समाजराजनीति ग्रामीण भारत में भी कम नहीं हैं महिला नेतृत्व की चुनौतियां

ग्रामीण भारत में भी कम नहीं हैं महिला नेतृत्व की चुनौतियां

इस बात पर चर्चा बहुत कम ही देखने को मिलती है कि आख़िर क्यों जब कोई महिला प्रधान चुनी जाती है तो उसे उसकी अपनी पहचान की बजाय उसके पति की पहचान से ही जाना जाता है।

किसी भी समाज के बदलाव और विकास की दशा, दिशा और गति हमेशा उसका नेतृत्व तय करता है। अपने लोकतांत्रिक भारतीय समाज में बात चाहे ग्रामीण स्तर में विकास की बात हो या फिर शहरी विकास की हर स्तर पर होने वाले चुनाव अपने देशकाल के अनुसार नेतृत्व का चुनाव करते हैं। नेतृत्व का प्रभाव कितना ज़्यादा है यह हम अपनी रोज़ाना की ज़िंदगी में देख सकते हैं। उदाहरण के तौर पर ‘सुबह की चाय के लिए आपकी जेब पर कितना प्रभाव पड़ेगा’ या ‘बुढ़ापे में मिलनेवाले पेंशन की राशि’ ये सब देश का नेतृत्व तय करता है। लेकिन जैसे ही इस नेतृत्व के आगे महिला शब्द जुड़ता है तो समाज का नज़रिया बदल जाता है।

जब भी गाँव में पंचायत चुनाव होते हैं तो प्रधानपति (वह पुरुष जिसकी पत्नी प्रधान हो) का होना कितना गलता है, इसे बताने वाले कई लेख लिखे जाते हैं। हालांकि, इस बात पर चर्चा बहुत कम ही देखने को मिलती है कि आख़िर क्यों जब कोई महिला प्रधान चुनी जाती है तो उसे उसकी अपनी पहचान की बजाय उसके पति की पहचान से ही जाना जाता है।

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बनारस ज़िले के आराजीलाइन ब्लॉक के एक गाँव की पूर्व महिला प्रधान के साथ जब मैंने इस पर बात की तो उन्होंने एक वाक़ये के ज़रिए इसका ज़वाब दिया। उन्होंने बताया कि चुनाव प्रचार के शुरुआती दौर में जब उन्होंने खुद अकेले महिलाओं के बीच जाना शुरू किया और उनके साथ एक-दो बैठकें कीं तो गाँव में यह बात तूल पकड़ने लगी कि यह नयी बहु अभी जब गाँव-गाँव घूमकर अपने मन से बैठक कर रही है तो प्रधान बनने के बाद भी अपनी मनमानी करेगी। इन आलोचनाओं के बाद उन्होंने अपने पति के माध्यम से चुनाव प्रचार शुरू किया।

इस बात पर चर्चा बहुत कम ही देखने को मिलती है कि आख़िर क्यों जब कोई महिला प्रधान चुनी जाती है तो उसे उसकी अपनी पहचान की बजाय उसके पति की पहचान से ही जाना जाता है।

साफ़ है कि जैसे ही कोई महिला अगर नेता बनने की दिशा में अपना पहला कदम बढ़ाती है तो अपना समाज ही उसका पहला रोड़ा बनता है। यहां गौर करनेवाली बात यह भी है कि अगर समाज महिला की योग्यता पर सवाल करे तो उसका ज़वाब देना संभव है, पर इसके विपरीत समाज चरित्र और अच्छी महिला की बनाई गई छवि के आधार पर महिलाओं पर सवाल खड़े करने लगता है। उन्हें यह बिलकुल भी रास नहीं आता कि कोई महिला ख़ुद बिना किसी दूसरे (ख़ासकर पुरुष) के नाम-पहचान की बजाय अपने नाम-पहचान, नज़रिए और योजनाओं के साथ आमजन तक पहुंचे। इतना ही नहीं, जैसे ही कोई महिला प्रधान स्वतंत्र रूप से काम करने पंचायत भवन पहुंचती है, वहां उन्हें अपनी जगह बनाने में भी कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।

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इस विषय पर जब एक़ बार हम लोगों ने आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के साथ बात की तो उन्होंने बताया कि जब कोई महिला प्रधान पंचायत भवन में आती है तो यह बात बाक़ी के कर्मचारियों को नहीं भाती है। अगर महिला प्रधान ख़ुद से कोई निर्णय ले या कोई काम करना चाहे तो सभी उसके रास्ते में रोड़ा बनने लगते हैं। गौर करनेवाली बात यह भी है कि जब हम लोग महिला प्रधान की बात करते हैं तो उसकी छवि हमेशा हमारे मन में एक बहु की ही होती है। मतलब एक शादीशुदा महिला की, क्योंकि शादीशुदा महिला को ही अपना समाज वैध मानता है। पितृसत्तात्मक समाज सुहाग के सारे ऋृगांर से लैस महिला को अपने विशेषाधिकार में से शर्त के अनुसार थोड़ी जगह देने को तैयार होता है। अब जब समाज की नज़र में ‘वैध शादीशुदा महिला’ को अपने नाम के पद को काम के पद में बदलने में इतनी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है तो ऐसे में अविवाहित महिला के लिए इस पद तक पहुंचना कितनी बड़ी चुनौती होगी, इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है।  

यह तो बात हुई जब महिलाएं नेतृत्व में होती हैं तो उन्हें किन बुनियादी चुनौतियों का सामना करना पड़ता। लेकिन जब हम महिला नेता को लेकर समाज के नज़रिए पर गौर करें तो हमेशा महिला नेता के प्रति नकारात्मक छवि ही देखने को मिलती है। जैसे ही कोई महिला ग़लत के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ उठाए या किसी काम की तरफ़ अपने कदम बढ़ाती है तो उसे नेता की उपाधि दी जाने लगती है, जो एक तंज होता है। महिला नेता के नाम पर गंदी गालियां और भद्दे कमेंट तो बहुत आम हैं। उनके नेतृत्व को स्वीकार करना तो दूर उन्हें बोलने और काम करने की जगह देने तक हमारा समाज तैयार नहीं होता है।

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जैसे ही कोई महिला ग़लत के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ उठाए या किसी काम की तरफ़ अपने कदम बढ़ाती है तो उसे नेता की उपाधि दी जाने लगती है, जो एक तंज होता है।

महिला नेता की इन्हीं चुनौतियों के तोड़ के रूप में पितृसत्ता ने अपना सुरक्षा नियम अपनाया है, जिसमें महिला नेता के साथ प्रधानपति जैसे तमाम अप्रत्यक्ष पुरुष नेता को बढ़ावा दिया जाता है, जो महिला नेताओं को कठपुतली बनाकर ख़ुद काम करते हैं। अब हो सकता है आप ये कहें कि महिला जब नेता बनने की तरफ़ कदम बढ़ाती है तो उसे डटे रहना चाहिए, किसी से डरना नहीं चाहिए और अपनी जगह खुद बनानी चाहिए। अगर आपको भी ऐसा लगता है तो एक़ बार आपको इस बात पर मंथन करने की ज़रूरत है कि संविधान ने समानता के अधिकार के तहत महिलाओं को वोट देने से लेकर नेता बनने का समान अधिकार तो दे दिया। लेकिन क्या हमारी परवरिश ने कभी भी बच्चियों को नेतृत्व दिशा में आगे बढ़ने की सीख दी? क्या वाक़ई में हमने लड़कियों को लड़ने और डटे रहने के लिए तैयार किया है?

महिला नेतृत्व को बढ़ावा देने के लिए तो अब तक बहुत काम किए गए है, लेकिन अब ज़रूरत है महिला नेतृत्व को स्वीकार करने वाली ज़मीन तैयार करने की, जहां महिलाओं को अच्छी या बुरी महिला की बजाय इंसान के रूप में स्वीकार किया जाए, क्योंकि योग्यता और नेतृत्व क्षमता का महिला या पुरुष होने से कोई लेना-देना नहीं है।

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तस्वीर साभार : The Financial Express

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