इंटरसेक्शनलजेंडर रंगभेद और पितृसत्ता के दोहरे मापदंड

रंगभेद और पितृसत्ता के दोहरे मापदंड

ऐसे में बेटी का जन्म परिवार में किसी दुख की लहर से कम नहीं होता है। लेकिन बेटी की रंगत से इस दुख की मात्रा को घटा-बढ़ा ज़रूर दिया जाता है।

“गोरे रंग के बिना सुंदरता संभव ही नहीं है।” ऐसा मैं नहीं बल्कि हमारा समाज हमसे कहता है। बचपन से ही हम इसी विचार के साथ पले-बढ़े होते हैं, जहां गोरी रंगत को ही सुंदर होने का एकमात्र आधार बताया जाता है। इस रंगभेदी समाज में जिनकी गोरी रंगत नहीं होती है उन्हें भेदभाव, हिंसा और तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। मेरी रंगत सांवली है या मैं यह कहूं कि मैं गोरी रंगत वाली नहीं हूं। इसीलिए अपने रंग को लेकर मैंने बचपन ही कई तरह की हिंसा और भेदभाव का सामना किया है।

हमारी त्वचा का रंग इस पितृसत्तात्मक समाज के लिए जेंडर के आधार पर बहुत मायने रखता है। हमारा समाज लड़कियों को सिर्फ़ शादी मटेरियल के रूप में ही देखता है। इसलिए उसने लड़कियों और शादी की संभावना के लिए सबसे ज़रूरी ‘सुंदर’ होना बताया है। यहां सुंदर होने का मतलब सिर्फ़ और सिर्फ़ गोरी रंगत है। सुंदरता को लेकर पितृसत्ता का ये पैमाना महिलाओं को आपस में बांटने का काम तो करता ही है। वहीं, महिलाओं की मानसिक और सामाजिक स्थिति को भी बुरी तरह प्रभावित करता है। इसलिए जब भी हमलोग रंगभेद की बात करते हैं तो अक्सर यह भूल जाते हैं कि त्वचा के रंग के आधार पर पितृसत्ता भले ही किसी को कम और ज्यादा सुंदर माने लेकिन बात जब दूसरे जेंडर आधारित भेदभाव की आती है तो यहां पितृसत्ता सबके लिए समान व्यवहार रखती है। इसे हम रंगत से जुड़े कुछ ऐसे विचारों और सामाजिक व्यवहार से समझ सकते हैं जिसे हम अक्सर अपने आसपास देखते हैं।

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जब भी हमलोग रंगभेद की बात करते हैं तो अक्सर यह भूल जाते हैं कि त्वचा के रंग के आधार पर पितृसत्ता भले ही किसी को कम और ज्यादा सुंदर माने लेकिन बात जब दूसरे जेंडर आधारित भेदभाव की आती है तो यहां पितृसत्ता सबके लिए समान व्यवहार रखती है?

हमारे परिवार में आज भी बेटे के जन्म को ही महत्व दिया जाता है। ऐसे में बेटी का जन्म परिवार में किसी दुख की लहर से कम नहीं होता है। लेकिन बेटी की रंगत से इस दुख की मात्रा को घटा-बढ़ा ज़रूर दिया जाता है। जैसे अगर बेटी की रंगत गोरी हो तो दुख की मात्रा थोड़ी कम हो जाती है। परिवारवाले यह कहकर संतोष कर लेते हैं कि चलो लड़की हुई तो क्या हुआ सुंदर तो है। जैसे लड़की होने के ‘दुख’ की भरपाई इस बात से कर ली जाती है कि उसकी रंगत गोरी है। लेकिन जब बेटी की रंगत गोरी न हो तो ये दुख पूरी तरह मातम में बदल जाता है। परिवारवाले यह कहकर अपने दुख को दिखाते हैं कि “एक तो भगवान ने लड़की दी और वह भी सांवली।”

“तुम्हारा रंग तो वैसे भी साफ़ नहीं है। अब अगर कोई रिश्ता मिला है तो जल्दी शादी करना ही ठीक है। लड़की सुंदर है, जितनी जल्दी शादी कर दी जाए अच्छा है। आज-कल का ज़माना ठीक नहीं है।”

ये दो बातें दो अलग-अलग रंग की लड़कियों के लिए अक्सर कही जाती हैं। रंगत भले ही दोनों की अलग हो, लेकिन उनका लड़की होना समान है। इसलिए उन पर शादी का दबाव हर बहाने से बनाया जाता है। अगर लड़की की रंगत सांवली है तो यह कह दिया जाता है कि आगे कोई रिश्ता शायद मिले ही न और मिले भी तो अच्छा न मिले। यह बात हमेशा यह एहसास करवाती है कि सांवली लड़कियों को जो लड़का मिलता है, जब भी मिलता है उसकी शादी करवा देनी चाहिए, क्योंकि उनके रंग के आधार पर शायद ही उनके लिए शायद ही अच्छा रिश्ता मिले। ठीक उसी पल जो लड़की गोरी रंगत वाली है अगर उसके लिए रिश्ते आते हैं तो यह कहकर उसकी शादी जल्दी करवाई जाती है कि लड़की सुंदर है कहीं कुछ ग़लत न हो जाए। मतलब एक तो आप रंगत का हौवा खुद बनाओ और फिर उसे बचाने के नाम पर उसकी ही जल्दी शादी करवा दो

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“तुम तो सांवली हो। तुमको कहां जल्दी नौकरी मिलेगी। नौकरी के लिए, चार पैसे कमाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ेगी और अपनी क़ाबलियत को साबित करना पड़ेगा। वह तो देखने में सुंदर है। ऐसे थोड़े न काम पर रखा गया होगा या प्रमोशन मिली होगी। बॉस को खुश किया होगा इसने।”

जब भी महिला नौकरी करती है तो एक ही जगह पर महिलाओं को दो स्थिति का सामना करना पड़ता है क्योंकि उनकी रंगत एक-दूसरे से अलग है। वह महिला जिसकी रंगत गोरी नहीं है, उसको हमेशा यह एहसास करवाया जाता है कि उसके अंदर बहुत कमी है और अगर वह अपने करियर में आगे बढ़ना चाहती है तो उसे बहुत ज़्यादा मेहनत करनी पड़ेगी। हर कदम पर उसे अपनी क़ाबलियत को प्रमाणित करना पड़ेगा। लेकिन वहीं, इस पितृसत्तात्मक समाज के मापदंडों के अनुसार जिस महिला को सुंदर माना जाता है उसकी ‘काबिलियत’ पर अक्सर सवाल उठाए जाते हैं। कुल मिलाकर यहां भी पितृसत्तात्मक समाज का मक़सद महिलाओं को रंगत के आधार पर दो खेमों में बांटना है।

जब बात यहां महिलाओं की हो तो पितृ व्यवस्था और भी बारीकी से काम करती है। गोरी लड़की और सांवली या काली लड़की, रंगत के आधार पर महिलाओं को इन्हीं दो भागों में बांटने की व्यवस्था सदियों से हमारे समाज में चली आ रही है। महिलाओं को हर वक्त उनके जेंडर के आधार पर यह एहसास करवाया जाता है कि उनमें कुछ कमी तो ज़रूर है।

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तस्वीर : सुश्रीता भट्टाचार्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

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