घरेलू हिंसा के इर्द-गिर्द एक नयी कहानी पर्दे पर फिर उतारी गई है। इस कहानी में घरेलू हिंसा के परिणाम में दर्शकों के सामने एक नया पहलू रखा गया है जिस पर अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। हम बात कर रहे हैं बीते शुक्रवार ओटीटी प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स पर रिलीज फिल्म ‘डॉर्लिग्स’ की। फिल्म के रिलीज के बाद ट्विटर पर #boycottdarlings ट्रेंड करने लगा। फिल्म में क्या है, क्यों इस पर बैन लगाने की मांग होने लगी और क्यों इसे गलत बताया जा रहा है, आइए जानते हैं।
जसमीत के. रीन द्वारा निर्देशित फिल्म डॉर्लिग्स की कहानी मुंबई की रहनेवाली बदरूनिसा यानी बदरू (आलिया भट्ट) और हमज़ा (विजय वर्मा) के प्यार से शुरू होती है। उसके बाद दोंनो एक-दूसरे से शादी कर लेते हैं। शादी के बाद हमज़ा को शराब की आदत लग जाती है। वह अपनी पत्नी के साथ हर छोटी बात पर घरेलू हिंसा करता है। फिल्म की शुरुआत में वहीं बात दिखाई गई है कि कैसे एक पति अपनी पत्नी को मारता है और एक पत्नी आशा रखती है कि एक दिन “वो बदल जाएंगे।” फिल्म में हर हिंसा भरी रात के बाद एक नयी सुबह दिखाई जाती है। एक पल में हमज़ा उसे सीने से लागाए रखता है दूसरे पल उसका गला घोंटता, उसे मारता दिखता है।
बदरू के बदन पर हर दिन चोट के नये निशान उभरते हैं। जिस चॉल में बदरू रहती है उसी में उसकी माँ शमशु (शेफाली शाह) भी रहती है। बदरू के पिता की मौत बहुत साल पहले हो गई थी। शमशु एक ऐसी माँ है जो बदरू की दोस्त है, उसे जिंदगी के पाठ पढ़ाती है और उसे हमज़ा की हिंसा को खत्म करने के सुझाव देती रहती है। ये सुझाव तंज भरे, हल्के-फुल्के और उसके खुद की जिंदगी में पति के द्वारा हिंसा का सामना करने वाले अनुभव से जुड़े होते हैं, जिसे कॉमेडी में पेश किया गया है। माँ-बेटी की दुनिया में जितना रूढ़िवाद है उतनी ही आशाएं और योजनाएं भी हैं।
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फिल्म में दूसरे हाफ में हमज़ा के किरदार की कुछ बातें जब बदरू दोहराती नज़र आती है तो उससे पुरुषवादी समाज के सेंटीमेंट्स हर्ट हो गए हैं। इसके बाद से सोशल मीडिया पर फिल्म को बॉयकाट करने का एक ट्रेंड चला दिया जाता है। फिल्म पर हिंसा को बढ़ावा देने, पुरुषों के ख़िलाफ़ साजिश का चलन बढ़ाने, जैसी बातें कही जा रही हैं। कई ट्वीट्स में आलिया भट्ट को भारत की एंबर हर्ट कहकर बुलाया जा रहा है।
माँ-बेटी, दोंनो की जोड़ी पूरी फिल्म में समा बांधे रखती है। कहानी आगे बढ़ती है, जिसमे जु़ल्फी (रोशन मैथ्यू) उनका पड़ोसी भी अहम भूमिका में है। वह एक राइटर है जो एक फिल्म लिखना चाहता है। साथ ही साथ वह सेल्समेन का काम भी करता है। वह आगे जाकर शमशु का बिजनेस पार्टनर भी बनना चाहता है। जुल्फी, हमज़ा से अलग एक शांत और औरतों को सम्मान करनेवाले मर्द की भूमिका में है जो बदरू और शमशु की हर योजनाओं में उनका साथ निभाता, एक ‘ऐलाई’ के रूप में नज़र आता है। बदरू के साथ होनेवाली घरेलू हिंसा के बारे में पुलिस को सूचना तक भी देता है।
फिल्म में हमारे आस-पास रह रही लाखों औरतों की कहानी कही गई है जो एक अपमानजनक शादी में बरसों-बरस रहती हैं। वे पति के बदलने के उम्मीद में रहती है। बदरू के मामले में भी ऐसा ही है क्योंकि वह सोचती है कि हमज़ा उसे प्यार करता है और उसका प्यार उसे बदल देगा। वह प्यार और हिंसा के व्यवहार में भरोसा रखकर उसके ख़िलाफ पुलिस शिकायत को वापस ले लेती है। वह हमज़ा से बच्चे का वादा कर एक बार फिर उस शादी में बनी रह जाती है।
