संस्कृतिकिताबें गरीबी, जातिवाद और सामंतवाद की परतों को उधेड़ती है प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’

गरीबी, जातिवाद और सामंतवाद की परतों को उधेड़ती है प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’

वह दौर जब मुख्यधारा के साहित्य में लोग वर्ग भेद पर तो खुलकर अपनी रचनाओं के द्वारा अपना मत रख रहे थे लेकिन जातिवाद और दलितों के हालातों पर किसी ने भी अपनी कलम चलाने की में सोची थी, तब प्रेमचंद ने दलितों दलित मुद्दों पर कई कहानियां लिखीं जिनमें से एक कहानी है 'कफ़न'।

प्रेमचंद को हम सभी ने अपने स्कूल के समय से पढ़ना शुरू कर दिया था।  ईदगाह,  बड़े भाईसाहब,  रामलीला आदि उनकी सर्वश्रेष्ठ रचनाएं मानी जाती हैं। दलित मुद्दों पर प्रेमचंद की रचनाओं को यह कहकर टाला जाता रहा है कि प्रेमचंद उस समुदाय से नहीं है तो उनका दर्द किस प्रकार समझ सकते हैं? 

वह दौर जब मुख्यधारा के साहित्य में लोग वर्ग भेद पर तो खुलकर अपनी रचनाओं के द्वारा अपना मत रख रहे थे लेकिन जातिवाद और दलितों के हालातों पर किसी ने भी अपनी कलम चलाने की में सोची थी, तब प्रेमचंद ने दलितों दलित मुद्दों पर कई कहानियां लिखीं जिनमें से एक कहानी है ‘कफ़न’। ‘कफ़न’ प्रेमचंद की अंतिम कहानी है। यह कहानी चांद हिन्दी पत्रिका में साल 1936 में प्रकाशित हुई थी। प्रेमचंद ने पहले इसे उर्दू भाषा में लिखा था।

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‘कफ़न’ दलित समुदाये से आनेवाले बाप बेटों की कहानी है। घीसू और माधव जो बेहद आलसी किस्म के जान पड़ते हैं। वे बुधिया (माधव की पत्नी और घीसू की बहू) के मर जाने के बाद उसके कफ़न के चंदे के पैसों से तली हुई मछलियां खा जाते हैं और शराब पीकर धुत्त हो जाते हैं। 

कहानी की शुरुआत का अगर विश्लेषण करें तो कहानी का पहला दृश्य कुछ ऐसा है कि एक जवान औरत झोपड़े में प्रसव पीड़ा से चीख रही है और दो लोग बाहर बुझे हुए अलाव के सामने चुपचाप बैठे हुए आलू भून रहे हैं। वे उसके मर जाने का इंतज़ार कर रहे हैं। इस दृश्य को पढ़कर सवाल आता है कि आख़िर क्या है जो इंसान को इतना असंवेदनशील बना देता है, जिसके कारण अपनी पत्नी के लिए माधव कहता है कि मरना ही तो है जल्दी क्यों नहीं मर जाती? जवाब भी इसी दृश्य में है-आलू।

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कफ़न कहानी उस समय मौजूद पूंजीवादी व्यवस्था पर तंज कसती हुई नज़र आती है। एक ऐसी व्यवस्था जो इंसान को बीस साल तक भूखा रखती है और कामचोर बना देती है। उसी व्यवस्था में जब उन भूखों के हाथ में कुछ पैसे आते हैं तो भूख मिटाने की चाह सबसे पहली इच्छा बन जाती है बजाय किसी अपने के लिए कफ़न खरीदने के।

दोनों बाप-बेटे इतने भूखे थे कि माधव को डर था कि अगर वह बुधिया को देखने अंदर गया तो घीसू आलू का बड़ा भाग साफ़ कर देगा। इसलिए दोनों ही बुधिया की चीख पुकार को सुनकर भी बाहर ही आलू भूनने में लगे रहते हैं । दोनों इतने भूखे हैं कि आलू का ठंडे होने का भी इंतज़ार नहीं करते और जैसे-तैसे उसे निगल जाते हैं। कहानी में घीसू अपने बेटे माधव को तब की बात बताता है जब उसने ठीक से कहीं पेट भरकर खाना खाया था। घीसू और माधव दोनों ही कामचोर किस्म के हैं और बस कामना करते हैं कि बुधिया मर जाये तो चैन से सोया जाए।

प्रेमचंद बताते हैं कि जिस समाज में दिन-रात मेहनत करने वाले लोगों की हालत भी कुछ ख़ासी अच्छी नहीं थी, जिस समाज में किसानों के मुकाबले किसानों की दुर्बलताओं का लाभ उठाने वाले फल-फूल रहे हो ज़्यादा संपन्न हो वहां इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना स्वाभाविक है।

