हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जहां हर तीन में से एक महिला ने अपनी लैंगिक पहचान की वजह से जीवन में कभी न कभी अपने साथ हिंसा का सामना किया है। दुनिया में महिलाओं और लड़कियों के ख़िलाफ़ होनेवाली शारीरिक और यौन हिंसा सबसे प्रचलित मानवाधिकार उल्लघंन में से एक है। एक सच यह भी है कि महिलाएं अपने साथ होनेवाली हिंसा के ख़िलाफ़ चुप्पी साधे रखती हैं। कई बार जब आरोपी उनके परिचित हो तो वे बरसों-बरस हिंसा की घटनाओं का सामना कर उसे अपने जीवन का सच मान बैठती हैं। बड़ी संख्या में महिलाएं कानूनी कार्रवाई करने से पीछे हटती हैं। हमारे समाज के ताने-बाने में ऐसी क्या वजहें हैं जिससे महिलाएं अपने ख़िलाफ़ होनेवाली हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज नहीं उठा पाती हैं, आइए जानते हैं।
लोग क्या कहेंगे?
भारतीय पितृसत्तामक समाज में हिंसा के बारे में बात करना ‘बेशर्मी’ से भी जोड़ा जाता है। अगर कोई महिला अपने साथ होनेवाली हिंसा का ज़िक्र करती है तो उसके घर-परिवार के लोग ही उसे सबसे पहले चुप रहने की हिदायत देते हैं। भारत में महिलाओं और लड़कियों को घर की ‘इज़्जत’ के रूप में देखा जाता है। अगर उनके साथ कुछ होता है तो उसे घर की ‘शान’ के ख़िलाफ़ मानते हैं। अपमान शुरुआती कारणों में से एक है जिसकी वजह से महिलाएं यौन उत्पीड़न के बारे में बात करने से हिचकिचाती हैं।
लोगों में उनकी पहचान सिर्फ हिंसा के एक सर्वाइवर के रूप में सीमित कर दी जाती है। अमूमन हमारे आसपास के माहौल में यह चलन है कि जिस महिला के साथ हिंसा होती है हिंसा को उसकी पहचान बना देते हैं। सामान्य बोलचाल में ‘उसके साथ ब्लात्कार हुआ है’ या ‘उसके साथ उत्पीड़न हुआ’ जैसे वाक्यों का इस्तेमाल होता है। इससे अलग विक्टिम ब्लेमिंग यानी सर्वाइवर पर ही उसके साथ हुई हिंसा के होने का दोष दे दिया जाता है। महिलाओं और लड़कियों के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा के बारे में लोगों के व्यवहार के बारे में सोचकर सर्वाइवर बोलने से हिचकती हैं। ‘लोग क्या कहेंगे’ का डर इतना होता है कि महिलाएं जीवनभर अपने साथ होने वाली हिंसा को सहती रहती हैं या उसे भूलाकर आगे बढ़ जाने का फैसला लेती हैं।
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जब महिलाओं के कपड़ों में दोष ढूढ़ने और उसके बाहर आने-जाने वाले समय को हिंसा का कारण बताया जाएं तो सर्वाइवर इसमें अपनी ही गलती मानती है। शारीरिक और यौन हमलों का सामना करने वाली सर्वाइवर शर्म की वजह से अक्सर अपने साथ होने वाले अनुचित व्यवहार के लिए खुद को दोषी ठहराती है। समाज में सर्वाइवर पर ही दोष ड़ालने की अवधारणा भी अहम वजह है कि वह हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने से परहेज करती है।
खुद को आरोपी मानना
जब महिलाओं के कपड़ों में दोष ढूढ़ा जाए और उनके बाहर आने-जाने के समय को हिंसा का कारण बताया जाए तो सर्वाइवर इसमें अपनी ही गलती मानती हैं। शारीरिक और यौन हमलों का सामना करने वाली सर्वाइवर शर्म की वजह से अक्सर अपने साथ होनेवाली हिंसा के लिए खुद को दोषी ठहराती है। समाज में सर्वाइवर पर ही दोष डालने की अवधारणा भी अहम वजह है कि वह हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने से परहेज करती है। अक्सर देखा गया है कि उसकी आवाज़ाही पर सवाल करने की वजह से सर्वाइवर खुद के वहां जानने पर सेल्फ ब्लेम करती है कि मैं वहां गई ही क्यों थी। इस तरह के अनुभव महिलाओं को सामने आकर हिंसा का विरोध करने से रोकते हैं। भावनात्मक रूप से खुद को अकेला मानने की वजह से वह अपने साथ होनेवाले शोषण में खुद का दोष खोज लेती हैं।
बदला लेने का डर
लड़की के साथ बलात्कार की हिंसा होती है, उसके परिवारवालों को जेल में डाल दिया जाता है और परेशान किया जाता है। उन पर केस वापस लेने का दबाव डाला जाता है। बलात्कार की एक सर्वाइवर के साथ इस तरह का व्यवहार साल 2017 में उन्नाव रेप केस में हमने देखा है। यह कोई इकलौता उदाहरण नहीं है। हमारे समाज में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जहां यौन हिंसा का विरोध करनेवाली महिलाओं के परिवार को निशाना बनाकर उन्हें केस दर्ज करने से रोका गया है। केस दर्ज होने पर बदले की कार्रवाई में परिवार के अन्य सदस्यों के साथ गलत बर्ताव होने से बचने के लिए भी महिलाएं और लड़कियां चुप रह जाती हैं। इसी तरह उनके निर्णय लेकर केस करने के ख़िलाफ़ उन्हें धमकाया जाता है, अन्य लोगों को मारने की धमकी तक दी जाती है। परिवार के सदस्यों की जान का डर एक प्रमुख कारण है कि सर्वाइवर यौन हिंसा का विरोध नहीं कर पाती हैं।
आर्थिक और सामाजिक स्थिति
आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर न होने की वजह से महिलाओं की आर्थिक स्थिति कमज़ोर होती है। ठीक इसी तरह उनकी सामाजिक स्थिति भी इसमें बहुत मायने रखती है। केस में होने वाले खर्च का वहन न करने की वजह सर्वाइवर पीछे हटती है। लंबे केस चलने की वजह से वकीलों की फीस आदि के अन्य खर्चें के लिए परिवार वाले भी तैयार नहीं होते हैं। यदि सर्वाइवर दलित, बहुजन, आदिवासी या अन्य हाशिये पर गए समुदाय से आती है तो वह शोषण के विरोध करने की स्थिति में सबसे पीछे होती है। जाति व्यवस्था, आर्थिक स्थिति और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता जैसे कई कारण हैं जो सर्वाइवर को न्याय से दूर करते हैं।
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न्याय की प्रक्रिया लंबी होने की वजह से उस पर आर्थिक भार तो पड़ता ही है साथ ही महिलाओं के कोर्ट-कचहरी में आना-जाना रूढ़िवादी समाज में अच्छा नहीं माना जाता है। कचहरी जाने वाली महिलाओं को बुरी नज़र से देखा जाता है। उन्हें सामाजिक आलोचनाओं का भी सामना करना पड़ता है।
पुलिस व्यवस्था और कानूनी जागरूकता
महिलाओं के द्वारा यौन हिंसा के ख़िलाफ़ केस दर्ज न करने का एक महत्वपूर्ण कारण सिस्टम है। सबसे पहले तो महिलाओं में अपने अधिकारों को लेकर कम जागरूकता देखने को मिलती है। जानकारी न होने की वजह से वे न्याय पाने के अधिकार को नहीं जान पाती हैं। दूसरा, यदि कोई महिला केस दर्ज करवाने जाती है तो कई मामलों में पुलिस स्टेशन में ही उसे दोबारा यौन हिंसा का सामना करना पड़ा है। इस तरह की घटनाओं के उदाहरण महिलाओं को शिकायत दर्ज करने से पीछे धकेलते हैं।
कोर्ट-कचहरी और महिलाएं
भारतीय न्यायिक प्रणाली में एक सर्वाइवर को इंसाफ के लिए लंबा इंताजार करना पड़ता है। न्याय की प्रक्रिया लंबी होने की वजह से उस पर आर्थिक भार तो पड़ता ही है साथ ही महिलाओं के कोर्ट-कचहरी में आना-जाना रूढ़िवादी समाज में अच्छा नहीं माना जाता है। कचहरी जाने वाली महिलाओं को बुरी नज़र से देखा जाता है। उन्हें सामाजिक आलोचनाओं का भी सामना करना पड़ता है। इस तरह वह इन सबसे दूर ही रहना चाहती हैं। यह सच है कि कभी किसी पुरुष को नियमित रूप से केस की सुनवाई के लिए अदालत जाने को समाज में अपमानजनक नहीं माना जाता है लेकिन वहीं महिला का अदालत जाना, वकीलों से मिलना एक बड़ी चुनौती है। महिलाओं को केस लड़ने के लिए अक्सर उनके साथ घर-परिवार के कोई न कोई अन्य पुरुष सदस्य साथ रहता है। इस तरह की स्थिति में महिला और उसके परिवार पर केस लड़ने के फैसला न केवल आर्थिक रूप से बल्कि सामाजिक और व्यवहारिक रूप से भी बहुत गंभीर स्थिति बन जाती है।
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तस्वीर साभारः श्रेया टिंगल फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए