ग्राउंड ज़ीरो से क्या मायने रखता है इन महिलाओं का झंडा फहराना?

क्या मायने रखता है इन महिलाओं का झंडा फहराना?

एक तरफ हम आज़ादी का महोत्सव मना रहे हैं, लेकिन वहीं दूसरी तरफ़ समाज एक बड़ा तबका जातिवाद का दंश झेल रहा है। यह हमारे आज़ाद देश की विडंबना है कि आज भी जाति व्यवस्था से निजात नहीं पा सके हैं।


ये 15 अगस्त बनारस ज़िले के बसुहन गाँव की मुसहर बस्ती के लिए बहुत ही ख़ास था, क्योंकि इस साल बस्ती में आज़ादी का ये दिन कुछ अलग अंदाज़ में मनाया गया था। बस्ती में हर साल की तरह बच्चों के साथ हमने पंद्रह अगस्त के कार्यक्रम का आयोजन किया था। लेकिन इस साल बस्ती की महिलाओं को आमंत्रित किया गया था ध्वजारोहण के लिए। इस बार बस्ती की सभी महिलाओं ने मिलकर झंडा फहराया। महिलाओं का ये पहला अनुभव था, जब उन्हें यह मौक़ा मिला था।

झंडा फहराकर एहसास हुआ अधिकार और आत्मविश्वास का

झंडा फहराने को लेकर अपने अनुभव को बताते हुए गुंजा कहती हैं, “पहली बार हमलोगों को यह मौक़ा मिला जब बस्ती की महिलाओं ने मिलकर आज़ादी के दिन झंडा फहराया। हमलोगों के लिए ये बहुत ही ख़ुशी का पल था, ऐसा लगा जैसे हमलोगों के पास भी अधिकार है और जब हमारे बच्चों और बस्ती के पुरुषों ने झंडा फहरते ही तालियां बजाई तो आत्मविश्वास और भी बढ़ गया। ऐसे तो हमने हमेशा बाहरी और बड़े लोगों ही झंडा फहराते देखा-सुना था। लेकिन बस्ती में तो कभी कोई आता ही नहीं कि हम लोग सोच भी पाए कि हम भी झंडा फहरा सकते हैं। गाँव के सबसे बाहरी इलाक़े में हम लोगों की बस्ती है और कोई भी दूसरी जाति के लोग कभी भूलकर भी हमारी बस्ती में नहीं आते हैं।”

एक तरफ हम आज़ादी का महोत्सव मना रहे हैं, लेकिन वहीं दूसरी तरफ़ समाज एक बड़ा तबका जातिवाद का दंश झेल रहा है। यह हमारे आज़ाद देश की विडंबना है कि आज भी जाति व्यवस्था से निजात नहीं पा सके हैं। समाज में आज भी जाति व्यवस्था क़ायम है, जहां विकास की तमाम योजनाओं से जोड़ने के लिए गांव के गांव गोद लिए जा रहे हैं लेकिन गांव की व्यवस्था में आज भी बस्तियां जाति के आधार पर बंटी हैं।

और पढ़ें: हर बुनियादी सुविधाओं से दूर, किस तरह का जीवन जीने को मजबूर हैं मुसहर समुदाय

झंडा फहराने को लेकर अपने अनुभव को बताते हुए गुंजा कहती हैं, “पहली बार हमलोगों को यह मौक़ा मिला जब बस्ती की महिलाओं ने मिलकर आज़ादी के दिन झंडा फहराया। जब हमारे बच्चों और बस्ती के पुरुषों ने झंडा फहरते ही तालियां बजाई तो आत्मविश्वास और भी बढ़ गया। ऐसे तो हमने हमेशा बाहरी और बड़े लोगों ही झंडा फहराते देखा-सुना था। लेकिन बस्ती में तो कभी कोई आता ही नहीं कि हम लोग सोच भी पाए कि हम भी झंडा फहरा सकते हैं।”

