जब-जब कोई महिला अपना जीवन अपनी शर्तों, अपनी पसंद से जीना चुनती है तो भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में भूचाल आ जाता है। महज़ एक महिला द्वारा निजी फैसले लेने के बाद से उसके ख़िलाफ़ आवाज़ें उठने लगती हैं। हाल में जैसे ही सोशल मीडिया पर अभिनेत्री सुष्मिता सेन और ललित मोदी की एक-दूसरे के साथ रिलेशनशिप में होने और डेट करने की बात सामने आई तो इंटरनेट महिला-विरोधी जजमेंट्स से भर गया। चौंकानेवाली प्रतिक्रियाओं से आगे बढ़ते हुए इन दोंनो के रिश्ते पर सोशल मीडिया की दुनिया में जो कमेंट्री होनी शुरू हुई उसमें दोंनो की उम्र, काम पर मज़ाक बनाने के साथ-साथ सुष्मिता सेन को लेकर बेहद भद्दी भाषा का इस्तेमाल किया गया। ऐसा पहली बार नहीं है, ख़ासतौर पर अभिनेत्रियों को उनकी निजी रिश्ते को लेकर ट्रोल करने का इंडियन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर एक ट्रेंड बन गया है।
सोशल मीडिया पर बड़ी संख्या में लोगों की प्रतिक्रियाओं में सुष्मिता सेन के चरित्र पर सवाल उठने शुरू हो गए। उनको लेकर कई भद्दी और गलत बातें कही जा रही हैं। उनकी उम्र और उनके एक के बाद एक रिलेशनशिप स्टेटस पर उंगलियां उठाई जा रही हैं। आम इंसान से लेकर कुछ ख़ास लोगों तक ने सुष्मिता के रिश्ते पर अपनी राय जाहिर करते हुए उनकी आलोचना की है। ट्विटर में #SushmitaSenLalitModi के हैशटैग के साथ उनके रिश्ते पर फब्तियां कसी जा रही हैं। यही नहीं, सुष्मिता के लिए लालची और गोल्ड डिगर जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जा रहा है। अगर आप इस ट्रेंड पर जाएंगे तो आपको दिखेगा कि लोग कितनी आसानी से मानते हैं कि औरतें कैसे मर्दो से पैसों के लिए प्यार करती हैं। शादी, रिलेशनशिप केवल उनके लिए गोल्ड डिंगिंग का ज़रिया होता है। वे बेचारे मर्दों को प्यार के जाल में फंसाती हैं।
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यह पितृसत्ता की बनाई धारणा है कि पुरुष ही महिलाओं का खर्च उठाते हैं, वे महिलाओं से ज्यादा कमाते हैं और महिलाएं आर्थिक रूप से पुरुषों पर आश्रित होती हैं। इसी तरह अमीर मर्द को साथी के तौर पर चुनना महिलाओं के लिए एक साधन है जिससे वे अपनी जिंदगी सुख-सुविधा से गुजार सकें।
लंबी पोस्ट लिख आलोचकों को दिया जवाब
सोशल मीडिया पर इस हंगामे के बाद सुष्मिता सेन ने इंस्टाग्राम पर एक लंबी पोस्ट लिखते हुए अपने आलोचकों को जवाब दिया है। सेन ने अपनी एक तस्वीर जारी करते हुए लिखा है, “मेरा अस्तित्व और अंतरआत्मा में मैं पूरी तरह से केंद्रित हूं। मैं पसंद करती हूं कैसे प्रकृति अपनी सारे क्रिएशेन को एकता में विलीन करने का एहसास कराती है। जब हम उस संतुलन को तोड़ते हैं, तो हम कितने अलग होते हैं। यह देखकर मेरा दिल टूटता है कि हमारे आसपास की दुनिया कितनी दुखी और नाखुश होती जा रही है। तथाकथित बुद्धिजीवी अपनी मूर्खता के साथ, अज्ञानी लोग अपनी घटिया और मज़ाकिया गॉसिप्स के साथ। वे लोग जो मेरे कभी दोस्त भी नहीं थे, जो मुझे जानते तक नहीं, वे भी मेरे बारे में बड़े-बड़े विचार और मेरे चरित्र के बारे में जानकारी शेयर कर रहे हैं। मुझे गोल्ड डिगर कह रहे हैं। ये लोग कितने जीनियस हैं।”
