खरगुपुर गाँव के इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़नेवाली श्रेया बड़ी होकर सिविल सर्विस में जाना चाहती है। श्रेया पढ़ाई में बहुत अच्छी है और उसके घरवाले उसकी पढ़ाई-लिखाई में उसका पूरा समर्थन भी करते हैं। वहीं, भदोही ज़िले के कछवा गाँव में रहनेवाली निधि बड़ी होकर अपने पिता की ही तरह सफ़ल डॉक्टर बनना चाहती है। श्रेया और निधि बनारस ज़िले से क़रीब चालीस-पैंतालीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित गाँवों में रहती हैं। पढ़े-लिखे परिवारों से ताल्लुक़ रखनेवाली श्रेया और निधि जैसी कई लड़कियां हैं जिनकी ज़िंदगी के कुछ लक्ष्य हैं, उनके अपने कुछ सपने हैं।
कुछ करने और आगे बढ़ने के ये ‘सपने’ बहुत अजीब और कई बार ये बहुत ख़ूबसूरत होते हैं। जब भी हम कोई सपना देखते हैं तो यह हम लोगों की ज़िंदगी में नई उमंग भरता है और कुछ करने की ललक पैदा करता है। जब भी मैं श्रेया या निधि जैसी लड़कियों से मिलती हूं, उन्हें देखकर यही लगता है कि कैसे सपने एक इंसान को एक नया रूप दे देते हैं। वह रूप जिसमें जीने का मक़सद होता है और उनके अपने अस्तित्व की बात होती है।
लेकिन क्या आप जानते हैं आज भी आधी आबादी का बड़ा हिस्सा ऐसा भी है, जिसके अपने कोई सपने नहीं हैं। इन्होंने कभी भी अपनी माँ, चाची, दादी, नानी, बुआ, बहन या अपने बस्ती की किसी भी महिला को सपने देखते नहीं देखा है। जिन गाँवों में श्रेया और निधि रहती हैं, उन्ही गाँवों की मुसहर बस्ती में रहनेवाली अट्ठारह वर्षीय करिश्मा से जब मैंने उसके सपने को लेकर बात की तो उसने कहा, “दीदी हमलोगों का क्या सपना? जो माई-बाप कहेंगे वही करेंगे।”
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क्या आप जानते हैं आज भी आधी आबादी का बड़ा हिस्सा ऐसा भी है, जिसके अपने कोई सपने नहीं हैं। क्योंकि उसने कभी भी अपनी माँ, चाची, दादी, नानी, बुआ, बहन या अपने बस्ती की किसी भी महिला को सपने देखते नहीं देखा है।
करिश्मा पढ़ना चाहती थी, लेकिन उसे कभी स्कूल नहीं भेजा गया यह कहते हुए कि मुसहर लड़कियां स्कूल नहीं जाती हैं। लेकिन उसके भाई ने सरकारी स्कूल से पांचवी तक की पढ़ाई की। उसके बाद वह पढ़ाई छोड़कर मज़दूरी का काम करने लगा। लेकिन करिश्मा को आज तक वह अवसर भी नहीं मिला। करिश्मा की बस्ती में रहनेवाली चौदह वर्षीय प्रिया से भी जब मैंने उसके सपने को लेकर बात की तो वह कहती है, “हमारे यहां काम से फुर्सत ही नहीं मिलती है कि हम लोग सपना देखें। सुबह घर का काम निपटाकर मम्मी के साथ खेत में मज़दूरी करने जाते हैं। उसके बाद घर आकर दोपहर के वक्त बकरी चराने जाते हैं, फिर शाम को खाना बनाने का समय हो जाता है। फिर समय ही नहीं मिलता है।”
लड़कियों और महिलाओं के सपने को लेकर मैंने अलग-अलग गाँव की मुसहर बस्ती में रहनेवाली महिलाओं और लड़कियों से बात की। खरगुपुर की पंद्रह वर्षीय पूजा से जब मैंने बात की तो उसका ज़वाब सबसे ज़्यादा चौंका देनेवाला था। पूजा ने कहा, “दीदी हम अच्छे घर में शादी करना चाहते हैं।” जब इस अच्छे घर के बारे में मैंने पूजा से और बात ही तो उसने बताया कि ऐसा घर जहां, खाने की दिक़्क़त न हो, दो वक्त का भरपेट खाना मिले और मारपीट न हो। पूजा की इस बात से ऐसा लगा कि जैसे वह अच्छे लड़के से नहीं बल्कि अच्छे घर से शादी का सपना देखती है, जहां उसको खाना मिले और हिंसा न सहनी पड़े। इन सपनों के बारे में सुनकर जब आप इसे समझने की कोशिश करेंगे तो पाएंगे कि जीवन की बुनियादी सुविधाओं के अभाव में इन लड़कियों के पास सपने देखने का न वक़्त है न विशेषाधिकार।
मैंने बस्ती की महिलाओं से जब बात ही उनमें अधिकतर महिलाओं का अपने सपनों को लेकर यह ज़वाब था कि अब उन लोगों क्या सपना होगा। वे बस यही चाहती हैं कि बच्चों की शादी अच्छे घर में हो जाए और उनको दो वक्त का खाना मिले। रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी सुविधाओं के अभाव में ज़िंदगी गुज़ारनेवाले मुसहर बस्ती के लोगों के लिए सपने की सीमा यहीं खत्म हो जाती है।
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जिस खरगुपुर गाँव की श्रेया इंग्लिश मीडियम में पढ़कर सिविल सर्विस में जाना चाहती है, उसी खरगुपुर की मुसहर बस्ती में रहनेवाली पूजा का सपना सिर्फ़ दो वक्त की रोटी और हिंसा से निजात पाने का है। इस उदाहरण है हम अपने समाज की जाति और वर्ग आधारित भेदभाव की व्यवस्था को अच्छी तरह समझ सकते हैं, जहां सपने देखना भी किसी भी विशेषाधिकार से कम नहीं है।
शिक्षा का अधिकार
शिक्षा एक बड़ा अधिकार है, जो किसी भी इंसान को उसके आत्मसम्मान और अधिकार का एहसास करवाता है, ऐसे में जब लड़कियां इस अवसर से पीछे रह जाती हैं तो इसका प्रभाव उनके सपनों पर भी पड़ता है। इन्होंने कभी भी अपनी किसी भी पीढ़ी की महिला को पढ़ते या सपने देखते नहीं देखा है, जिसके चलते वे भी उसी अशिक्षा के रास्ते पर चलने को मजबूर होती हैं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता गरीबी और जातिगत शोषण का चक्र भी उन्हें आगे नहीं बढ़ने देता।
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ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की दोहरी मार
पितृसत्ता हमेशा महिलाओं को पुरुषों से कमजोर बनाकर रखना चाहती है और उन्हें हर उस अवसर से दूर करती है। यही वजह है कि लड़कियों और महिलाओं को सपने की कल्पना से भी दूर रखा जाता है और अगर वे कभी कोशिश भी करती हैं तो उन्हें उनके महिला होने या फिर तथाकथित निचली जाति से ताल्लुक़ रखने के नाम पर पीछे खींच लिया जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि उन पर ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की हिंसा की मार कर गुना बढ़ जाती है।
भेदभाव से भरे समाज में सपनों का विशेषाधिकार
जिस खरगुपुर गाँव की श्रेया इंग्लिश मीडियम में पढ़कर सिविल सर्विस में जाना चाहती है, उसी खरगुपुर की मुसहर बस्ती में रहनेवाली पूजा का सपना सिर्फ़ दो वक्त की रोटी और हिंसा से निजात पाने का है। इस उदाहरण है हम अपने समाज की जाति और वर्ग आधारित भेदभाव की व्यवस्था को अच्छी तरह समझ सकते हैं, जहां सपने देखना भी किसी भी विशेषाधिकार से कम नहीं है। खास़कर तब जब बात किसी महिला या लड़की की हो। समाज ने ऐसी व्यवस्था को बनाया है, जहां सपने देखना हर किसी के बस की बात नहीं है।
हाल ही में, यूपी बोर्ड के दसवीं और बारहवीं कक्षा के रिज़ल्ट आए, परीक्षा में पास हुई लड़के-लड़कियों के कई सपने हैं। लेकिन वे लड़कियां जिन्होंने कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा और न कभी हाथों में किताबें ली उनके तो सपने ही नहीं हैं। वे शिक्षा और विकास के हर अवसर से दूर रह जाती हैं। उनका गरीब होना या तथाकथित निचली जाति से ताल्लुक़ रखना उनके संघर्ष को बढ़ा देता है। ये उन्हें सपने देखने की इजाज़त नहीं देते हैं। सपने, ज़िंदगी के लिए बहुत ज़रूरी हैं और जब हम महिलाओं के बारे में सोचते हैं तो ये और भी ज़रूरी लगते हैं। लेकिन ये सपने भी अपने जातिवादी समाज में किसी विशेषाधिकार से कम नहीं हैं।
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तस्वीर साभार: मुहीम