हाल ही में हुए एक अध्ययन के अनुसार जातिवाद न सिर्फ़ अकादमिक कैम्पसेज़ में मौजूद है बल्कि उसे नॉर्मलाइज़ कर दिया गया है। यह रिपोर्ट यह भी बताती है कि किन-किन तरीक़ों से ऐसा हो रहा है। ‘The Steady Drumbeat of Institutional Casteism‘ के नाम से इस स्टडी को ‘Forum against oppression of women, Forum for Medical Ethics Society, Medico Friend Circle और People’s Union of Civil Liberties द्वारा किया गया है। यह स्टडी इस बात पर आधारित है कि कैसे भारत में उच्च शिक्षा के लिए बनाए गए अकादमिक कैम्पसेज़ में जातिवाद काम करता है। जातिवाद की मौजूदगी किन रूपों में है। प्रत्यक्ष रूप से मौजूदगी, जैसे जाति सूचक गालियों का प्रयोग किया जाना या फिर अप्रत्यक्ष रूप से जैसे कि संविधान द्वारा मिले अधिकार के तरह वंचित जातियों को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए उन्हें मिले आरक्षण पर टिप्पणी या मज़ाक किया जाना। ऐसी घटनायें इन समुदायों से आने वाले विद्यार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर करती हैं।
पायल तड़वी और रोहित वेमुला ऐसे कई विद्यार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य को पहुंचती क्षति में से दो नाम हैं। हमें ये नाम इसलिए मालूम हैं क्योंकि ये बात सामने आ पाई कि इनकी मौत का कारण आत्महत्या नहीं बल्कि कैम्पस का जातिगत भेदभाव था। स्टडी में उनकी मौत को ‘संस्थागत हत्या’ लिखा गया है। अक्सर जब विद्यार्थियों के साथ इस तरह का भेदभाव हो रहा होता है उनसे इसे नज़रअंदाज करने को कहा जाता है या ‘विक्टिम ब्लेमिंग’ की तरह कहा जाता है कि वे मानसिक तौर पर कमज़ोर थे। यह व्यवहार ठीक वैसा है जैसा यौन हिंसा की सर्वाइवर महिला के साथ किया जाता है। उन्हें ही अपराध के लिए ज़िम्मेदार ठहराना, उनकी ग़लती निकालना। जबकि होना यह चाहिए था कि सिस्टम में उपस्थित जो जातिवादी मानसिकता इस तरह की घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार है उसे चिन्हित कर उस दिशा में कड़े कदम उठाए जाते।
विश्वविद्यालय में जातिगत भेदभाव को चिन्हित करना और उसे सामान्य कैम्पस कल्चर की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। रैगिंग या बातचीत के नाम पर मज़ाक में जाति आधारित भेदभाव से भरी बातें करना और उसे सहजता से लिए जाने की अपेक्षा करना जातिवाद कहा जाना चाहिए। प्रभावित विद्यार्थी से कहा जाना कि वह एक हल्की- फुल्की बात को बढ़ा-चढ़ाकर समझ रहा है समस्याजनक बर्ताव है।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि विश्वविद्यालय में अपनी प्रतिभा बार-बार सिद्ध करने के बाद भी वंचित तबक़ों के विद्यार्थियों को जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ता है। इसे विश्वविद्यालय में सामान्य ही नहीं किया गया है बल्कि यह एक कल्चर का हिस्सा बन चुका है।
