जेंडर आधारित खबरों पर मीडिया की कवरेज, उसकी भाषा, प्रस्तुति उसे उसी लाइन में खड़ा कर देती है, जहां पितृसत्तात्मक समाज है। अक्सर देखा गया है कि जब भी जेंडर से जुड़े किसी विषय या घटना की बात होती है तो मीडिया की कवरेज पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रहों पर ही आधारित होती है। लैंगिक हिंसा पर मीडिया की कवरेज बहुत सारे सवाल खड़ा करती है। भारतीय मीडिया की कवरेज विशेषतौर पर महिलाओं के संदर्भ में स्वयं के महत्व और प्रभाव से इतर पारंपरिक और सामाजिक रूढ़िवादी मापदंडो पर आधारित है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा को रोकने और उसका मुकाबला करने में मीडिया बहुत अहम भूमिका निभा सकता है। इसके विपरीत लैंगिक हिंसा के खिलाफ और महिलाओं से जुड़ी हुई खबरों को एक सनसनी के तौर पर पेश किया जाता है।
टीवी, पारंपरिक मीडिया और सोशल मीडिया सभी जानकारियों के स्रोत के प्रमुख माध्यम हैं। वर्तमान के इंटरनेट के दौर में मीडिया सूचनाओं का विशाल जगत है। जहां स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय सीमाओं की कोई बाधा नहीं है। मीडिया अपनी सूचनाओं के माध्यम से समान अधिकारों पर जागरूकता को बढ़ावा दे सकता है। मीडिया, जनमत और नीतियों के बीच एक पुल का काम करता है। यही वजह है कि इस बात में कोई संदेह नहीं है कि मीडिया कवरेज बहुत मायने रखती है। समाज में मीडिया की प्रभावी पहुंच उसकी जिम्मेदारियों को बढ़ाती है। उसके काम के माध्यम से सामाजिक मापडंदों की परिभाषा तक को बदला जा सकता है। लेकिन भारतीय मीडिया का रवैय्या महिला से संबधित खबरों में मर्दवादी सोच को जाहिर करता है।
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जेंडर आधारित खबरों पर सनसनी परोसता मीडिया
उदाहरण के तौर पर हाल ही में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में हुई एक घटना पर मीडिया की खबरों की भाषा पर गौर किया जाए। इन खबरों को पढ़कर बिल्कुल ऐसा लगता है जैसे गांव-शहर के मोहल्लों में इस तरह की घटनाओं पर प्रतिक्रिया आती है। अखबार के पन्नों और वेबसाइट्स की खबरों के शीर्षक में वायरल, सनजनीखेज, प्रेमिका जैसे शब्दों को शामिल कर महिला को एक विक्टिम की तरह पेश किया जाता है। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में एक शादी के दौरान हुई घटना का वीडियो को केन्द्र में रख इस घटना की जानकारी दी गई। इस शादी के दौरान यह हुआ कि जब दुल्हा और दुल्हन के बीच वरमाला की रस्म चल रही थी उसी वक्त एक शख़्स ने आकर जबरन महिला की मांग में सिंदूर भर दिया। एक मिनट के घटना के वीडियो को खबरों में सनसनी की तरह पेश किया गया।
यहां खबर की भाषा में प्रेमिका जैसे शब्द का इस्तेमाल कर उसको क्लिकबेट के लिए आकर्षक बनाया गया है। खबर के अनुसार पूरी घटना का जिम्मेदार महिला को ठहराने जैसी बात ब्लेम गेम को दिखाती है। उस शख़्स के व्यवहार को सवाल न बनाकर महिला के घर वालों द्वारा तय की गई शादी को केंद्र में रखा जाता है। साथ ही पुरुष की जबदस्ती और महिला की ना के सवाल पर मीडिया की चुप्पी तो हमेशा ही बनी रहती है।
हालांकि, इस तरह की खबरें आए दिन अखबार और टीवी पर देखने को मिलती हैं। इनके संदर्भ में मीडिया की कवरेज भी लगभग एक जैसा ही होती है। जगह और किरदार बदल जाते हैं, खबर का सार मर्दवादी सोच पर ही आधारित होता है। खबरों के बाज़ार में महिला चरित्र पर अंगुली उठाकर बात को बढ़ाया जाता है। प्रेमी और प्रेमिका के रिश्ते को एक गुनाह की तरह पेश किया जाता है। टीवी पर तो घंटों के पैकेज बनाकर महिला को विक्टिम बनाकर पेश किया जाता है। महिला-पुरुष के प्रेम के रिश्ते पर मीडिया खासतौर से दकियानूसी सोच को जाहिर करता है। पूर्वाग्रहों पर आधारित सोच से ग्रसित मीडिया के ऐसे कवरेज समाज में रूढ़िवाद के विचारों की जड़ को और अधिक मजबूत करते है।
