भारत में अगर कोई ऐसा मुद्दा है जिस पर हर समुदाय और तबके के लोग एकमत होते हैं, तो वह बच्चों की शिक्षा है। हर किसी की चाह होती है कि उनके बच्चे अच्छे स्कूल, कॉलेजों में पढ़ें ताकि उनका भविष्य बेहतर हो। लेकिन कोरोना महामारी के दौरान शैक्षिक संस्थानों के लगातार बंद रहने, चरम बेरोज़गारी, भुखमरी और अनिश्चितता में बच्चों की शिक्षा बहुत ज्यादा प्रभावित हुई। एकाएक आर्थिक तंगी होने से अनेक परिवारों को निजी स्कूलों से सरकारी स्कूलों की ओर रुख भी करना पड़ा, जो पहले से ही शिक्षकों और संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं। लगभग दो साल स्कूल बंद रहने और ऑनलाइन शिक्षा तक सबकी पहुंच न होने से लाखों बच्चे पहले से कहीं अधिक पिछड़ते नजर आ रहे हैं। इसलिए आज पहले से भी ज्यादा शिक्षा और शिक्षकों को महत्व दिया जाना जरूरी है। किसी बच्चे के लिए स्कूल जाना जितना जरूरी है, उतना ही महत्वपूर्ण क्लास में शिक्षक के होने का है। भारतीय परिवेश में आमतौर पर टीचर न हो, तो स्कूल में पढ़ाई रुक जाती है।
भले आज यह लगे कि आज प्राइवेट स्कूल का ही चलन है, जहां सुविधाओं से लैस कक्षाएं और शिक्षक मौजूद हैं, लेकिन हमेशा से ही बड़ी संख्या में हमारे देश में बच्चे सरकारी स्कूलों पर निर्भर करते आए हैं। साल 2018-19 के आंकड़ों के अनुसार देश के 67 फीसद सरकारी स्कूलों में 49फीसद बच्चे पढ़ रहे थे। वहीं बाकी बच्चे, 21फीसद निजी स्कूल और 5 फीसद सहायता प्राप्त गैर-सरकारी स्कूलों में नामांकित थे। संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य के अंतर्गत सभी के लिए समान, समावेशी शिक्षा और आजीवन सीखने के अवसर के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए योग्य शिक्षकों के महत्व पर ज़ोर दिया गया है। इससे सभी बच्चों का विकास और समृद्धि सुनिश्चित होगा। इसलिए जरूरी है कि स्कूलों में पर्याप्त योग्य शिक्षक हो।
सरकारी स्कूलों में नामांकन की बढ़ती संख्या की बात करें, तो, एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर) 2018 की तुलना में असर 2020 के आंकड़े बताते हैं कि सभी कक्षाओं में लड़के और लड़कियों की संख्या निजी से सरकारी स्कूलों में बढ़ी है। साल 2020 में सरकारी स्कूलों में लड़कों के नामांकन का प्रतिशत 66.4 था, जबकि साल 2018 में यह 62.8फीसद था। इस दौरान लड़कियों का सरकारी स्कूलों में नामांकन का प्रतिशत 70 से बढ़कर 73फीसद पाया गया।
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आज पहले से भी ज्यादा शिक्षा और शिक्षकों को महत्व दिया जाना जरूरी है। किसी बच्चे के लिए स्कूल जाना जितना जरूरी है, उतना ही महत्वपूर्ण क्लास में शिक्षक के होने का है। भारतीय परिवेश में आम तौर पर टीचर न हो, तो स्कूल में पढ़ाई रुक जाती है।
शिक्षकों की कमी की समस्या कितनी गंभीर
साल 2021 की युनेस्को की स्टेट ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट बताती है कि देश के स्कूलों में कुल 19 प्रतिशत या 11 लाख से भी अधिक शिक्षण पद खाली हैं, जिनमें से 69 फीसद ग्रामीण क्षेत्रों में हैं। स्कूल में शिक्षक की कमी के नुकसान और प्रभाव को समझने के लिए यह जरूरी है कि हम भारत के शहरी के साथ-साथ ग्रामीण और सुदूर इलाकों के नामांकन और पढ़ने के तरीके को भी समझें। देश में आज भी निजी स्कूलों से कहीं अधिक बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। यह डेटा साल 2018-19 के यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इनफार्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन (UDISE) से मिली सूचना पर आधारित है। कई राज्यों के ग्रामीण इलाकों की UDISE रिपोर्ट में दिखती शिक्षकों की कमी चौंकाने वाली है। इस रिपोर्ट अनुसार बिहार में 56फीसद स्कूलों में शिक्षक पद खाली हैं, झारखंड में 40 और उत्तर प्रदेश में 33 फीसद स्कूलों में पद खाली हैं।
गौरतलब हो कि कई छोटे निजी संस्थानों में कोरोना महामारी के दौरान क्लास बंद रहने के कारण भी शिक्षकों को हटाया गया है जो अब नुकसानदेह साबित हो सकता है। कई ग्रामीण और दूर-दराज़ इलाकों में ऑनलाइन पढ़ाने की सुविधा, जानकारी और प्रशिक्षण की कमी में अनेक शिक्षक बच्चों को उस तरह नहीं पढ़ा पाए जिसकी उन्हें ज़रूरत थी। ऑनलाइन माध्यम शिक्षकों के लिए भी एक नया अनुभव था और बड़ी संख्या में शिक्षक आज भी इससे तालमेल नहीं बैठा पाए हैं। कोरोना महामारी में लंबे अंतराल के बाद आज स्कूल खुलने लगे हैं। ऐसे में शिक्षकों की कमी का सीधा असर बच्चों की पढ़ाई पर ही नहीं, उनके मानसिक स्वास्थ्य पर भी हो सकता है। इतने लंबे समय के बाद बच्चे अपने प्रिय शिक्षक या उन चेहरों को देखने की उम्मीद में हैं जिनसे वे परिचित हैं।
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प्यूपिल टीचर रेशिओ और स्कूलों में मौजूदा हालात
राइट टु एजुकेशन (आरटीई) अधिनियम ने प्यूपिल टीचर रेशिओ (पीटीआर) को निर्दिष्ट किया है जिसे सुनिश्चित करना आवश्यक है। आरटीई के अनुसार यह सरकार की ज़िम्मेदारी है कि इस आवश्यकता की पूर्ति को सुनिश्चित करे। यह अधिनियम छात्रों के नामांकन संख्या के आधार पर शिक्षकों की नियुक्ति की संख्या और प्रकार के बारे में बात करती है। आरटीई के अनुसार पहली से पाँचवी कक्षा के लिए पीटीआर मानदंड 30:1 है यानि हर 30 नामांकित बच्चे के लिए 1 टीचर का होना अनिवार्य है। वहीं, छठी से आठवीं कक्षा के लिए हर 35 नामांकित बच्चे के लिए 1 टीचर का होना अनिवार्य है। UDISE के साल 2018-19 के डेटा अनुसार सभी स्कूलों के लिए राष्ट्रीय पीटीआर का औसत 26:1 था। वहीं, प्राथमिक स्कूलों में यह 23:1 और कोम्पोज़िट स्कूलों में 28:1 था।
हमारे शिक्षा व्यवस्था में साल 2013-14 में शिक्षकों की कुल संख्या 8.9 मिलियन से 17 प्रतिशत बढ़कर साल 2018-19 में 9.4 मिलियन हुई है। आरटीई अधिनियम के अनुसार पीटीआर मानदंड को साल 2013-14 के 31:1 से बदलकर साल 2018-19 में 26:1 किया गया। इस दौरान निजी स्कूलों में कार्यरत शिक्षकों का प्रतिशत साल 2013-14 के 21 फीसद से बढ़कर साल 2018-19 में 35 फीसद हो गया। लेकिन निजी स्कूलों में पीटीआर के अनुसार शिक्षकों के संख्या की पूर्ति में कमी पाई गई। 1:35 के पीटीआर के मानदंड के मद्देनजर इसमें 10फीसद कमी दर्ज हुई, जबकि सरकारी स्कूलों में इसमें 6फीसद की कमी पाई गई।
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कोरोना महामारी में लंबे अंतराल के बाद आज स्कूल खुलने लगे हैं। ऐसे में शिक्षकों की कमी का सीधा असर बच्चों की पढ़ाई पर ही नहीं, उनके मानसिक स्वास्थ्य पर भी हो सकता है। इतने लंबे समय के बाद बच्चे अपने प्रिय शिक्षक या उन चेहरों को देखने की उम्मीद में हैं जिनसे वे परिचित हैं।
देश के ग्रामीण इलाके हो रहे हैं ज्यादा प्रभावित
देश के 84 प्रतिशत स्कूल ग्रामीण क्षेत्रों में है। लेकिन ग्रामीण भारत हमेशा से ही नज़रअंदाज़ होता आया है। शायद इसलिए शिक्षा हो या चिकित्सा, बिजली हो या पानी, कई योजनाओं के बाद भी यहां विकास की बातें सिर्फ चुनावों के दौरान ही होती नज़र आती हैं। शहरी क्षेत्र के अच्छे आय वाले परिवारों के पास निजी स्कूलों का विकल्प मौजूद है। ग्रामीण की तुलना में शहरों में न सिर्फ निजी स्कूलों की संख्या अधिक है बल्कि ऐसे स्कूलों का माहौल, शिक्षा और खर्च ग्रामीण इलाकों के निम्न आय वाले परिवारों के लिए डिज़ाइन किए ही नहीं जाते। इसके अलावा, भारत में आज भी हजारों सिंगल टीचर स्कूल हैं जिनमें से लगभग सभी ग्रामीण इलाकों में हैं। ये ऐसे स्कूल हैं जो सिर्फ एक शिक्षक से बल पर चलते हैं और किसी कारण से शिक्षक के अनुपस्थित होने पर बच्चों को खुद के भरोसे छोड़ दिया जाता है। यूनेस्को की रिपोर्ट अनुसार भारत में आज भी 7.25 फीसद सिंगल टीचर स्कूल मौजूद हैं। गौरतलब हो कि इनमें 89 प्रतिशत स्कूल ग्रामीण इलाकों में हैं। अरुणाचल प्रदेश, गोवा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, झारखंड, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में इन स्कूलों की संख्या ज्यादा है।
देश के मौजूदा स्कूलों में अयोग्य शिक्षकों का होना भी एक अतिरिक्त समस्या है। तय मानदंड के बावजूद अयोग्य शिक्षकों की बहाली होना आम है। गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में ऐसे शिक्षकों की भरमार होती है। इन स्कूलों में यह अनुपात सबसे ज्यादा है। प्राथमिक स्तर पर यह अनुपात 41 और उच्च माध्यमिक स्तर पर लगभग 61फीसद है। वहीं सरकारी स्कूलों के उच्च प्राथमिक स्तर पर यह अनुपात 17फीसद से अधिक और प्राथमिक स्तर पर 36फीसद है। योग्यता और प्रशिक्षण के अभाव में बच्चों को वह शिक्षा नहीं मिल सकती जिसकी उन्हें जरूरत है। कई बार शिक्षकों की कमी में अयोग्य शिक्षक को रखना छोटे निजी स्कूलों की मजबूरी भी बन जाती है।
भारत के लगभग आधे स्कूल शिक्षक महिलाएं हैं। शैक्षिक वर्ष 2018-19 में, देश के सभी शिक्षकों में से लगभग तीन चौथाई ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित स्कूलों में कार्यरत थे। इनमें से 60फीसद सरकारी स्कूल, 26फीसद निजी स्कूल और लगभग 7फीसद निजी सहायता प्राप्त स्कूलों में काम कर रहे थे। शहरी क्षेत्रों में निजी गैर सहायता प्राप्त स्कूलों में 57 फीसद शिक्षक कार्यरत थे। शहरी क्षेत्र में 25फीसद शिक्षक सरकारी स्कूलों में और 12फीसद निजी सहायता प्राप्त स्कूलों में काम कर रहे थे।
कोरोना महामारी के दौरान पुरुषों के तुलना में महिलाओं ने ज्यादा नौकरियाँ गवाई और संभव है कि इससे शिक्षकों की यह कमी और बढ़ती नजर आए। यूनेस्को के अनुसार तत्काल हमारे शिक्षा व्यवस्था में 1 मिलियन से अधिक शिक्षकों की कमी है जो आने वाले दिनों में और बढ़ने की संभावना है। शिक्षा के मामले में ‘नो टीचर नो क्लास’ की थिओरी ही काम करती है। अयोग्य शिक्षक के हाथों बच्चे की पढ़ाई जितनी नुकसानदेह है, उतनी ही खतरनाक है बच्चों का खाली जा रहे क्लासों में बैठे रहना। शिक्षक नियुक्ति की पद्धति जितना जल्दी होगा, शिक्षक पर काम का भार उतना ही कम होगा।
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तस्वीर साभार : The Federal