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‘मेरिट’ की कल्पना पर यह स्टडी सवाल करती है। ‘मेरिट’ सिर्फ़ अंक नहीं हैं। व्यक्ति किस सामाजिक सांस्कृतिक पहचान को नहीं समझना उसके इतिहास को नकारना है। उदाहरण के तौर पर देखें तो साल 2021 में बिरहोर जनजाति की रश्मि को झारखंड के रामगढ़ जिले में रहती हैं। वह अपने समुदाय और परिवार में बाहरवीं पास करने वाली पहली लड़की हैं। वंचित और मुध्यधार से कटे समुदायों जिनका इतिहास मुध्यधारा के इतिहास से अलग है उन्हें एक ही ‘मेरिट’ की तराजू में तौलना तार्किक नहीं है। अक्सर ‘मेरिट’ की ऐसी सतही अवधारणा को मानते हुए प्रिविलेज वर्गों से आते लोग अकादमिक जगत में आरक्षण के आसपास इस तरह की हवा बनाते हैं जैसे आरक्षण से आ रहे विद्यार्थियों के पास कोई प्रतिभा नहीं है। ‘मेरिट’ बचाने का झूठा प्रपंच रचकर वे कैम्पस में दूसरे विद्यार्थियों को बेइज्ज़त करते हैं, नीचा दिखाते हैं। हालांकि पैसे देकर ख़रीदी गई सीट्स पर यह समूह किसी तरह से ‘मेरिट’ ख़राब करने का आरोप नहीं लगाता। इस रिपोर्ट में एक मेडकिल के छात्र का ज़िक्र है। वह बताते हैं कि मार्क्स सूची से सबको सबकी जाति के बारे में पता चल जाता है। उनके सहपाठी उन्हें “तुझे क्यों स्ट्रेस है, तुझे तो मिल जाएगा पीजी में” कहते हैं।
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जिस भेदभाव का ज़िक्र इस स्टडी में है उसका हालिया उदाहरण है ‘DU Updates‘ नामक इंस्टाग्राम अकाउंट। दिल्ली विश्वविद्यालय में अभी स्नातक के दाख़िले चल रहे हैं। इस अकाउंट पर पिछले दिनों ऐसा ही एक जातिवादी मीम आया है। मीम कहता है ‘जाति प्रमाण पत्र दिखाओ और आसानी से दाखिला पाओ।’ इस पेज के 72 हज़ार से अधिक फॉलोवर्स हैं जिनमें से ज्यादातर दिल्ली विश्वविद्यालय के अलग अलग कॉलेज के विद्यार्थियों हैं या पासआउट हैं। इस पेज़ की रीच के कारण ही कई कल्चरल सोसाइटी इसे अपने आयोजनों में मीडिया पार्टनर बनाते हैं। इससे दिल्ली विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के बीच इस पेज़ की ऑनलाइन प्रसिद्धि का पता चलता है। पेज के इस जातिवादी पोस्ट पर 4,800 के करीब लाइक्स हैं। कमेंट सेक्शन में अधिकतर लोग इस सोच के समर्थन में हैं, टिप्पणियों को पढ़ना किसी वंचित समाज के विद्यार्थी को ट्रिगर कर सकता है। कुछ लोगों ने इस पोस्ट की दिक़्क़त को कमेंट में लिखा है लेकिन पोस्ट अब भी अकाउंट पर मौजूद है और इस दौरान अकाउंट भी सक्रिय है। इसे को जातिवाद को नॉर्मलाइज़ करना नहीं तो और क्या कहेंगे?
दुर्भाग्यपूर्ण है कि विश्वविद्यालय में अपनी प्रतिभा बार-बार सिद्ध करने के बाद भी वंचित तबक़ों के विद्यार्थियों को जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ता है। इसे विश्वविद्यालय में सामान्य ही नहीं किया गया है बल्कि यह एक कल्चर का हिस्सा बन चुका है। निजी अनुभव से बताऊं तो मिरांडा हॉउस कॉलेज, जो लगातार पांचवे साल NIRF रैंकिंग में शीर्ष स्थान और रहा, वहां स्नातक कोर्स के पहले ही दिन किसी छात्रा से आरक्षित सीटों पर आने वाले विद्यार्थियों को लेकर टिप्पणी सुनने मिली थी। हालांकि, साल 2012 में यूजीसी ने विश्वविद्यालय में एससी/एसटी या equal opportunity cell के बनाए जाने को मंजू़री दी थी, जिन कॉलेजों में ऐसा नहीं हो पाया उनके ख़िलाफ़ क्या संज्ञान लिया जाएगा इस बारे में कोई जानकारी नहीं दी थी। पायल तडवी की ‘संस्थागत हत्या’ के बाद इसे लेकर विश्वविद्यालय में हो रही ढिलाई सामने आई थी। जातिगत भेदभाव पर काम करने, उसे मिटाने को लेकर विश्वविद्यालय स्पेस में इतनी ही सजगता है।