पूर्वाग्रह पर आधारित मीडिया कवरेज
भारतीय मीडिया की महिला को लेकर इस तरह की सोच कोई नयी बीमारी नहीं है। बरसों से भारत का मीडिया महिला को केंद्र में रखकर इसी तरह की बातें करता आ रहा है। विज्ञापन की तस्वीरों से लेकर खबरों की भाषा में महिला को एक ऑबजेक्ट की तरह इस्तेमाल किया जाता है। भारतीय मीडिया के संदर्भ में हुए एक अध्ययन के अनुसार इस बात की खोज की गई कि भारतीय मीडिया महिला के मुद्दों की रिपोर्ट कैसे करता हैं। भारत में ऑनलाइन प्रकाशित लाखों कहानियों को ट्रैक करने के बाद इस नतीजे पर पहुंचे कि भारत का मीडिया महिला केंद्रित खबरों को एक अलग नज़र से देखता है। इस रिसर्च में चार विषय, बलात्कार, चयनित गर्भसमापन, दहेज और बाल विवाह के विषय को चुना गया।
शोध के परिणाम बताते हैं कि मीडिया में महिला की खबरों को दो लेंस से पेश किया जाता है। पहला विक्टिम ब्लेमिंग यानि सारी समस्या की जड़ महिला ही है। दूसरा घटना के मूल कारण पर कम ध्यान दिया जाता है। मुख्य तौर पर बलात्कार, दहेज और हिंसा की खबरों को बहुत प्रासंगिक रूप में पेश किया जाता है। इस तरह की घटनाओं को आपराधिक के मामले के इर्द-गिर्द घुमाकर वास्तविक कारणों पर बात करने से हमेशा बचा जाता है। इस तरह के केस में असमानता, लैंगिक भेदभाव और पितृसत्ता पर बात नहीं होती है। वर्तमान में मुख्य तौर पर ऑनलाइन मीडिया घटना के विवरण को बहुत अधिक सनसनीखेज, नाटकीयता के रूप में सामने लाता है। इस तरह की घटनाओं में शक्ति के गलत दुरुपयोग की बात कहने से बचता है। यही नहीं, भारतीय मीडिया इस तरह के कवरेज में पाठकों और दर्शकों को आत्मनिरीक्षण करने और समस्या को रोकने में भी नाकामयाब रहता है। समस्या के समाधान से अलग भारतीय मीडिया समस्या को और जटिल करता नजर आता है।
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गोरखपुर की घटना के संदर्भ में यह शोध काफी सटीक नज़र आता है। यहां खबर की भाषा में प्रेमिका जैसे शब्द का इस्तेमाल कर उसको क्लिकबेट के लिए आकर्षक बनाया गया है। खबर के अनुसार पूरी घटना का जिम्मेदार महिला को ठहराने जैसी बात ब्लेम गेम को दिखाती है। उस शख़्स के व्यवहार को सवाल न बनाकर महिला के घर वालों द्वारा तय की गई शादी को केंद्र में रखा जाता है। साथ ही पुरुष की जबदस्ती और महिला की ना के सवाल पर मीडिया की चुप्पी तो हमेशा ही बनी रहती है। इस तरह की हर खबर पितृसत्तात्मक सोच के आधार पर लिखकर महिला की निजता को भारतीय मीडिया अपने कवरेज में खत्म कर देता है।
गोरखपुर की घटना को एक उदाहरण के तौर पर रखा गया है। यदि इससे अलग भी आप गूगल में प्रेमिका कीवर्ड सर्च करेंगे तो खबरों के सेक्शन जो शीर्षक नजर आएंगे उन्हें देखकर पहली नजर में ऐसा लगेगा कि पूरी घटना की जिम्मेदार केवल महिला ही है। यहां सहमति की बात का कोई ज्रिक नहीं होता है। यदि किसी घटना में महिला शामिल है तो उसे केंद्र में रखकर बात को बहुत ही सनसनी की तरह पेश किया जाता है। पितृसत्ता मीडिया के कवरेज में महिलाओं के ऑब्जेक्टिफिकेशन से लेकर लैंगिक असमानता झलकती है। समाज के रूढ़िवादी और लिंगभेद की दीवार की नींव तभी ही कमजोर होगी जब उसमें इन विचारों के खिलाफ संदेश जाएगा। मीडिया अपने माध्यम से इस नींव को कमजोर करने का काम कर सकता है। मीडिया अपनी कवरेज में संवेदनशीलता, समानता और समावेशी नजरिया शामिल करके ही उसे अपने ऊपर किए सवालों को खत्म कर सकता है।
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