सुष्मिता सेन ने आगे लिखा, “मैं सोने से भी ज्यादा गहरा खोदती हूं। मैंने हमेशा से हीरे को अधिक महत्व दिया है जिसके लिए मैं मशहूर भी हूं। आज भी मैं खुद के लिए हीरे खरीदती हूं। जो मुझे पसंद करते हैं, मुझे अपने शुभचिंतकों और प्रियजनों का पूरा समर्थन मिला है। आप लोग जान लीजिए कि आपकी सुश बिल्कुल ठीक है। क्योंकि मैं कभी भी तालियों की क्षणिक रोशनी में नहीं रही हूं। मैं सूर्य हूं जो पूरी तरह से मेरे अस्तित्व और विवेक में केंद्रित है।”
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यह पितृसत्ता की बनाई धारणा है कि पुरुष ही महिलाओं का खर्च उठाते हैं, वे महिलाओं से ज्यादा कमाते हैं और महिलाएं आर्थिक रूप से पुरुषों पर आश्रित होती हैं। इसी तरह अमीर मर्द को साथी के तौर पर चुनना महिलाओं के लिए एक साधन है जिससे वे अपनी जिंदगी सुख-सुविधा से गुजार सकें। लेकिन यही पितृसत्तात्मक समाज है जो महिलाओं को बाहर निकलने, काम करने से रोकता है। अगर वे कामयाब हो जाती हैं तो उनकी कामयाबी को नकारता है। उन्हें समान काम के कम पैसे देता है।
इंटरनेट पर हमेशा ऐसी महिलाओं की आलोचना की जाती हैं जो अपने साथी का चुनाव खुद करती है। लोग उनके लिए अपने बने पूर्वाग्रह जाहिर करते हैं जिसमें साथी के धनी होने, उम्र में अंतर होने को उसका लालच से जोड़ देते हैं। यही नहीं जब तक एक महिला-पुरुष की शादी नहीं होती है तो उनके रिश्ते को संदेह की नज़रों से देखते हैं। महिलाओं को लालची कहते हैं। गोल्ड डिगर की बात करने वाले ये लोग उसी भारतीय संस्कृति की दुहाई देते है जहां पारंपरिक शादियां बिना दहेज के संभव नहीं होती है और हर दिन कई महिलाएं दहेज की वजह से अपनी जान गवां देती हैं।
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क्यों महिलाएं ही हैं ‘गोल्ड डिगर’
अक्सर डेट करने वाले कपल्स में महिलाओं को गोल्ड डिगर का तमगा दे दिया जाता है। पुरुष खुद को बेचारा और ठगा हुआ बताकर महिलाओं को चालाक और जोड़-तोड़ करनेवाला बताते हैं और डेटिंग इसका सबसे पहला जरिया है। यह महिलाओं के रिश्ते को लालच कहकर उनकी भावनाओं को नकारता दिखता है। महिलाओं की ऐसी छवि पेश की जाती है कि वे पैसे को महत्व देती हैं।
गोल्ड डिगर क्या है? इस सवाल का जबाब खोजते हुए इंटरनेट पर जो अर्थ निकलता है वह इस तरह है कि गोल्ड डिगर शब्द एक व्यक्ति के इस्तेमाल होता है। आमतौर पर महिलाओं के लिए प्रयोग किया जाता है। यह उन महिलाओं के लिए इस्तेमाल होता है जो प्यार के रिश्ते में पैसे और लेने-देने के लिए जुड़ी होती है। अगर यह रिश्ता शादी में बदलता है तो उसे सुविधा कहा जाता है। हमारे आसपास के माहौल में यह परिभाषा पूरी तरह महिलाओं पर लागू की जाती है पुरुषों के सामने ऐसी स्थिति कभी नहीं आती है।
अगर रिलेशनशिप में एक पार्टनर के उम्र से बड़े या अधिक कामयाब होने पर केवल महिला को ही निशाना बनाया जाता है। गोल्ड डिगर पर भारतीयों की महिला विरोधी सोच को समझने के लिए बॉलीवुड की कुछ चर्चित शादियों पर नज़र डाले तो स्थिति समझ में आती है। विक्की कौशल और कैटरीना कैफ में कैटरीना एक बड़ी और सफल हीरोइन हैं। इन दोंनो की रिलेशनशिप और शादी के बाद कभी भी विक्की के लिए गोल्ड डिगर या लालची नहीं कहा गया। थोड़ा पीछे जाकर याद करें तो जब सैफ अली खान और अमृता सिंह की शादी हुई थी तो अमृता, सैफ के मुकाबले एक बड़ी कामयाब हीरोइन थीं लेकिन सैफ को किसी ने गोल्ड डिगर नहीं कहा था। इस तरह की सोच केवल महिलाओं के लिए ही इस्तेमाल होती आ रहा है। हमारे रूढ़िवादी महिला विरोधी समाज में महिलाओं को लालची बहुत आसानी से कह दिया जाता है। पुरुष के लिए यहां ऐसी कोई जवाबदेही नहीं होती है।
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क्यों प्यार में उम्र को बनाया जाता है निशाना
भारतीय संस्कृति के प्रचारकों की माने तो प्यार करने का एक तरीका होता है, एक उम्र होती है उससे अलग जो भी चलता है वह सरासर गलत होता है। इसलिए ट्विटर पर एक बड़ी फौज दोंनो की उम्र को लेकर बहुत परेशान दिख रही है। सुष्मिता सेन और ललित मोदी की उम्र के अंतर पर बेहद घटिया मीम बनाकर शेयर किए जा रहे हैं। नौजवान लोग सुष्मिता की पसंद की मज़ाक बनाकर महिलाओं के लिए यह कह रहे हैं कि औरतों को अब बूढ़े पसंद आ रहे हैं, उम्र मायने नहीं रखती पैसा मायने रखता है, उनका जिम जाना बेकार है सिक्स डिजिट बैंक बैलेंस चलता है, सिक्स ऐब्स नहीं जैसी बातें कही जा रही हैं।
भारत में एक महिला अपने से कम उम्र के पुरुष के साथ रहती है तो समाज उसे ‘बच्चे को बरगला’ लिया जैसी भाषा का इस्तेमाल करता है और अगर पुरुष की उम्र ज्यादा होती है तो उसे उसकी दौलत और शोहरत को प्यार की वजह बनाता है। इससे पहले प्रियंका चोपड़ा और हाल में आलिया भट्ट के लिए भी इसी तरह की भाषा का इस्तेमाल किया गया था। वहीं, पुरुष के लिए ये सब मानदंड नहीं है। इस पूरी ट्रोलिंग में महिलाओं से ही सवाल किए जाते हैं, उनकी आलोचना होती है और उनके फैसले का मज़ाक बनाया जाता है।
कुल मिलाकर एक महिला किसे डेट कर रही है, उसकी पसंद क्या है उसे बहस का मुद्दा बना दिया जाता है। उम्र का अंतर बताकर उसे अवसरवादी बताया जाता है। इससे साफ़ ज़ाहिर होता है भारतीय रूढ़िवादी लोग महिला के चयन के अधिकार के ख़िलाफ़ है। वे महिलाओं की पसंद की मोरल पुलिसिंग कर उससे नीचा दिखाते हैं साथ ही समाज में यह संदेश देने की भी कोशिश की जाती है कि खुद की पसंद से आगे बढ़ना आपकी मज़ाक बनाता है और आपको विरोध का सामना करना पड़ेगा।
गोल्ड डिगर क्या है? इस सवाल का जबाब खोजते हुए इंटरनेट पर जो अर्थ निकलता है वह इस तरह है कि गोल्ड डिगर शब्द एक व्यक्ति के इस्तेमाल होता है। आमतौर पर महिलाओं के लिए प्रयोग किया जाता है। यह उन महिलाओं के लिए इस्तेमाल होता है जो प्यार के रिश्ते में पैसे और लेने-देने के लिए जुड़ी होती है।
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मीडिया के लिए यह केवल एक सनसनी है
सुष्मिता सेन का केस हो या फिर इससे पहले हुई इस तरह की अन्य घटनाएं इसके परिपेक्ष में भारतीय मीडिया की बात करें तो उसका कवरेज बिल्कुल ट्विटर ट्रोल्स की बोली बोलता नज़र आता है। हिंदी मीडिया में सुष्मिता सेन को लेकर जिस तरह की ख़बरे इस समय सामने आ रही हैं उनकी भाषा और कॉटेंट पर गौर करना बहुत ज़रूरी है। क्लिकबेट्स के बाज़ार में मीडिया महिला विरोधी भाषा का इस्तेमाल करता नज़र आता है। वह अभिनेत्री की हॉट तस्वीरों, उनकी रिलेशनशिप स्टेट पर स्टोरी कर रहा है। इंटरनेट पर सुष्मिता सेन कीवर्ड डालते ही उनसे जुड़ी ख़बरों को मसाला लगाकर पेश किया जा रहा है। “46 की उम्र में भी बला खूबसूरत लगती है सुष्मिता सेन, सुष्मिता सेन-ललित मोदी की मालदीव वाली प्राइवेट तस्वीरें, इन 7 फोटोज में आर्या ने दिखाया दिलकश अवतार, अबतक सुष्मिता सेन की प्रेम कहानियां “जैसी हेडलाइंस के साथ डिजिटल मीडिया में इस ख़बर को सनसनी बनाया जा रहा है।
मीडिया यहां मुद्दा सुष्मिता सेन को बनाता नज़र आ रहा है जबकि मुद्दा वह नहीं बल्कि एक महिला की पसंद का होना चाहिए। मीडिया को ट्रोल्स की आलोचना करनी चाहिए लेकिन वह खुद ऐसी ख़बरें लिखकर ट्रोल्स की श्रेणी में खड़ा हो जाता है। मीडिया का यह व्यवहार समाज में रूढ़िवादी सोच को बढ़ाने का काम करता है। मीडिया की ऐसी पेशकश महिला की पसंद पर सवाल करती दिखती है। वह खुद, ट्रोल्स की भाषा बोलती दिखती है और सोशल मीडिया की बातों को सही ठहराती दिखती है। जिस तरह के शब्द हेडलाइंट में इस्तेमाल की जाती है वह लोगों ध्यान खींचने के लिए लगाती है जिनमें साफ-साफ महिला की अवमानना छलकती है।
भारतीय समाज में नैतिक-अनैतिक का आचरण महिलाओं पर सबसे पहले और सबसे ज्यादा लादा जाता है। उनके खुद के लिए फैसलों की नीयत को तय कर उनकी आलोचनाओं का ट्रेंड शुरू कर देता है। यही वजह है कि संस्कारों और रिवाजों की बेड़ियां तोड़नेवाली महिलाओं के फैसलों को वह सबसे पहले जज करता है। उन्हें केंद्र बनाकर महिला विरोधी मानसिकता को प्रसारित करता है। आए दिन किसी न किसी मुद्दे में महिलाओं की सोशल मीडिया ट्रोलिंग इस बात का सबूत है। पितृसत्तात्मक सोच से जन्मा यह व्यवहार प्यार और महिला की स्वतंत्रता के ख़िलाफ़ है।
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तस्वीर साभारः Mid Day