कफ़न कहानी उस समय मौजूद पूंजीवादी व्यवस्था पर तंज कसती हुई नज़र आती है। एक ऐसी व्यवस्था जो इंसान को बीस साल तक भूखा रखती है और कामचोर बना देती है। उसी व्यवस्था में जब उन भूखों के हाथ में कुछ पैसे आते हैं तो भूख मिटाने की चाह सबसे पहली इच्छा बन जाती है बजाय किसी अपने के लिए कफ़न खरीदने के। भूख के आगे सारे रस्म और रिवाज़ बुरे नज़र आते हैं और वे भूख मिटाने की इच्छा को पूरी करने के बहाने ढूंढते हैं।

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बात करें अगर घीसू कि तो यह एक ऐसा व्यक्ति है जिसने अपनी साठ साल जिंदगी में बहुत कुछ देख लिया है, झेल लिया है। उसने भी अपने साठ सालों में बस एक बार ही भर पेट खाना खाया है जिसे वह अक्सर नोस्टेलजिक होते हुए याद करता है। यह बात उसकी मधुर स्मृतियों में से एक है। प्रेमचंद के अनुसार घीसू विचारवान व्यक्ति है जो कि किसानों की दुर्बलता का फ़ायदा उठाने वाले बैठकबाजों में जाकर बैठता है। हालांकि, इस सब के चलते उसे गाँव वालों से ताने भी पड़ते हैं लेकिन फिर भी उसे इस बात की संतुष्टि थी कि भले ही उस पर उंगलियां उठ रही हैं लेकिन कम से कम उसका फ़ायदा नहीं उठाया जा रहा।

उसे ग़रीबों के साथ हो रहे शोषण की भी ठीक-ठाक समझ है। माधव ठाकुरों से, भोज पर खर्च न किए जाने पर कहता है , “अब कोई क्या खिलाएगा? सबको किफ़ायत सूझती है।  ग़रीबों का माल बटोर-बटोर कर कहां रखोगे? बटोरने में कमी नहीं है। हां, खर्च में किफ़ायत सूझी।” घीसू जगह-जगह पर हमें अमीरों के द्वारा गरीबों का शोषण किए जाने पर टिप्पणी करते हुए दिखाई पड़ता है। 

कफ़न कहानी आज भी कई सारी जगहों पर देखने को मिल जाती है। इस जातिवादी समाज में आज भी ऐसी जगहें हैं जहां दलितों को जलाने के लिए श्मशान नहीं मिलते। उनके श्मशान अलग कर दिए जाते हैं।

माधव की अगर बात करें तो वह ऐसा व्यक्ति है जिसने सिर्फ अपने सपने में ही बढ़िया भोजन खाया है। उसका पिता तो एक बार इस सब आनंद उठा चुका है लेकिन वह सिर्फ़ अभी तक बातों से ही काम चला रहा है। माधव में हमें एक मासूम बच्चे की झलक दिखाई पड़ती है जब वह अपने बाप से सवाल करता है, “तुमने बीस से ज़्यादा पूरियां खाई होंगीं। मैं होता तो पचास खा जाता ” माधव अपने बाप के पदचिन्हों पर ही चलने वाला बेटा है। कफ़न के पैसे से पेट भरने के बाद माधव खूब उल्लास से भर जाता है और अपनी जिंदगी में पहली बार किए हुए किसी काम को करने का आनंद उठाता है। बचा हुआ खाना एक भिखारी को शान से देता है और दोनों बाप बेटे बुधिया को दुआएं देते हुए नाचते-गाते हुए बदमस्त होकर वही गिर पड़ते हैं।

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बुधिया पर नज़र डालें तो उसके जीवन का कोई महत्व नहीं सिवाय इसके कि अपने मरने के बाद भी उसने अपने परिवार की भूख का ख्याल रखा। पूरे साल उसने उन दोनों की सेवा की और जब मरी तो जिंदगी भर याद रखने वाला अनुभव दे गई, जिसे फिर कभी माधव किसी के सामने यादों में आतुर होते हुए सुनाएगा।

कफ़न कहानी आज भी कई सारी जगहों पर देखने को मिल जाती है। इस जातिवादी समाज में आज भी ऐसी जगहें हैं जहां दलितों को जलाने के लिए श्मशान नहीं मिलते। उनके श्मशान अलग कर दिए जाते हैं। न जाने कितनी बस्तियां हैं जिनके यहां खाने-पीने का सामान सवर्णों की बस्ती से आता है उनकी बेगार उठाने या मल साफ़ करने के बदले में। कितने ही माधव हैं जो बस दुआ करते हैं कि सवर्णों के घरों में कोई त्योहार हो और हमें रबड़ी खाने को मिले।

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यह लेख सौरभ खरे ने लिखा है। वह फिलहाल भारतेंदु नाट्य अकादमी में थिएटर की पढ़ाई कर रहे हैं। सौरभ एक आर्ट पसंद व्यक्ति हैं, समाज को उसी दृष्टि से देखते हैं और आर्ट के फॉर्म में ही पे बैक टू सोसाइटी करना चाहते हैं।

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