“दूसरों के सामने खुद को ढककर निकलो।”
“ऐसे कपड़े पहनो कि शरीर का प्रदर्शन न हो।”
“औरतों को कपड़े पहनने का ढंग तो ज़रूर आना चाहिए।”
“लड़कियों के कपड़ों से उनका चरित्र पता चलता है।”
महिलाओं के पहनावे और उनके उठने बैठने के ढंग को लेकर आपने भी कभी न कभी ऐसी बातें ज़रूर सुनी होगी। बचपन से ही हमारे समाज में लड़कियों को भारी-भरकम फ़्रॉक और ऊपर से लेकर नीचे तक शरीर को पैक करनेवाले कपड़े पहनाए जाते हैं। बचपन में फ़्रिल वाली फ़्रॉक तो बड़े होने पर कुर्ता-सलवार और शादी के बाद साड़ी। अपने समाज में महिलाओं का पहनावा बहुत ज़्यादा मायने रखता है। हमारा समाज महिलाओं के पहनावे पर कुछ ज़्यादा ही नज़र रखता है।
क्या आप जानते हैं कि पहनावे की गतिशीलता और समाजीकरण की प्रक्रिया में अहम भूमिका है? पहनावे हमारी संस्कृति से प्रेरित होते हैं और संस्कृति समाज के विचार से क्योंकि हमारा भारतीय समाज पितृसत्तात्मक है। इसलिए जब भी बात पहनावे की आती है तो ये जेंडर के आधार पर महिला-पुरुष के पहनावे का ख़ास ध्यान रखता है। तो आइए आज हम बात करते हैं कपड़ों से जुड़े उन पहलुओं के बारे में जो महिलाओं को जेंडर के ढांचे में ढालने और उनकी गतिशीलता को प्रभावित करने का काम करते हैं।
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कपड़ों के डिज़ाइन और महिलाओं की गतिशीलता
जैसा कि हम जानते हैं पितृसत्ता में पुरुषों को महिलाओं के मुकाबले ज्यादा अधिकार और महत्व दिया जाता है। इसलिए पितृसत्तात्मक समाज में पुरुषों की सुविधा, पसंद और गतिशीलता को ख़ास ध्यान में रखते हुए उनके लिए ऐसे कपड़े तय किए गए जो आरामदायक हो। वे आराम से पैंट-शर्ट या धोती-कुर्ता पहन सकते हैं। लेकिन जैसे ही बात महिलाओं की आती है तो समाज अपनी पूरी ऊर्जा और दिमाग़ इस बात पर लगा देता है महिलाओं के लिए कपड़े ऐसे होने चाहिए जो उनकी गतिशीलता को सीमित करें।
बढ़ती, चलती और अपने सपनों के पीछे भागती लड़कियां हमारे समाज को बिल्कुल भी पसंद नहीं हैं। इसलिए उनकी चाल को धीमा करने के लिए बचपन से ही उन्हें ऐसे कपड़े पहनाए जाते हैं जिससे वे कहीं भी आने-जाने में उलझन महसूस करें। फिर वह फ़्रॉक हो, स्कर्ट हो या फिर सूट सलवार या साड़ी हो। इन्हीं कपड़ों को हमारे समाज में महिलाओं के ‘सही’ पहनावा माना जाता है।
जैसे ही बात महिलाओं की आती है तो समाज अपनी पूरी ऊर्जा और दिमाग़ इस बात पर लगा देता है महिलाओं के लिए कपड़े ऐसे होने चाहिए जो उनकी गतिशीलता को सीमित करें।
नियम: सिर से पैर तक कपड़ों से ढके रहना
हम महिलाओं को कपड़ों को लेकर अक्सर यह सलाह दी जाती है कि उन्हें ऐसे कपड़े पहनने चाहिए, जिससे उनके शरीर का एक भी अंग दिखाई न पड़े। इसके लिए सूट-सलवार, साड़ी और बुर्के जैसे अलग-अलग तरह के कपड़ों को महिलाओं के लिए सही बताया जाता है। महिला के शरीर का कपड़ों से ढका रहना, उनकी सुरक्षा के लिहाज़ से भी बहुत ज़रूरी बताया जाता है। इसका उदाहरण हम आए दिन महिलाओं के साथ होनेवाली यौन हिंसा के रूप में देख सकते हैं, जब महिलाओं के कपड़ों को उनके साथ होनेवाली हिंसा का ज़िम्मेदारी बताया जाता है। यह अलग बात है कि जब साठ साल की बूढ़ी महिला और दो महीने की बच्ची के साथ यौन हिंसा और उत्पीड़न की घटना सामने आती है तो सारी दलील किनारे हो जाती है। लेकिन इन तमाम तथ्यों और बहस के बावजूद बचपन से ही हम महिलाओं को इस बात की घुट्टी पिलाई जाती है कि हमेशा ऐसे कपड़े पहनो जिसमें पूरा शरीर ढका रहे। कई बार पूरे शरीर को ढकने के चक्कर में महिलाएं अपने कपड़ों में ही उलझने को मजबूर हो जाती हैं।