फिल्म की शुरुआत में वहीं बात दिखाई गई है कि कैसे एक पति अपनी पत्नी को मारता है और एक पत्नी आशा रखती है कि एक दिन “वो बदल जाएंगे।” फिल्म में हर हिंसा भरी रात के बाद एक नयी सुबह दिखाई जाती है। एक पल में हमज़ा उसे सीने से लागाए रखता है दूसरे पल उसका गला घोंटता, उसे मारता दिखता है।
बदरू के भोले-भाले व्यवहार में पितृसत्ता के कई पहलू दिखाए गए हैं जिसमें वह शराब को ही पति की हिंसा का कारण मानती है। वह मानती है कि शराब छूटने के बाद सब ठीक हो जाएगा। फिल्म में वहीं दिखाया गया है, जैसे समाज में होता है। दुर्व्यवहार की वजह शराब को बताकर पति का पक्ष लिया जाता है। फिल्म में इस पर भी बात करने की ज़रूरत है कि कैसे बदरू अपने बच्चे को खोने के बाद अपने साथ हो रही हिंसा को साफ-साफ समझती है। बदरू अपने साथ होने वाली हिंसा को सही ठहराती नज़र आती है लेकिन मिसकैरेज के बाद उसे हिंसा का एहसास ज्यादा होता है। बच्चे की मौत और मां की ममता वाले पुराने एंगल को यहां दिखाया गया है जिसमें उसे यह एहसास होता है कि जो हो रहा है वह गलत हो रहा है।
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फिल्म में बदरू के किरदार को आशा और निराशा के बीच में लंबे वक्त तक झूलते दिखाया गया है। वह तमाम लड़ाइयों के बाद हर बार बात सुलह पर ले जाती है। एक मौका और आखिर मौका के साथ आखिर में अपने साथ हो रही हिंसा को समझती है और अपनी माँ से कहती है, “मैं चाहती हूं कि वह मेरी इज्जत करे पर इज्जत तो मेरी है तो मैं उससे क्यों मांगती हूं।”
बात अगर शमशु के किरदार की करें तो वह बॉलीवुड की उन माँ के किरदार से अलग है जो डरी, सहमी रहती है। शमशु अपने दर्द और अपने साथ हुई हिंसा को भुलाने के लिए आगे बढ़ने का ही रास्ता चुनती है। शमशु का किरदार स्वतंत्र है, वह लोगों की परवाह करे बगैर खुद का जीवन जी रही है। लेकिन वह तलाक लेने को गलत मानती भी दिखती है। वह अपनी बेटी की एक दोस्त की भूमिका में ज्यादा नज़र आती है जो उसके शराबी पति को छोड़ने के लिए मनाने की कोशिश करती रहती है। वह उसे हमज़ा से अलग होने के लिए कई तरह के सुझाव देती है। वह फिल्म में एक जगह बदरू से कहती है कि, “हमज़ा के खाने में चूहे मारने की दवा मिलाएं, वह जीवन भर शराब पीना छोड़ देगा।”
फिल्म के मुख्य किरदारों में कई तरह के शेड हैं जो कभी बहुत मासूम नज़र आते हैं तो कभी गुदगुदाते नज़र आते हैं। जैसे बदरू और शमशु यह सोचती हैं कि उन्हें ख्यालों में ही हमज़ा को मारने के लिए गिरफ्तार किया जा रहा है। जुल्फी, पुलिस वाले से किडनैपिंग की सजा के बारे में पूछता नज़र आता है और पुलिस मिसिंग कंप्लेन दर्ज होने पर सबसे पहले शिकायत करनेवाले के घर ही तलाशी लेने पहुंचती है। वहीं, पितृसत्ता की गहराई को बयां करने के लिए घरेलू हिंसा की घटना के बाद हमज़ा कहता है, “डॉर्लिग्स मैं तुमसे प्यार करता हूं तो मारता हूं, तुम मुझसे प्यार करती हो इसलिए सहती भी तो हो।” बदरू एक उम्मीद में उसे माफ भी करती है।
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फिल्म की कहानी में गति दिखती है। एक के बाद एक मोड़ आते रहते हैं। हमज़ा के बदलते व्यवहार की तरह कहानी में बदलाव आता है। हर वादे के बाद एक और मौका देने के बाद बदरू इस लड़ाई में उम्मीद से आगे निकलने का साहस आखिर कर ही लेती है। मौके के तौर पर हमज़ा को बंदी बनाकर उसके साथ कुछ समय के लिए वहीं व्यवहार करती है जो वह उसके साथ करता है। हिंसा का जवाब हिंसा से देने की कल्पना को पर्दे पर बहुत एहतियात से उतारा गया है। घरेलू हिंसा के मुद्दे को एक नये फ्रेम में दिखाया गया है। कहानी में प्यार, विश्वासघात, गुस्सा, हिंसा और बदले को एक छोर पर ले जाकर आगे सोचने के लिए बाध्य करती है।