झंडा फहरने की जगह हमेशा स्कूल और पंचायत लगती थी

बस्ती की स्थिति और झंडारोहण के अनुभव के बारे में बस्ती में रहनेवाली आशा बताती हैं, “हमारी बस्ती के लोग सिर्फ़ मज़दूरी का काम करते हैं पर बाक़ी लोग की तरह इनकी मज़दूरी का काम नहीं है। इन्हें मज़दूरी के काम में भी सबसे निचले तबके का काम दिया जाता है, क्योंकि हमारी जाति आज भी अछूत मानी जाती है। जातिवाद की वजह से हमलोग पढ़-लिख भी नहीं पाते हैं। बच्चों को स्कूल भेजने से ज़्यादा चिंता हमें उनके दो वक्त के खाने की होती है। बस्ती की इस हालत से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि आज़ादी को लेकर यहां क्या ही कार्यक्रम होता होगा। हम लोगों की बस्ती में कभी पंद्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी नहीं मनाया गया।”

झंडा फहराती बस्ती की महिलाएं, तस्वीर साभार: नेहा

वह आगे कहती हैं, “हम लोगों को कभी इतनी जानकारी ही नहीं थी कि इसे हम अपनी बस्ती में भी मना सकते हैं। हमने स्कूल और पंचायत भवन में ही हमेशा से झंडा फहराते देखा था। इसलिए हम लोगों को लगता था कि झंडा फहराने की जगह सिर्फ़ पंचायत भवन और स्कूल ही होती है। लेकिन इस साल हमारी अपनी बस्ती में झंडा फहराया गया और उससे लगा कि हम लोग भी मायने रखते हैं।” ये हमारे देश का वह सच है, जिससे हम अक्सर मुंह फेरकर आगे बढ़ जाते हैं और ऐसा सालों से होता आया है। हम आज भी जातिगत भेदभाव और हिंसा से जूझ रहे हैं, लेकिन जातिवाद की बात आते ही हमेशा कहते हैं कि ‘अब तो जात-पात ख़त्म हो गया है।‘ यह बात सिर्फ़ अनुभव आधारित नहीं है बल्कि रिपोर्ट्स और आंकड़े भी यही कहते हैं।

क्या मायने रखता है महिलाओं का झंडा फहराना

जातिवाद की यह परत जब महिलाओं पर पड़ती है तो भेदभाव और हिंसा की परत और भी ज़्यादा मोटी हो जाती है। इसकी वजह से महिलाओं का संघर्ष कई गुना ज़्यादा बढ़ जाता है। ऐसे में जब महिलाओं को सामाजिक पहल के नेतृत्व में लाया जाता है तो ये न केवल उनके बल्कि उनके परिवार और आसपास के लोगों को भी संदेश देता है कि महिलाओं के भी अपने अधिकार हैं, उन्हें भी बराबरी की ज़िंदगी जीने का हक है।

बस्ती की महिलाओं द्वारा झंडा फहराने की पहल इस विचार से की गई थी महिलाएं ये समझें कि उनके लिए आज़ादी के मायने क्या है, ये वे खुद तय करें न की कोई और। फिर बात चाहे जेंडर आधारित समाज की हो या फिर जातिगत भेदभाव और हिंसा की। बस्ती की सभी लड़कियों और महिलाओं में भी यह आत्मविश्वास आए कि वे सामाजिक सम्मान की हक़दार हैं। बदलते समय के साथ अब हमें भी यह विचार बदलने की ज़रूरत है कि हमेशा विशेषाधिकारों से लदा हुआ इंसान ही वंचित तबके के लिए नीति नहीं बनाएगा और न ही उनकी आज़ादी के झंडे फहराएगा, बल्कि जिसकी आज़ादी की बात है उसका नेतृत्व उन्हें खुद करने के लिए आगे बढ़ाना है।  

और पढ़ें: नन्ही प्रीति की ये प्रस्तुति समाज के स्टेज में उसका स्पेस क्लेम है


फीचर्ड तस्वीर साभार: नेहा

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content