इंटरसेक्शनलजेंडर पितृसत्तात्मक समाज की पाबंदियां और लड़कियों का जीवन

पितृसत्तात्मक समाज की पाबंदियां और लड़कियों का जीवन

जब मैं अपने आस-पास की लड़कियों को देखती हूं तो मुझे मेरा बचपन याद आ जाता है। हमें बचपन से सिखाया गया था कि स्कूल से सीधे घर आना है। मैं और कुछ लड़कियां  स्कूल के बाद सीधे घर को ही आती थीं पर बचपना होने के कारण कभी-कभार देर हो जाती थी, जिसके लिए अधिकतर लड़कियों को सज़ा के तौर पर घर में कान पकड़कर उठक- बैठक करवाई जाती थी तो कुछ लड़कियों की पिटाई भी होती थी।

समय एक ऐसी पहेली है जो भविष्य में आगे बढ़ने के साथ-साथ और भी जटिल होती जाती है। यह जटिलता और बढ़ जाती है जब इसका जुड़ाव लड़कियों और महिलाओं से होता है। अगर आप अपने बचपन को याद करें या आज ही के परिपेक्ष्य में देखें तो पाएंगे कि लड़कियां खेल-कूद में भाग तो ले रही हैं लेकिन लड़कों की तुलना में उनकी भागीदारी आउटडोर गेम्स में कम ही दिखती है। अगर हम इसके पीछे की मानसिकता को समझने की कोशिश करते हैं तो पाते हैं कि घरेलू दबाव, समाज द्वारा थोपी गई परंपरा, सुंदर दिखने की होड़, पितृसत्तात्मक सोच आदि ही इसके लिए जिम्मेदार हैं। ये सोच धीरे-धीरे लड़कियों के दिमाग में घर कर जाती हैं जिसके परिणामस्वरूप वे पितृसत्तात्म समाज के अनुसार जीने लगती हैं। 

घर से शुरू होती पाबंदियां

जब मैं अपने आस-पास की लड़कियों को देखती हूं तो मुझे मेरा बचपन याद आ जाता है। हमें बचपन से सिखाया गया था कि स्कूल से सीधे घर आना है। मैं और कुछ लड़कियां  स्कूल के बाद सीधे घर को ही आती थीं पर बचपना होने के कारण कभी-कभार देर हो जाती थी, जिसके लिए अधिकतर लड़कियों को सज़ा के तौर पर घर में कान पकड़कर उठक- बैठक करवाई जाती थी तो कुछ लड़कियों की पिटाई भी होती थी। लड़कियों पर लगे समय की पाबंदी को लेकर जब मैंने 16 के उम्र के सोनू नाम के एक लड़के से पूछा तो उसका जवाब कुछ यूं था, “क्या जरूरत है लड़कियों को शाम में घूमने की किसी लड़के के साथ भाग गई तो हमारी क्या इज्जत बचेगी?” आज भी जब मैं अपने आस-पास इन चीज़ों को देखती हूं तो बड़ी निराशा होती है और तरह-तरह के सवाल मन में आते हैं। जैसे आखिर इन परंपराओं और सवालों का बोझ सिर्फ लड़कियों पर क्यों डाला गया? 

जब मैं अपने आस-पास की लड़कियों को देखती हूं तो मुझे मेरा बचपन याद आ जाता है। हमें बचपन से सिखाया गया था कि स्कूल से सीधे घर आना है। मैं और कुछ लड़कियां  स्कूल के बाद सीधे घर को ही आती थीं पर बचपना होने के कारण कभी-कभार देर हो जाती थी, जिसके लिए अधिकतर लड़कियों को सज़ा के तौर पर घर में कान पकड़कर उठक- बैठक करवाई जाती थी तो कुछ लड़कियों की पिटाई भी होती थी।

