पिछले कुछ सालों से भारत में महिलाएं सामाजिक, सांस्कृतिक हिंसा का अधिक सामना कर रही हैं। प्राचीन काल में, अलग-अलग भारतीय राज्यों में कई महिलाओं को अनिवार्य रूप से कई सामाजिक परंपराओं और प्रतिबंधों का पालन करने के लिए मजबूर किया जाता था। कन्या भ्रूण हत्या, कन्या हत्या, दहेज, घरेलू हिंसा, तेजाब फेंकना और विधवा पुनर्विवाह पर वर्जना जैसी प्रथाएं प्रचलित थीं। इन पितृसत्तात्मक प्रथाओं में समय के साथ गिरावट आई है लेकिन ये अभी तक पूरी तरह से जड़ से उखाड़ी नहीं गई है।
कुछ भारतीय महिलाएं राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चमकी हैं। उन्होंने खेल, कला, संस्कृति, सिनेमा, अंतरिक्ष और प्रौद्योगिकी, और राजनीति जैसे क्षेत्रों में देश का नाम रोशन किया है। फिर भी, जब लैंगिक समानता की बात आती है, तो यहां भारत अभी भी संघर्ष कर रहा है। भारतीय पुरुषों और महिलाओं के बीच लैंगिक असमानताओं को उनके जन्म के समय से ही अस्तित्व में देखा गया है। अधिकतर घरों में खाने का बंटवारा इस तरह किया जाता है कि अच्छा और पोषित खाना मर्दों के हिस्से में आए। महिलाओं को खाने से लेकर शिक्षा तक हर चीज़ में समझौता करना पड़ता है। उनके साथ यह भेदभाव उनके बचपन से शुरू हो जाता है, जो उनके माँ बनने से लेकर उनकी मौत तक साथ चलता है।
ऑक्सफैम इंडिया की स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में असमानता से जुड़ी साल 2021 की रिपोर्ट में ये बातें सामने आईं हैं कि देश में स्वास्थ्य सेवा पाने के लिहाज से सामान्य वर्ग के लोग अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति परिवारों की तुलना में बेहतर स्थिति में हैं। इसी पैमाने के लिहाज से हिंदू मुसलमानों से बेहतर हैं, गरीबों की तुलना में अमीर स्वास्थ्य के लिहाज से अच्छी स्थिति में हैं। महिलाओं के मुकाबले पुरुष और ग्रामीण क्षेत्र की आबादी की तुलना में शहरी आबादी की स्थिति बेहतर है। रिपोर्ट के अनुसार सार्वभौमिक स्वास्थ्य बीमा के अभाव में हाशिये पर जीने वाले लोग बड़े पैमाने पर प्रभावित हुए हैं, खासतौर पर तब जब कोविड-19 महामारी के कारण देश में सामाजिक-आर्थिक असमानताएं बढ़ रही हैं।
अधिकतर घरों में खाने का बंटवारा इस तरह किया जाता है कि अच्छा और पोषित खाना मर्दों के हिस्से में आए। महिलाओं को खाने से लेकर शिक्षा तक हर चीज़ में समझौता करना पड़ता है। उनके साथ यह भेदभाव उनके बचपन से शुरू हो जाता है, जो उनके माँ बनने से लेकर उनकी मौत तक साथ चलता है।
भारत में, महिलाओं के स्वास्थ्य के मुद्दे सदियों से चले आ रहे हैं। ताजमहल, सबसे प्रशंसित विश्व धरोहर स्थलों में से एक, मुगल सम्राट शाहजहाँ द्वारा 1600 के दशक की शुरुआत में अपनी पत्नी, मुमताज़ महल की याद में, प्रसव के दौरान उनकी मृत्यु के बाद बनाया गया था। भारतीय इतिहास कई ऐसी मातृ मृत्युओं का गवाह रहा है, जिनमें से अधिकांश को समय पर हस्तक्षेप और उचित प्रबंधन के द्वारा रोका जा सकता था या टाला जा सकता था। विज्ञान की तरक्की और समय के साथ गर्भवती महिलाओं की मौतों की संख्या में कमी आई है, हालांकि, यह संख्या वैज्ञानिक और सामाजिक रूप से स्वीकार्य सीमा तक नहीं पहुँची है। फिलहाल भारत का मातृ मृत्यु अनुपात प्रति 100,000 जीवित जन्मों पर 103 है।
और पढ़ें: भारत में सस्टेनबल मेंस्ट्रुएशन को लागू करना क्यों चुनौतियों से भरा है
महिलाओं के बीच बढ़ते स्वास्थ्य संबंधी खतरे
गर्भवती महिलाओं और उनके बच्चों के स्वास्थ्य के लिए पर्याप्त पोषण बेहद महत्वपूर्ण है। भारत में कुपोषण ख़त्म करने के लिए एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक कुपोषण के चक्र को तोड़ना प्रमुख उपाय है। जिन महिलाओं को पर्याप्त पोषण नहीं मिलता है, उनके गर्भावस्था के दौरान भी कुपोषित रहने की आशंका बढ़ जाती है और इस बात का ख़तरा बढ़ जाता है कि वे सामान्य से कम वज़न के बच्चे को जन्म देंगी। ऐसे बच्चे अविकसित रह जाते हैं और उनकी मानसिक क्षमता कमज़ोर होती है, उनकी संक्रमण का मुक़ाबला करने की क्षमता कमज़ोर होती है और पूरे जीवन के दौरान उन्हें बीमारी होने की आशंका ज़्यादा रहती है। ऐसे बच्चों की मृत्यु दर भी ज़्यादा होती है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस)-5 (2019-21) के निष्कर्षों के अनुसार एनएफएचएस-5 कई महत्वपूर्ण स्वास्थ्य आदानों के वितरण में महत्वपूर्ण सुधार दिखाता है। भारत ने स्वच्छ ईंधन, टीकाकरण आदि कई क्षेत्रों में भी अच्छी प्रगति की है। फिर भी, साक्षरता में वृद्धि की दर और पोषण संकेतकों में सुधार की दर एनएफएचएस-4 (2015-16) और एनएफएचएस-5 के बीच धीमी हो गई है। मृत्यु दर के अलावा, भारतीय महिलाओं को कई दूसरी स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है जो उनके खराब स्वास्थ्य और जीवनशैली में योगदान देते हैं।
भारत में महिलाएं एक गहरे पितृसत्तात्मक समाज में रह रही हैं। भारतीय परिवारों में पारंपरिक, सामाजिक रीति-रिवाज इस हद तक जुड़े हुए हैं कि महिलाएं अवचेतन रूप से मानती हैं कि उनके पुरुष समकक्षों को भोजन, शिक्षा, संपत्ति, स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच आदि के संबंध में बड़ा और बेहतर हिस्सा मिलना चाहिए। स्वास्थ्य समय के साथ पीछे छूट जाता है।
भारत में एनीमिया खतरनाक तरीके से बढ़ रहा है। इससे वयस्क महिलाएं और पुरुष भी अछूते नहीं रहे हैं। मोटापे की एक उभरती चुनौती भी सामने है। महिलाओं में आम अन्य बीमारियों में स्तन कैंसर का बढ़ता बोझ, पीरियड्स की समस्याएं और मानसिक स्वास्थ्य शामिल हैं। टाइम्स ऑफ़ इंडिया में छपे एक लेख के अनुसार भारत में हर 4 मिनट में एक महिला को स्तन कैंसर का पता चलता है, और हर 13 मिनट में एक महिला की स्तन कैंसर से मृत्यु हो जाती है। यह भारतीय महिलाओं में सबसे अधिक प्रचलित कैंसर है। 28 में से लगभग हर 1 महिला को अपने जीवनकाल में स्तन कैंसर होने की संभावना होती है। साल 2030 तक, किसी भी अन्य बीमारी की तुलना में भारत में महिलाओं में स्तन कैंसर से सबसे अधिक मौतें होंगी।
2022 के बजट में स्वास्थ्य और पोषण के संबंध में महत्वपूर्ण पहलों का अभाव
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2021 में 156 देशों में भारत 28 पायदान नीचे 140वें स्थान पर आ गया है, जो दक्षिण एशिया में तीसरा सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला देश बन गया है। वेबसाइट लाइव मिंट के अनुसार भारत में लिंग अंतर 62.5% तक बढ़ गया है, जिसका मुख्य कारण राजनीति में महिलाओं का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व, तकनीकी और नेतृत्व की भूमिका, महिलाओं की श्रम शक्ति की भागीदारी दर में कमी, खराब स्वास्थ्य सेवा, महिला से पुरुष साक्षरता अनुपात में कमी, आय असमानता है।
वैश्विक स्तर पर भारत का रिकॉर्ड बड़ा ख़राब हो रहा है। वैश्विक स्तर पर गिरने के बावजूद सरकार ने स्वास्थ्य बजट 2022 में कटौती की है। कुल बजट में स्वास्थ्य का हिस्सा 2.26% तक गिर गया है। सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने स्वास्थ्य परिव्यय में वृद्धि की मांग की है। उनका दावा है कि 2022 का बजट सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन कार्यक्रम, COVID संबंधित प्रावधानों, महिलाओं और बच्चों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं और मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम को मजबूत करने के लिए पर्याप्त धन आवंटित करने में विफल रहा है।
और पढ़ें: स्टिल बर्थ के मामले भारत में सबसे अधिक लेकिन फिर भी इस मुद्दे पर चर्चा गायब
लैंगिक असमानता एक अभिशाप है, जो आज भी भारत में एक गंभीर रूप में मौजूद है। भारत में महिलाएं एक गहरे पितृसत्तात्मक समाज में रह रही हैं। भारतीय परिवारों में पारंपरिक, सामाजिक रीति-रिवाज इस हद तक जुड़े हुए हैं कि महिलाएं अवचेतन रूप से मानती हैं कि उनके पुरुष समकक्षों को भोजन, शिक्षा, संपत्ति, स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच आदि के संबंध में बड़ा और बेहतर हिस्सा मिलना चाहिए। स्वास्थ्य समय के साथ पीछे छूट जाता है। उन्हें निर्णय लेने और स्वास्थ्य देखभाल की तलाश करने का अधिकार नहीं है, जिससे उनका स्वास्थ्य और खराब हो जाता है।
राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर कई प्रयास, महिला सशक्तिकरण की दिशा में जारी हैं, उनकी स्वास्थ्य समस्याओं के साथ-साथ अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों को संबोधित करते हैं। हालांकि, जब तक परिवार और समुदाय समुदाय में महिलाओं की स्थिति के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलने के लिए खुद सक्रिय रूप से भाग नहीं लेते, यह केवल एक भ्रम ही होगा। इस भ्रम को वास्तविकता में बदलने के लिए, हमें लैंगिक समानता की ओर एक कठोर और निरंतर प्रयास की आवश्यकता है और महिलाओं को अपने स्वास्थ्य की देखभाल करने के लिए सशक्त बनाना है जितना वे अपने प्रियजनों के स्वास्थ्य की देखभाल करते हैं।
और पढ़ें: एनीमिया : भारत की महिलाओं और बच्चों के लिए ‘लाइलाज’ क्यों बनती जा रही है यह बीमारी
तस्वीर साभार: Wikipedia