बनारस ज़िले से दूर रूपापुर गांव में जब किशोरियों के साथ पीरियड्स के मुद्दे पर चर्चा हो रही थी तब कुछ लड़कियों ने बताया कि उन्हें पीरियड्स के दौरान कई तरह की शारीरिक समस्याएं होती हैं। वहीं, कुछ किशोरियों ने मानसिक समस्याओं ख़ासकर चिड़चिड़ेपन की बात की। लेकिन जैसे ही बात मानसिक समस्याओं और उलझनों की आई तो आसपास मौजूद महिलाओं ने इसे सिरे से ख़ारिज करते हुए कहा, “हम लोगों की आधी ज़िंदगी बीत गई, कभी हम लोगों को पीरियड्स के दौरान मानसिक दिक़्क़तें नहीं हुई। ये सब आजकल लड़कियों के बहाने हैं।” महिलाओं की इस बात ने किशोरियों का मानो मुंह ही बंद कर दिया। लेकिन फिर हम लोगों ने साथ मिलकर पीरियड के दौरान मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे पर चर्चा की।
अक्सर गांव में काम करते हुए और ख़ासकर महिला स्वास्थ्य के मुद्दे पर चर्चा या किसी कार्यक्रम में यह अनुभव किया है कि मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं को जल्दी समाज स्वीकार नहीं करता है। अगर बात आ भी जाए तो उसे नज़रंदाज़ करता है। अधिकतर पीरियड के दौरान महिलाओं को होने वाली मानसिक समस्याओं और उलझनों को गाँव में नकारतमक नज़रिए से देखा जाता है। पीरियड्स के दौरान जब हमारे शरीर में कई बदलाव हो रहे होते है तो ज़ाहिर है इसका प्रभाव हमारे मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है पर अफ़सोस पीरियड्स के दौरान शारीरिक और मानसिक तकलीफ़ों से जूझती महिलाओं को रूढ़िवादी विचारों के आधार पर ‘विचित्र’ भी कह दिया जाता है। इसलिए अधिकतर महिलाएं मानसिक तकलीफ़ों के बारे में चर्चा तो क्या इसके ज़िक्र से भी बचती हैं।
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हमारे समाज में शारीरिक रूप से स्वस्थ इंसान को ही स्वस्थ माना जाता है, इसलिए अक्सर मानसिक रूप से जुड़ी समस्याएँ हम नहीं देख पाते है। ठीक इसी तरह पीरियड को स्वस्थ शरीर के लिए ज़रूरी तो माना जाता है, लेकिन इसपर बात करना ज़रूरी नहीं समझा जाता। अब जब हम किन्हीं मुद्दों पर चुप्पी बनाते है तो इससे उन विषयों पर अपनी जागरूकता भी सिमटने लगती है और उसकी जगह रूढ़ियाँ या मिथ्य लेने लगते है। इन सबमें नुक़सान इंसान का होता है, जिसकी वजह से वो अपने शरीर और स्वास्थ्य से जुड़े विषयों और अनुभवों पर चर्चा नहीं कर पाता है।
पीरियड के दौरान स्तन में और कमर के निचले हिस्से में दर्द के साथ-साथ हार्मोनल बदलावों से मूड स्विंग की समस्याएँ भी होने लगती है। एक रिपोर्ट के अनुसार 90 फ़ीसद महिलाएँ पीरियड के दौरान इन सभी शारीरिक और मानसिक समस्याओं से गुजरती है। अधिकतर महिलाएँ पीरियड शुरू होने के एक या दो हफ़्ते पहले से ही प्री-मेंन्सट्रुअल सिंद्रोम का अनुभव करती है, जिसकी वजह से चिंता, डर, मूड में बदलाव और चिड़चिडेपन जैसी समस्याएँ होती है। कई बार ये समस्याएँ पैनिक अटैक और डिप्रेशन जैसी समस्याओं की भी वजह बनती है।
अफ़सोस पीरियड्स के दौरान शारीरिक और मानसिक तकलीफ़ों से जूझती महिलाओं को रूढ़िवादी विचारों के आधार पर ‘विचित्र’ भी कह दिया जाता है। इसलिए अधिकतर महिलाएं मानसिक तकलीफ़ों के बारे में चर्चा तो क्या इसके ज़िक्र से भी बचती हैं।
पीरियड्स पर चर्चा करना आज भी एक शर्म का विषय माना जाता है। भले ही अब पीरियड्स पर सरकारी और ग़ैर-सरकारी संस्थाओं की तरफ़ से अभियान चलाए जा रहे है पर सच्चाई यही है कि लोग अभी भी आपस में और घर में इन मुद्दोॆ पर बात करने से कतराती हैॆ। पीरियड्स के मुद्दे पर चुप्पी की वजह से इसके स्वास्थ्य से जुड़े पहलुओं पर चर्चा और जागरूकता बहुत सीमित है।
मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी शारीरिक और मानसिक समस्याओं पर बात बेहद ज़रूरी है। हालांकि कहीं न कहीं मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी भ्रांतियां भी इस चर्चा में बाधा बनती हैं। अब ज़रूरी है कि इस बाधा को दूर किया जाए। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं और लड़कियों पर घर और खेत के कामों का बोझ बेहद ज़्यादा रहता है और माहवारी प्रबंधन के सीमित साधनों की वजह से पीरियड के दौरान उन्हें कई शारीरिक और स्वच्छता संबंधित समस्याओं से जूझना पड़ता है। ये समस्याएं महिलाओं और किशोरियों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी गहरा प्रभाव डालती हैं। जागरूकता की कमी में महिलाएं या लड़कियां अपने अनुभवों और परेशानियों की चर्चा करती हैं तो इसे बहाने का नाम दे दिया जाता है जिसे दूर करने की बेहद ज़रूरत है। अब हमें यह समझना होगा कि पीरियड्स का मतलब सिर्फ़ पैड उपलब्ध करवाने से नहीं है बल्कि इसके जुड़े शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक स्वास्थ्य पहलुओं पर जागरूकता लाना भी है। यह न केवल पीरियड्स पर स्वस्थ माहौल बनाने में मदद करेगा बल्कि महिला स्वास्थ्य पर भी जागरूकता लाने में मददगार होगा।
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तस्वीर साभार : श्रेया टिंगल फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए