसत्ता को चुनौती देनी है तो पैतृक संपत्ति में अपना हक़ बेझिझक मांगना चाहिए।
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तस्वीर : श्रेया टिंगल फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए