इतिहास बाबा साहब डॉ. आंबेडकर की पत्रकारिता और ‘मूकनायक’ की ज़रूरत

बाबा साहब डॉ. आंबेडकर की पत्रकारिता और ‘मूकनायक’ की ज़रूरत

यह स्पष्ट है कि एक शताब्दी बीत जाने के बाद भी न तो वंचितों का कोई अपना खुद का मीडिया खड़ा हो पाया है और न ही मुख्य धारा के मीडिया में उनकी कोई जगह है। बाबा साहब आंबेडकर ने भी विरोध स्वरूप अपनी पत्र-पत्रिकाएं निकाली थीं।

पिछली एक शताब्दी में देश में बहुत कुछ बदल गया है। लेकिन देश में मीडिया की स्थिति आज भी वही है जो 100 साल पहले थी। लेखक, पत्रकार, अधिवक्ता, चिंतक, ज्ञान के प्रतीक, संविधान निर्माता, भारत रत्न, बौधिसत्व बाबा साहब डॉ.आंबेडकर की जयंति के उपलक्ष्य में आज उनके पत्रकारिता जीवन और वर्तमान की भारतीय मीडिया पर बात की जानी चाहिए। डॉ. आंबेडकर को महसूस हो गया था कि यह मीडिया पूरी तरह से एक जाति के अधीन हो चुका है। दूसरे वर्ग का प्रतिनिधित्व यहां संभव नहीं है। तभी आंबेडकर ने कहा था “वंचितों का अपना मीडिया होना चाहिए।” उन्होंने यह आदेश या संदेश ही नहीं दिया, बल्कि इस पर काम भी शुरू किया।

उन्हें अहसास हो चुका था कि मीडिया उनकी गलत इमेज बना रहा है। उन्होंने 27 सितंबर, 1951 को केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया और इस संबंध में एक वक्तव्य 10 अक्टूबर 1951 को दिया जिसके इस्तीफा देने का तीसरा कारण उन्होंने मीडिया को बताया। आंबेडकर लिखते हैं, “तीसरे, हमारे यहां के अखबार भी हैं, जो कुछ लोगों के लिए सदियों पुराने पक्षपात और अन्य के खिलाफ पूर्वाग्रह रखते आए हैं। उनकी धारणाएं तथ्यों पर कम ही आधारित होती हैं। जब उन्हें कोई रिक्त स्थान दिखाई देता है, वे उसे भरने के लिए ऐसी बातों का सहारा लेते हैं, जिसमें उनके प्रिय लोग बेहतर नजर आएं और जिनका वे पक्ष नहीं लेते, वे गलत नजर आएं। ऐसा ही कुछ मेरे मामले में हुआ है, ऐसा मुझे लगता है।”

डॉ. आंबेडकर ने खुद का मीडिया खड़ा करने की ठानी और 31 जनवरी 1920 को ‘मूकनायक’ का पहला अंक प्रकाशित हुआ। समाचार पत्रों के संबध में आंबेडकर मूकनायक के पहले संस्करण के पृष्ठ संख्या 34 में लिखते हैं, “मुंबई से निकलने वाले अधिकतर समाचार पत्र किसी विशेष जाति के हित के लिए काम करते हैं। दूसरी जातियों की उन्हें परवाह नहीं। इतना ही नहीं, कभी–कभी उन्हें नुकसान पहुंचाने वाली बातें भी उन पत्रों में दिखाई देती हैं।”

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डॉ. आंबेडकर को महसूस हो गया था कि यह मीडिया पूरी तरह से एक जाति के अधीन हो चुका है। दूसरे वर्ग का प्रतिनिधित्व यहां संभव नहीं है। तभी आंबेडकर ने कहा था “वंचितों का अपना मीडिया होना चाहिए।” उन्होंने यह आदेश या संदेश ही नहीं दिया, बल्कि इस पर काम भी शुरू किया।

मूकनायक की शुरुआत

बाबा साहब का मानना था कि बहिष्कृत लोगों पर आज हो रहे और भविष्य में होने वाले अन्याय पर योजनाबद्ध तरीके से विचार करना होगा, तभी उनका भला हो सकता है। उसी के साथ भावी प्रगति तथा उसे प्राप्त करने के रास्ते की सच्ची जानकारी के संबंध में भी चर्चा करनी होगी। इस चर्चा के लिए वे समाचार–पत्र पत्रिकाओं को ही उपयुक्त मानते थे। उन्हें समझ आ गया था कि समाज में जागृति लाने में मीडिया का बहुत बड़ा योगदान है। लेकिन मीडिया में आंबेडकर को जगह नहीं मिल पा रही थी। इसके बाद उन्होंने एकाएक पत्र पत्रिकाएं निकाली।

उनका पहला पाक्षिक समाचार पत्र मूकनायक 31 जनवरी 1920 को जानता के सामने आया। उस समय बाल गंगाधर तिलक ‘केसरी’ नामक पत्रिका निकालते थे। आंबेडकर ने मूकनायक के शुरू होने का विज्ञापन केसरी में छपवाने के संदर्भ में तिलक को पत्र लिखा और कहा कि वह उचित पैसे भी देने को तैयार हैं। इस पत्र का कोई जवाब नहीं दिया गया और न ही मूकनायक का विज्ञापन केसरी में छपा। आंबेडकर ने खुद मूकनायक के 13 संपादकीय लिखे। इसके बाद 3 अप्रैल 1927 को बहिष्कृत भारत निकाला। 29 जून 1928 को समता और 25 नवंबर 1930 को जनता के नाम से प्रकाशित किया गया। उनका सबसे अंतिम अखबार ‘प्रबुद्ध भारत’ रहा जिसका पहला अंक 4 फरवरी, 1956 को प्रकाशित हुआ।

मूकनायक, तस्वीर साभार: The Wire

आंबेडकर पहले ही कह चुके थे कि मीडिया उनका चेहरा बिगाड़ने में लगा है। 18 जनवरी 1943 को पूना के गोखले मेमोरियल हॉल में महादेव गोविंद रानाडे की 101वीं जयंती पर उन्होंने जो व्याख्यान दिया उसमें उन्होंने मीडिया का उनके प्रति जो रुख था उस पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि उनकी निंदा कांग्रेसी समाचार पत्रों द्वारा की जाती है, वे कांग्रेसी समाचार पत्रों को भलीभांति जानते हैं। इसलिए अब वे उनकी आलोचना को कोई महत्व भी नहीं देते। उन्होंने कभी आंबेडकर के तर्कों का खंडन नहीं किया। आंबेडकर मीडिया पर आरोप लगाते हुए कहते हैं वे उनकी हर बात की ग़लत सूचना देते हैं, उसे ग़लत तरीक़े से पेश करते हैं और उसका ग़लत अर्थ निकालते हैं। उनकी इस बात से यह समझा जा सकता है कि जब मीडिया डॉ. आंबेडकर जैसे विश्वविख्यात व्यक्तित्व के साथ ऐसा बरताव कर सकती है तो इससे किसी का भी बच पाना मुमकिन नहीं। 

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आज के जातिवादी मीडिया की हालत

वर्तमान संदर्भ में देखें तो हम यह कहने से बिल्कुल भी इनकार नहीं कर सकते कि भारतीय मीडिया आज भी जातिवादी मानसिकता से ग्रस्त है। ऑक्सफैम इंडिया और न्यूजलॉन्ड्री द्वारा (अक्टूबर 2018 से मार्च 2019 के बीच) एक रिपोर्ट तैयार की गई। इसका उद्देश्य देश के मीडिया संस्थानों में विभिन्न जाति समूहों के प्रतिनिधित्व के बारे में जानकारी देना है। रिपोर्ट का एक अंश: “इस रिपोर्ट के अध्ययन में यह पाया गया कि आज भी भारतीय मीडिया में उच्च जातियों अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य का वर्चस्व है। रिपोर्ट ने खुलासा किया कि मीडिया से एससी, एसटी, ओबीसी हाशिए पर खड़े हैं। यहां तक कि एसटी लगभग पूरी तरह से गायब कर दिए गए हैं।

रिपोर्ट में लिखा है कि समाचार पत्रों, टीवी न्यूज़ चैनलों, न्यूज़ वेबसाइटों और पत्रिकाओं में न्यूज़रूम में जो 121 व्यक्ति महत्वपूर्ण निर्णय लेते हैं या यूं कहें कि संस्थान का नेतृत्व करते हैं उन 121 में से 106 पत्रकार उच्च जाति से संबंध रखते हैं। इनमें एससी एसटी का प्रतिनिधित्व बिल्कुल गायब है। इनमें मुख्य संपादकों, प्रबंध संपादकों, कार्यकारी संपादकों, ब्यूरो प्रमुखों व इनपुट/आउटपुट संपादकों आदि का नाम लिया जा सकता है। 

इसी तरह टीवी के प्रमुख बहस कार्यक्रमों के हर चार एंकरों में तीन ऊंची जाति के पाए गए। उनमें से एक भी दलित, आदिवासी या ओबीसी नहीं था। इस बात से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब न्यूज़ रूम में बहस करने वाले और बहस कराने वाले एक ही विशेष जाति के होंगे तो वह अन्य जातियों के प्रति क्या ईमानदारी दिखाएंगे। वहीं, 70 फीसदी उच्च जाति के लोगो को ही कार्यक्रमों में पैनलिस्टों के तौर पर शामिल किया जाता है। प्रिंट मीडिया में भी यही हाल देखने को मिला। अंग्रेजी अख़बारों में प्रकाशित लेखों में से महज 5 फीसदी लेख दलितों और आदिवासियों द्वारा लिखित थे। हिंदी अख़बारों में लगभग 10 प्रतिशत लेख इसी वर्ग के लेखक और पत्रकारों ने लिखे थे। हिंदी और अंग्रेजी समाचार-पत्रों में​​ जाति से जुड़े मुद्दों पर लिखने वालों में दलित और आदिवासी समाज के आधे से भी कम पत्रकार शामिल रहे।

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गहनता से देखें तो पाएंगे कि ऐसा कोई मीडिया संस्थान नहीं बचता जहां जातिवाद पैर पसारे न पड़ा हो। मेरा व्यक्तिगत मानना था कि बीबीसी (ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कंपनी) जैसे न्यूज़ संस्थान में तो जाति आसपास भी नहीं होगी लेकिन मैंने पाया कि साल 2019 में बीबीसी में बतौर ब्रॉडकास्ट जर्नलिस्ट काम करने वाली एक दलित महिला पत्रकार मीना कोटवाल ने बीबीसी पर आरोप लगाया कि उन्हें न्यूजरूम में सिर्फ इसीलिए भेदभाव का सामना करना पड़ा क्योंकि वह दलित समाज से आती थीं। आज मीना खुद का मीडिया संस्थान ‘द मूकनायक’ चला रही हैं। द न्यूज़ बीक, दलित दस्तक, दलित डेस्क जैसे कई मीडिया संस्थान हैं जो आज बेहतरीन काम कर रहे हैं, वंचितों और हाशिये की आवाज़ बनकर उनके मुद्दे सामने ला रहे हैं।

यह स्पष्ट है कि एक शताब्दी बीत जाने के बाद भी न तो वंचितों का कोई अपना खुद का मीडिया खड़ा हो पाया है और न ही मुख्यधारा के मीडिया में उनकी कोई जगह है। बाबा साहब आंबेडकर ने भी विरोध स्वरूप अपनी पत्र-पत्रिकाएं निकाली थीं। निजी स्तर और कुछ संगठन अपने स्तर पर छोटे-छोटे न्यूज पोर्टल, यूट्यूब चैनल, पत्रिकाएं आदि आज भी चला रहे हैं। सबसे बड़ा सवाल यही है कि शताब्दी से ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी वंचितों का कोई अपना मीडिया नहीं है। इस जयंति आंबेडकर हम सभी से आंख में आंख डालकर यही सवाल कर रहे हैं, जिसका जवाब देने में हम असफल हैं।

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तस्वीर साभार: News18

संदर्भ

मूकनायक, पृष्ठ 34

ऑक्सफैम इंडिया, न्यूजलॉन्ड्री

डॉ. आंबेडकर के लेख एवं वक्तव्य, हिंदी, खंड-1, पेज-250-251)

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