संस्कृतिसिनेमा झुंड : स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी की दीवार से उस पार का भारत

झुंड : स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी की दीवार से उस पार का भारत

सिर्फ एक लाइन में कहें तो झुंड ऐसे समाज की कहानी है जो अपने आप को साबित करने की कोशिश में है। तथाकथित सभ्य समाज ने जाति और वर्ग की दीवार खड़ी कर उन्हें अलग धकेल दिया। इन लोगों को तथाकथित प्रगतिशील समाज 'गंदगी' कहता है।

मशहूर मराठी फिल्म ‘सैराट’ के निर्देशक नागराज मंजुले की पहली बॉलीवुड फिल्म ‘झुंड’ अपने मकसद में काफी हद तक सफल हुई है। यह अपने तरह की पहली हिंदी फिल्म है। इसकी कहानी स्लम सॉकर एनजीओ के संस्थापक विजय बरसे के जीवन पर आधारित है। फिल्म के ज़रिये एक ही समय में भारत की दो अलग-अलग तस्वीरें दिखाने की कोशिश की गई है, जिसमें एक-दूसरे के बीच गहरी खाई है। फिल्म की सिनेमेटोग्राफी काफी अच्छी है, झुग्गी-झोपड़ी में रहनेवाले लोगों को ज्यों का त्यों दिखाया गया है। उनके जीवन के हर पहलू को छूने की कोशिश की गई है। यहां रहनेवाले लोगों का काम-धंधा, बात-बात पर झगड़े करना, कलम उठानेवाले हाथों में नशा और लाठी-डंडे, महिलाओं के साथ परिवार का व्यवहार, पहनावा, रहन-सहन सब कुछ हूबहू परदे पर उतारा गया है। 

सिर्फ एक लाइन में कहें तो झुंड ऐसे समाज की कहानी है जो अपने आप को साबित करने की कोशिश में है। तथाकथित सभ्य समाज ने जाति और वर्ग की दीवार खड़ी कर उन्हें अलग धकेल दिया। इन लोगों को तथाकथित प्रगतिशील समाज ‘गंदगी’ कहता है। यह वही गंदगी है जो लोगों द्वारा फैलाए जानेवाले कचरे को रोज़ाना साफ करते हैं, कूड़ा बीनते हैं, फेरियां लगाते हैं, सब्जियां बेचते हैं, रिक्शा खींचते हैं, ठेले लगाते हैं, महिलाएं दूसरे घरों की साफ सफाई करती हैं। इनका जीवन पूरी तरह से अलग है। स्कूल-कॉलेज जैसा इनके जीवन में कुछ नहीं है। सुबह उठते ही एक दूसरे को गाली देना, नशा करना, नशा बेचना, मारामारी करना और पुलिसवालों की गाली खाना ही इनके जीवन का हिस्सा है। उसका कारण शिक्षा का इन सभी की पहुंच से दूर होने भी है।

और पढ़ें: ‘The Holy Wives’ डॉक्यूमेंट्री जिसने धर्म और जाति के नाम पर हो रहे यौन शोषण को उजागर किया

फिल्म में फुटबॉल कोच विजय बरसे के किरदार में मशहूर अभिनेता अमिताभ बच्चन हैं। हालांकि, यह नहीं कहा जा सकता कि फिल्म का मुख्य किरदार कौन है क्योंकि कई किरदार अपनी-अपनी कहानी बुनते नज़र आते हैं। झोपड़ी के बच्चों का डॉन कहे जानेवाले सांभ्या के ‘डॉन’ से सांभ्या बनने की कहानी है। लड़कियों के अंदर अपने आप को साबित करने का जुनून है और देशभर की झुग्गी-झोपड़ियों में रहनेवाले बच्चों द्वारा बाइक से तेल चुराने, चलती ट्रेन से कोयला निकालने और लोगों से लूटपाट करने जैसे काम छोड़कर अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल टीम में खेलने का संघर्ष है।

सिर्फ एक लाइन में कहें तो झुंड ऐसे समाज की कहानी है जो अपने आप को साबित करने की कोशिश में है। तथाकथित सभ्य समाज ने जाति और वर्ग की दीवार खड़ी कर उन्हें अलग धकेल दिया। इन लोगों को तथाकथित प्रगतिशील समाज ‘गंदगी’ कहता है।

फिल्म की कहानी

फिल्म की पूरी कहानी नहीं बताई जा सकती क्योंकि फिर फिल्म देखने का मज़ा बरकरार नहीं रहेगा। कहानी काफी दिलचस्प है। झोपड़ी में रहनेवाले दो युवाओं के बीच झगड़ा चल रहा होता है जहां एकदम से बीच में अमिताभ आ जाते हैं और उनसे पूछते है कि झगड़ा क्यों कर रहे हो? उनमें से एक से कोच पूछते हैं कि किस कॉलेज में जाते हो तो वह जवाब देता है कि वह कॉलेज-वॉलेज नहीं जाता। वहीं, पास में खड़े छोटे बच्चे से पूछते हैं कि स्कूल जाते हो तो वह मुंह से न की आवाज़ निकालता है। यहां से शुरू हुई कहानी धीरे-धीरे आगे बढ़ती है। उसके बाद कोच एक बार उन्हें फुटबॉल जैसे एक बॉक्स के साथ खेलते देखते हैं। उन सबके पांव की मूवमेंट देखकर वह उनमें एक फुटबॉल टीम खोज लेते हैं। किस तरह वह झुंड को टीम बनाते हैं यह इस फिल्म का रोमांच है। बीच में कई तरह के दृश्य हैं लेकिन फिल्म फुटबॉल खेल के इर्द-गिर्द ही घूमती है।

तस्वीर साभार: The Indian Express

एक सीन में झोपड़ी में रहनेवाले सब बच्चे मिलकर कोच से ग्राउंड में मिलने जाते हैं। उनके जाने के बाद साथी कोच उनसे पूछते हैं, “विजय सर, ऐसे लोगों के साथ आप क्या करते हैं?” कोच जवाब देते हैं, “फुटबॉल खेलता हूं इनके साथ, अच्छा खेलते हैं।” फिर कोच कहते हैं, “ऐसे लोगों के साथ नहीं रहना चाहिए, ये लड़कियों को छेड़ते हैं, नशा करते हैं।

इसी तरह एक अन्य सीन में कैंपस के मुख्य प्रोफेसर कोच विजय से कहते हैं कि इस गंदगी को कॉलेज कैंपस में न लाएं तो बेहतर होगा। वहीं, कोर्ट के एक सीन में कोच जज से कहते हैं कि ये बच्चे एक पत्थर से सूअर मार गिराते हैं, अगर इनके हाथ में गेंद थमा दी जाएगी तो यह विश्व के सबसे बड़े गेंदबाज बन सकते है। वहीं, इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि कैसे शिक्षा से दूर होने के कारण पहचान पत्र, जन्म प्रमाण पत्र और रिहायशी प्रमाण पत्र जैसे सामान्य दस्तावेज़ भी इन लोगों के पास नहीं होते। जब उन बच्चों को पासपोर्ट बनवाना होता है तो उन्हें दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती हैं। 

और पढ़ें : कर्णन : दलितों के संघर्ष पर उनके नज़रिये से बनी एक शानदार फिल्म

फिल्म में कुछ दृश्य बाबा साहब आंबेडकर को लेकर भी है। झोपड़ी में रहनेवाले बच्चे डॉ.आंबेडकर जयंती पर चंदा इकट्ठा करते हैं। एक दुकानदार से जब चंदा देने के लिए कहते हैं तो वह जवाब देता है, “यदि पैसे इकट्ठा करके तुम्हें यह गाने-बजाने का कार्यक्रम करना है तो मैं चंदा नहीं दूंगा क्योंकि इससे समाज का भला नहीं होने वाला। कोई ऐसा काम करनेवाले हो जो समाज हित में हो तो मैं चंदा दे सकता हूं।” जब झोपड़पट्टी में जयंती मनाई जाती है तो कोच भी आते हैं और बाबा साहेब की तस्वीर के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं।

तस्वीर साभार: यूट्यूब से लिया गया स्क्रीनग्रैब

यह एक सीन हिंदी फिल्मों में आने में कई दशक लग गए। हिंदी फिल्मों में आज भी इस तरह का कोई सीन नहीं दिखाया जाता, जिसमें बहुजन समाज अपने महापुरुषों की जयंती मना रहे हो, आपस में ‘जय भीम’ का अभिवादन कर रहे हो। हां, इन बस्तियों में आग लगाने, इन महिलाओं के साथ दुष्कर्म करने आदि जैसे सीन लगभग हर तीसरी फिल्म में दिख जाते हैं। पिटते, शोषण झेलते, बेचारे बनाकर बहुजनों को जरूर दिखाया जाता है। चालाक हिंदी सिनेमा को अब होशियार हो जाना चाहिए क्योंकि उन्हें टक्कर देने के लिए दक्षिण का सिनेमा हिंदी पट्टी में उतर आया है। 

इस फिल्म का हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्मों से मुकाबला नहीं किया जा सकता। पहली बात यह है कि झुंड बड़े बजट की फिल्म नहीं है। वहीं दूसरे यह मराठी सिनेमा से हिंदी सिनेमा में किया गया एक प्रयोग है। यह फिल्म लगातार देखी जा रही है। देखी जानी चाहिए। पूरी टीम ने खूब मेहनत की है। डायरेक्टर मंजूले ने इस तरह के अनछुए विषय पर फिल्म बनाकर साहस का काम किया है। इस फिल्म के माध्यम से झुग्गी झोपड़ी में जीवन बसर करने वाले आधे नंगे भारत को डॉक्यूमेंट किया गया है। 

और पढ़ें: असुरन : पूंजीवादी सवर्ण ज़मीदारों के शोषण और दलितों के संघर्ष को दिखाती फिल्म


तस्वीर साभार: The Indian Express

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content