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यह रिपोर्ट मेडिकल क्षेत्र में इस तरह के भेदभाव पर विशेष रूप से बात करती है। दाख़िले से लेकर कॉलेज जीवन में ‘रैगिंग’ के नाम पर विद्यार्थियों को उनकी जातिगत पहचान के आधार पर हॉस्टल और क्लास रूम में जिस तरह से परेशान किया जाता है। रिपोर्ट के मुताबिक़ 40 फ़ीसद विद्यार्थियों ने किसी न किसी कैम्पस में रैगिंग का सामना किया है। मेडिकल कॉलेजों में फैकेल्टी उन्हें कोर्स के दौरान छोटे-मोटे कामचलाऊ असाइनमेंट देते हैं। ऐसा जानबूझकर होता है। उन्हें अकादमिक और रोज़गार के क्षेत्र में उसी कैम्पस में रहते हुए नज़रअंदाज़ किया जाता है। इस स्टडी में केंद्र सरकार द्वारा जारी एक रिपोर्ट का भी ज़िक्र है। रिपोर्ट बताती कि एम्स नई दिल्ली में इंटरनल परीक्षा में ग्रेड देते समय भेदभाव किए जाने की शिकायत करनेवाले 85 फ़ीसद विद्यार्थी दलित, आदिवासी हैं।
यह रिपोर्ट मेडिकल क्षेत्र में इस तरह के भेदभाव पर विशेष रूप से बात करती है। दाख़िले से लेकर कॉलेज जीवन में ‘रैगिंग’ के नाम पर विद्यार्थियों को उनकी जातिगत पहचान के आधार पर हॉस्टल और क्लास रूम में जिस तरह से परेशान किया जाता है। रिपोर्ट के मुताबिक़ 40 फ़ीसद विद्यार्थियों ने किसी न किसी कैम्पस में रैगिंग का सामना किया है।
स्टडी शिक्षण संस्थानों के निजीकरण पर बात करती है। निजीकरण के कारण भारत में उच्च शिक्षा बुरी तरह से प्रभावित हुआ है। फलस्वरूप शोषित तबक़ों के लोगों के लिए शिक्षा हासिल करना मुश्किल हो चुका है। शिक्षा के बिना शोषण की कड़ी तो तोड़ना उन की नई पीढ़ी के लिए असंभव बात होगी। सरकारी शिक्षण संस्थानों में भी वंचित समुदायों की संख्या बहुत ठीक नहीं है। लोक सभा में दिए गए शिक्षा विभाग के आंकड़ों के अनुसार साल 2019 में भारत के 23 आईआईटी मिलाकर, 6043 फैकल्टी सदस्यों में से केवल 149 एससी हैं 21 एसटी समुदाय से हैं। आईआईएम के आंकड़े देखें तो भारत के 13 आईआईएम मिलाकर 642 फैकल्टी सदस्यों में से केवल चार एससी और एक एसटी समुदाय से हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में 264 प्रोफेसर के पदों पर काम करने वालों में से केवल 3 एससी समुदाय से हैं, और एसटी समुदाय से कोई प्रोफेसर के पद पर कार्यरत नहीं है।
साफ़-साफ़ नज़र आता है कि आरक्षण की नीति प्रोफ़ेसर की नियुक्ति में किस हद तक असफ़ल रही है। जब तक शिक्षण संस्थानों की फैकेल्टी में ही वंचित तबकों की मौजूदगी ही केवल नाममात्र होगी या शून्य होगी उस तबक़े से आने वाले विद्यार्थियों के लिए कैम्पस में बिना भेदभाव पढ़ पाना थकाऊ और रोज़ के संघर्षों से भरा होगा। सेफ़ स्पेस जहां वे इस तरह के भेदभाव पर, जातिगत पहचान के कारण होने वाले अकादमिक, रोज़गार संबंधित निजी संघर्षों के संदर्भ में भावनात्मक मदद, सलाह लेना चाहें उपलब्ध नहीं होगा। बल्कि अकादमिक जगत इस तरह के भेदभाव को सामान्य बर्ताव में ला चुके समाज का ही एक हिस्सा बनकर रह जाएगा। शोषण का इतिहास और पीढ़ीगत भेदभाव झेलकर कैम्पस पहुंचे विद्यार्थियों के लिए शिक्षा का सफ़र और मुश्किल क्यों हो? जातिगत भेदभाव को रैगिंग, हल्की-फुल्की घटना की तरह देखने की जगह संविधान द्वारा प्राप्त किसी के मौलिक अधिकार की अवेलना की तरह देखा जाना चाहिए। यह रिपोर्ट कैम्पस कल्चर में हो रहे इन भेदभाव को उज़ागर करने और ग़ैर समावेशी शिक्षा व्यवस्था से सवाल किए जाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण काम है।
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तस्वीर साभार : The Steady Drumbeat of Institutional Casteism