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हमारा समाज महिलाओं का चरित्र प्रमाणपत्र देता है। ऐसे में जब भी कोई महिला अपनी पसंद से कपड़े पहनने की कोशिश भी करती है, पूरे समाज की दिक़्क़त जैसे बढ़ने लगती है।
नियम: कपड़े तंग या ढीले नहीं एकदम साइज़ के हो
अगर कोई महिला टाइट कपड़े पहने तो उसे बुरा माना जाता है और उनके पहनावे को अंग प्रदर्शन के जोड़ दिया जाता है। जैसा अक्सर गाँव में लड़कियों के साथ होते देखती हूं, जब वे अपनी पसंद से जींस और टी-शर्ट पहनती हैं तो अक्सर गाँव में ये ताने मारे जाते हैं कि वे अपने शरीर का प्रदर्शन कर रही हैं। कई बार इसे यौन हिंसा का ज़िम्मेदार भी माना जाता है। इसके बाद अगर कोई महिला ढीले कपड़े पसंद करती है तो उसे भी बुरा माना जाता है, क्योंकि इसमें उसके शरीर की बनावट (ख़ासकर स्तन) साफ़ पता नहीं चलते। इसे पितृसत्ता के बताए गए सुंदरता के मानक में बहुत ज़रूरी माना जाता है। इसलिए महिलाओं पर हमेशा ऐसे कपड़े पहनने का दबाव बनाया जाता है जो समाज को परफ़ेक्ट नज़र आता है, जिसमें वे महिलाओं के सभी अंग को औसत रूप से देख पाए। ये पितृसत्ता का महिलाओं की यौनिकता पर ही कंट्रोल है जो पूरी तरह महिलाओं के पहनावे को कंट्रोल करता है।
नियम: कपड़ों में जेब नहीं लटकन ज़रूरी
हम आज भी जब दर्ज़ी के पास कपड़े सिलवाने जाते हैं तो कपड़े में जेब लगवाने के नाम पर दर्ज़ी हम महिलाओं को ऊपर से नीचे देखने लगता है। भारतीय समाज में महिलाओं के लिए डिज़ाइन की गई पारंपरिक पोशाकों में जेब लगवाने की बजाय जगह-जगह सुंदरता के नाम पर ‘लटकन’ लगवाए जाते हैं। जैसा कि पितृसत्ता में पैसे कमाने का काम पुरुषों का बताया गया है, इसलिए महिलाओं के कपड़ों में कभी भी जेब की ज़रूरत समझी ही नहीं जाती। कहीं न कहीं आज भी यह बात समाज के गले नहीं उतरती की महिलाएं भी पैसे कमा सकती हैं और खुद खर्च भी कर सकती हैं, जिसे रखने के लिए उन्हें अपने कपड़ों में पुरुषों की ही तरह जेब की ज़रूरत होती है।
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अगर कोई महिला टाइट कपड़े पहने तो उसे बुरा माना जाता है और उनके पहनावे को अंग प्रदर्शन के जोड़ दिया जाता है। जैसा अक्सर गाँव में लड़कियों के साथ होते देखती हूं, जब वे अपनी पसंद से जींस और टी-शर्ट पहनती हैं तो अक्सर गाँव में ये ताने मारे जाते हैं कि वह अपने शरीर का प्रदर्शन कर रही है। कई बार इसे यौन हिंसा का ज़िम्मेदार भी माना जाता है।
नियम: उम्र के हिसाब से महिला के कपड़े, जैसे चरित्र प्रमाणपत्र
किसी भी तरह की हिंसा में महिला को दोषी करार देना, पितृसत्ता की पुरानी नीति है, जिसका प्रमुख आधार है उनके कपड़े। यह भी पितृसत्ता की तरफ़ से तय किया गया है। इतना ही नहीं, किस उम्र की महिला को किस तरह के कपड़े और किस रंग के कपड़े पहनने हैं, उसका हिसाब भी पितृसत्ता करती है। इन सभी बातों के आधार पर आज भी हमारा समाज महिलाओं का चरित्र प्रमाणपत्र देता है। ऐसे में जब भी कोई महिला अपनी पसंद से कपड़े पहनने की कोशिश भी करती है, पूरे समाज की दिक़्क़त जैसे बढ़ने लगती है।
महिलाओं के पहनावे को लेकर समाज के बनाए ये कुछ ऐसे नियम हैं जो महिलाओं को बचपन से ही जेंडर के ढांचे में ढालने और उनकी यौनिकता और गतिशीलता पर शिकंजा कसने का काम करते हैं। पितृसत्ता के शिकंजे की परतें इतनी मोटी हैं कि उनकी पहचान के बिना इसे चुनौती देना मुश्किल है। इसलिए ज़रूरी है कि आम से दिखनेवाले उन सभी ख़ास पहलुओं को हम समझें जो हमारी रोज़ की ज़िंदगी में पितृसत्ता को मज़बूत करने का काम करते हैं।
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तस्वीर साभार: The Atlantic