कहां थी? किसके साथ थी? क्यों आने में देर हो गई? उम्र के साथ साथ जब लड़कियां बड़ी होती हैं तो इस तरह के सवालों के साथ-साथ इन परंपराओं की बेड़ियों का दायरा भी बड़ा होता जाता है। जैसे अगर लड़कियां बाज़ार जाएंगी तो भाई या पिता को लेकर ही जाएंगी वरना नहीं जाएंगी। अगर कभी अकेले या अपने दोस्तों के साथ गई भी हो तो शाम होने से पहले घर में उनकी उपस्थिति दर्ज हो जानी चाहिए नहीं तो घरवाले कुछ बोले या ना बोलें पड़ोसवाले बेशर्म, बदचलन जैसे अनगिनत टैग से नवाज़ देंगे। हमारे गांवों में आज भी यही देखा जाता है कि स्कूल की पढ़ाई खत्म कर लेने के बाद 14-18 की उम्र की लड़कियों की शादी कर दी जाती है। कुछ की शादी आर्थिक तंगी या तो सामाजिक दबाव के कारण कर दी जाती है और कुछ लड़कियां अगर कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के लिए जद्दोजहद में लगी होती हैं तो किसी न किसी तरीके से उन्हें  भी 18-20 के उम्र के होते ही किसी के गले बांध दिया जाता है। जैसे अगर इस उम्र में उनकी शादी नहीं हुई तो उनका ‘समय’ खत्म हो जाएगा।

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स्कूल-कॉलेज की पाबंदियां

जब मेरा दाखिला कॉलेज में हुआ तो वहां पर भी हॉस्टल में समय से अपने आप को कमरे में कैद कर लेना ज़रूरी होता था। आज भी मेरी यूनिवर्सिटी में लड़के और लड़कियों के हॉस्टल का टाइम 10 बजे तक है लेकिन लड़कियों को हॉस्टल के अंदर 10 बजे तक हर हाल में कैद हो जाना होता है। इसके उलट यह नियम लड़कों पर लागू नहीं होता। हाल ही में बीएचयू कि लाइब्रेरी को 24 घंटे खोलने का फैसला लिया गया है। लेकिन लड़कियों के हॉस्टल का बंद होने का समय 10 बजे तक ही है तो आखिर में लड़कियां कैसे इस फै़सले का लाभ उठा सकेंगी।

सुरक्षा के नाम पर रात 10 बजे के बाद लड़कियों को हॉस्टल में कैद करके उन लड़कियों को सुरक्षित रखकर सशक्त बनाने का ड्रामा क्यों किया जाता है। क्या कॉलेज, यूनिवर्सिटी जैसी जगहों पर जेंडर के आधार पर समय की पाबंदी लड़कियों को सशक्त कर पाएगी? देखा जाए तो लड़कियों के साथ हिंसा या किसी तरह की घटना इसलिए नहीं होती कि वे देर रात तक बाहर होती हैं, इस हिंसा के पीछे तो पितृसत्तात्मक सोच है फिर आखिर लड़कियों को ही कैद करके उन्हें सुरक्षित करना, ये किस प्रकार का सामाजिक न्याय है?

जब मेरा दाखिला कॉलेज में हुआ तो वहां पर भी हॉस्टल में समय से अपने आप को कमरे में कैद कर लेना ज़रूरी होता था। आज भी मेरी यूनिवर्सिटी में लड़के और लड़कियों के हॉस्टल का टाइम 10 बजे तक है लेकिन लड़कियों को हॉस्टल के अंदर 10 बजे तक हर हाल में कैद हो जाना होता है। इसके उलट यह नियम लड़कों पर लागू नहीं होता।

न्यू इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक कोच्चि कॉलेज की लड़कियों ने भी ‘फ्रीडम एट नाइट’ की मांग के लिए कुछ लड़कियों ने टाइमिंग को लेकर लगाए गए कर्फ्यू के खिलाफ प्रदर्शन कर रही थीं। प्रदर्शन में शामिल एमिली नाम की एक छात्रा कहती हैं, “मुझे एक दिन शाम 6.30 बजे घर जाना था। मेरे माता-पिता ने नियमों के अनुसार अनुमति लेने के लिए छात्रावास को फोन किया। इसके जवाब में वार्डन ने कहा, “आपकी लड़की को शाम 6.30 बजे के बाद बाहर जाने की कोई ज़रूरत नहीं है। इससे ऐसा लगता होता है जैसे वे महिलाओं को वयस्क नहीं मान रहीं हो।” इसी तरह साल 2020 में दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्राओं ने हॉस्टल की टाइमिंग को लेकर विरोध-प्रदर्शन किया था। बीएचयू में भी ऐसे प्रदर्शन हुए। ये घटनाएं सिर्फ इक्का-दुक्का कॉलेजों तक सीमित नहीं हैं। कॉलेज चाहे किसी भी राज्य का हो, लड़कियों पर लगनेवाली पितृसत्तात्मक पाबंदियां हर जगह मौजूद होती हैं।

और पढ़ें: परिवार और नौकरी के बीच महिलाओं का संघर्ष

नौकरी और शादी के बाद लागू होती पाबंदियां

घर के बाद स्कूल से कॉलेज तक की पढ़ाई के सफर में समय की पाबंदियां यहीं खत्म नहीं होती हैं, बल्कि जीवनभर लड़कियों के साथ चलती रहती हैं। शहरों में लड़कियों की उम्र 20-25 के होने की दुहाई देकर समय पर शादी कर लेने की नसीहत दी जाती है। कुछ लड़कियां शादी की नसीहत को मान लेती हैं, कुछ के साथ ज़ोर-जबरदस्ती की जाती है और कुछ इस नसीहत का विरोध करके अपने पैरों पर खड़े होने की जिद पकड़ लेती हैं। इस जिद को पूरा करने के लिए एक नये मुकाम की तलाश में महानगरों की ओर जाती हैं। इन महानगरों में भी उनकी मुसीबतें कम नहीं होती हैं, एक के बाद एक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

लेकिन एक बात की तसल्ली होती है कि ये लड़कियां अपने पैसे तो कमा पाती हैं नौकरी करके। लेकिन इस पर भी पाबंदी बहुत जल्द लग जाती है, यानी नौकरी करते हुए आज़ादी के ये चंद दिन हीहोते हैं। 30 -32 के उम्र के होते ही इन नौकरीपेशा लड़कियों पर शादी का दबाव आ जाता है। परिवारवालों की तरफ से, उम्र निकल जाने की बात बार- बार थोपी जाती है। अब इस समाज के दबाव में एक न एक दिन इन नौकरीपेशा लड़कियों को भी आना पड़ता है। इस सिलसिले को लेकर मैंने एक नौकरीपेशा लड़की नीलम तिवारी से बात की जो एलआईसी में असिस्टेंट एंप्लॉयी के रूप में काम करती हैं। वह कहती हैं, “क्या किया जाए, समाज के द्वारा बनाए गए ये परंपरागत नियम कानून हैं और हमें इन्हें मानना ही पड़ेगा। माता-पिता भी तो लड़कियों का साथ नहीं देते हैं। वे कभी नहीं कहते हैं कि तुम जब चाहो जिससे चाहो शादी कर सकती हो। नहीं मन है तो अविवाहित होकर भी जीवन व्यतीत कर सकती हो। इस प्रकार के किसी भी तरह की सांत्वना हमें अपने परिवार या दोस्तों से कभी भी मिलती नहीं है, तो शादी करना ही पड़ेगी।”

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नौकरी करती हुई लड़की की जब शादी हो जाती है तो उसकी जिम्मेदारियां दोगुनी रफ्तार से बढ़ने लगती हैं। ऑफिस से छूटते ही घर पर जल्द से जल्द पहुंचने की बेचैनी रहती है क्योंकि देरी होने पर जवाब देना पड़ता है ससुरालवालों को। गांव में तो यह हालत और बुरी है थोड़ी सी भी देर होने पर नौकरीपेशा बहु को खोजने उसके ऑफिस पहुंच जाते हैं उसके घरवाले। इस तरह समय की पाबंदियों के साथ महिलाएं घिसे-पिटे तरीके से अपने जीवन को व्यतीत करती हैं। नाम न बताने की शर्त पर इस मुद्दे पर एक नौकरीपेशा शादीशुदा महिला से बात की तो उनका जवाब था, “बच्चों की परवरिश अच्छे से करने के लिए हमें नौकरी छोड़नी ही पड़ती है और घर संभालना पड़ता है। दोनों में से किसी एक को बच्चे को संभालना तो पड़ेगा ही जब तक कि बेहतरीन चाइल्ड केयर भारत में उपलब्ध नहीं होते हैं।”

नौकरीपेशा औरतों को लेकर अमन (बदला हुआ नाम) कहते हैं, “ये उस महिला की मर्जी है की वह नौकरी करना चाहेगी या नहीं। लेकिन बच्चे और परिवार को तो देखना उसकी जिम्मेदारी ही है।” वहीं राहुल (बदला हुआ नाम) की सोच भी कुछ ऐसी ही थी। वह कहते हैं, “लड़कियों को घर संभालना ही पड़ेगा चाहे वे नौकरी करें या न करें ये उनकी मर्ज़ी होगी। रह गई बात शादी के बाद अकेले यात्रा करने की, तो ऑफिस छोड़कर पति-पत्नी हमेशा एक दूसरे के साथ रहें और साथ में घूमने जाएं, यही हमारे समाज का नियम है और यही दोनों के लिए अच्छा होगा।”

समय को लेकर समाज के पितृसत्तात्मक सोच और बेड़ियों से जकड़ी जिंदगी में महिलाओं के लिए अपने जीवन को अपनी मर्ज़ी के मुताबिक आज़ादी से व्यतीत करने का अवसर ही नहीं मिल पाता है। इस तरह पाबंदियों के बीच भारतीय महिलाओं की जिंदगी किसी तरह चलती है। कुछ अपवाद भी हैं जिनके परिवारवाले समझदार है उन लड़कियों और महिलाओं पर समय की पाबंदियां उतनी नहीं हैं मगर समय के संकरे बिल में सभी महिलाओं को जीना ही पड़ता है। जब समय की पाबंदी महिलाओं पर इस तरह होगी तो महिलाएं और लड़कियां किस तरीके से सशक्त हो पाएंगी?

और पढ़ें: पितृसत्ता की नींव पर टिकी शादी की संस्था ज़िंदगी का अंत और इकलौता लक्ष्य नहीं है


तस्वीर साभार: Live Mint

Comments:

  1. Shubham says:

    काश हर गाँव मोहल्ले में आपकी जैसी सोच रखने वाली लड़कियां होतीं |
    Keep it Up ! महिला उत्थान की दिशा में आपके प्रयासों को देखकर और भी लोग आगे आएंगे।

  2. Lucky pathak says:

    महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र मे सारानीय प्रयास।

  3. Lucky pathak says:

    महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र मे सराहनीय प्रयास।

  4. Supriya Tripathi says:

    Thanks…

  5. Sarala Asthana says:

    यह हमारे समाज की बहुत बड़ी समस्या है ; आधी आबादी की समस्या , पर अफ़सोस इस समस्या से किसी को कोई समस्या नहीं है । महिलाओं का समाजीकरण भी कुछ यूं होता है की गलत चीजे भी गलत नहीं लगती या यूं कहे मान लेनी पड़ती है ।
    आपका लेख सराहनीय है ,जो ये मानते है (महिलाएं) की उनका जीवन ऐसा ही होना है उन्हें ऐसे लेखों की बहुत जरूरत है । 😊

  6. Rashmi says:

    बहुत ही अच्छा प्रयास है बहन महिलाशक्तिकरण के क्षेत्र में👍👍👍👍

  7. Supriya Tripathi says:

    Thanku😊

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