फिल्म में बदरू के किरदार को आशा और निराशा के बीच में लंबे वक्त तक झूलते दिखाया गया है। वह तमाम लड़ाइयों के बाद हर बार बात सुलह पर ले जाती है। एक मौका और आखिर मौका के साथ आखिर में अपने साथ हो रही हिंसा को समझती है और अपनी माँ से कहती है, “मैं चाहती हूं कि वह मेरी इज्जत करे पर इज्जत तो मेरी है तो मैं उससे क्यों मांगती हूं।”
फिल्म में अगर हम बदरू और शमशु की बात करें तो वे बार-बार चौकाती है। जहां एक और तो वह हमज़ा से बदला लेने की योजनाओं में रहती है। दूसरी ओर उनके किरदारों में औरत के वास्तविक व्यवहार की हर छाप देखने को मिलती है जो हम घरेलू हिंसा का सामना करने वाली लाखो-करोड़ों औरतों में देखते हैं। वे हिंसा सहती रहती हैं, उनके सीने में बदले लेने की चाहत भी होती है, मजबूरी भी होती है और आखिर में वह माफ कर खुद को बिच्छु बनने से रोकती भी है। बिच्छु के परिदृश्य को समझने के लिए फिल्म आपको एक बार तो ज़रूर देखनी होगी।
फिल्म डॉर्लिग्स एक गंभीर विषय घरेलू हिंसा पर बात करती है। वह उस सवाल का जवाब मे हैं जहां घरेलू हिंसा की घटनाओं में पूछा जाता है कि वह उसे छोड़ क्यो नहीं देती है। पितृसत्ता कैसे हिंसा को सहने का रास्ता बनाए रखती है उस पर फिल्म में बात कही गई है। फिल्म का फोकस हिंसा के पक्ष-विपक्ष पर कभी भारी नहीं पड़ता है। फिल्म हिंसा के कारण की गहराई पर हल्के-फुल्के अंदाज में अपना पक्ष रखती है और हिंसा सहने वाली महिलाओं के मन की चाहत को बयां करती है।
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क्यों फिल्म को बॉयकाट करने का ट्रेंड शुरू किया गया
फिल्म में दूसरे हाफ में हमज़ा के किरदार की कुछ बातें जब बदरू दोहराती नज़र आती है तो उससे पुरुषवादी समाज के सेंटीमेंट्स हर्ट हो गए हैं। इसके बाद से सोशल मीडिया पर फिल्म को बॉयकाट करने का एक ट्रेंड चला दिया जाता है। फिल्म पर हिंसा को बढ़ावा देने, पुरुषों के ख़िलाफ़ साजिश का चलन बढ़ाने, जैसी बातें कही जा रही हैं। कई ट्वीट्स में आलिया भट्ट को भारत की एंबर हर्ट कहकर बुलाया जा रहा है। ट्विटर पर पुरुषों के अधिकारों को बात करने वाले संगठन आलिया भट्ट के ख़िलाफ़ अनुचित भाषा का इस्तेमाल कर, उनका मज़ाक बनाते नज़र आए।
सोशल मीडिया पर जिस तरह से पुरुषों ने खुद के ख़िलाफ़ हिंसा बढ़ाने के चलन को मुद्दा बनाकर फिल्म को बैन करने की मांग की है उससे यह तो नज़र आता है कि जब भी पुरुषों को अपने साथ असमानता दिखती है वे एकजुट होकर अपने अधिकारों के लिए लड़ना शुरू कर देते हैं। यह बिल्कुल सही बात है कि हिंसा के विरोध में हमें आवाज़ उठानी चाहिए। लेकिन उसी पल यह सवाल भी है कि उन्हें फिल्म में बदरू की हमज़ा पर प्रताड़ना तो दिखती है लेकिन हमज़ा की मार से बदरू आँख पर बना निशान पूरी फिल्म में नहीं दिखता है। खाना खाते समय हमजा के मुंह में कंकड आने पर उसके हाथ पर ही थूकना, उससे छोटी सी गलती होने पर उसके साथ मार-पिटाई करना नज़र नहीं आता है।
दरअसल हिंसा उसके बाद प्यार, एक और मौका वाली पति-पत्नी की कहानियों को देखने-सुनने से आगे इस फिल्म में एक नये तरीके से कहानी कही गई है। फिल्म के अंत में वैधानिक चेतावनी के तौर पर दिखाया गया है कि औरतों के ख़िलाफ़ हिंसा आपके लिए ख़तरनाक हो सकती है। हिंसा का एक परिणाम यह भी हो सकता है। हालांकि हिंसा का जवाब हिंसा नहीं हो सकता है इस बात को फिल्म के आखिर में साफ तौर पर कहा गया है।
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तस्वीर साभार: India Today