“अपन ईछा रे”- एक महिला प्रतिभागी ने कहा। समुदाय स्तर जब हम छत्तीसगढ़ के ग्रामीण आदिवासी क्षेत्र में बैठक कर रहे थे तब बैठक में शामिल एक औरत ने यह बात कही थी। इस बैठक में प्रजनन स्वास्थ्य और महिला स्वास्थ्य के मुद्दों पर बात हो रही थी। इस बैठक में बैगा आदिवासी समुदाय की महिलाएं उपस्थित थीं। राज्य में PVTG समुदाय के लिए नसबंदी सेवा पर जो प्रशासनीय प्रतिबंध था उसकी बात निकलकर आई। इस चर्चा के बीच एक मूलभूत सवाल निकलकर आया कि महिलाओं के शरीर से जुड़े निर्णय लेने में किसका हस्तक्षेप होना चाहिए? उनके पति का, ज़िला कलेक्टर या प्रशासनीय अधिकारी का, राज्य का या फिर खुद महिलाओं का?
यह केवल एक संयोग नहीं है कि जब भी समुदाय स्तर पर महिलाओं, महिला कार्यकर्ताओं के साथ प्रजनन अधिकार के मुद्दे पर संवाद होता है तो बहुत सारे निजी अनुभव निकलकर आते हैं। ये अनुभव उन महिलाओं के व्यक्तिगत अनुभव होते हैं जो उनके अपने जीवन में पारिवारिक, निजी संबंधों में चल रहे संघर्ष को उजागर करते हैं। जानकारी का अभाव, निर्णय लेने की क्षमता पर रोक, अविवाहित महिलाओं और युवा किशोरियों की यौनिकता से जुड़ा सामाजिक कलंक, स्वतंत्र रूप से स्वास्थ्य सेवा लेने में वित्तीय संसाधनों की दिक्कत आदि सामान्य तौर पर इन अनुभवों का हिस्सा होते हैं।
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यौन और प्रजनन स्वास्थ्य और अधिकार को जब हाशिए के समुदायों के नज़रिए से देखा जाता है तो यह न्याय की चिंता भी पैदा करता है। यह बताता है कि कैसे संसाधनों के अभाव के साथ-साथ निषेधात्मक कानूनों ने हाशिए के समुदायों में स्थित महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन किया है।
लेकिन हम यह जानते हैं कि इन बातों को सिर्फ़ अलग-अलग कहानियों के रूप में नहीं देख सकते। इनकी व्यापकता सामाजिक और संस्थागत ढांचों में रेखांकित है जिसका संबंध पितृसत्ता और विभिन्न सामाजिक सत्ता के ढांचों जैसे जाति, वर्ग, विकलांगता, यौनिकता आदि से है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या निजता का पहलू केवल किसी व्यक्ति विशेष तक सीमित है या इसे भी हमें इन ढांचों के अंतर्गत परखने और समझने की ज़रूरत है।
इस चर्चा के समय महिलाएं अपनी स्वास्थ्य सेवाएं लेने का अनुभव बयान कर रही थीं। सीमावर्ती ज़िला होने से ज्यादातर महिलाएं पास के राज्य मध्य प्रदेश जाकर नसबंदी की सेवाएं ले रहीं थीं। जब उनसे पूछा गया कि क्या अपने पास के स्वास्थ्य केंद्र में उन्होंने जाकर कभी सेवा मांगी, तो सबका एक ही जवाब आया कि सेवाएं मांगी तो हैं लेकिन वहां पर उन्हें ये सेवाएं देने से मना कर दिया जाता है। साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि कैसे बैगा आदिवासी महिलाओं के पहनावे और उनके शरीर पर गोदना देखकर भी उन्हें मेडिकल सेवाएं न देने का फैसला कर लिया जाता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि एक बुनियादी स्वास्थ्य सेवा लेने के लिए इस तरह की परख और पैमाने से होकर गुज़रना किसी के लिए भी चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
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चर्चा में शामिल औरतों ने यह भी बताया कि कैसे बैगा आदिवासी महिलाओं के पहनावे, और उनके शरीर पर गोदना देखकर भी उन्हें मेडिकल सेवाएं न देने का फैसला कर लिया जाता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि एक बुनियादी स्वास्थ्य सेवा लेने के लिए इस तरह की परख और पैमाने से होकर गुज़रना किसी के लिए भी चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
लेकिन इन चुनौतियों को लेकर चर्चा में मौजूद महिलाओं की तरफ़ से एक निराशाजनक भाव निकल कर आ रहा था, उसमें यह साफ़ दिख रहा था कि कैसे इस पूरे मामले में इनकी सहमति नहीं शामिल थी। इनसे पूछे बिना इनके नियमित जीवन से जुड़े निर्णय कहीं और लिए जा रहे थे, इनके प्रजनन जीवन से जुड़ी बातों की चिंता कहीं और हो रही थी। साथ ही इनकी मर्ज़ी पूछे बग़ैर इनके शरीर और स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले नियम बना दिए गए थे। ज़बरदस्ती किसी पर बोझ या प्रतिबंध डालना, उनकी सहमति छीन लेता है। साथ ही क्या यह सहमति किसी के निजी जीवन और उसके निर्वाह का केंद्रीय पहलू और भाव नहीं है?
‘निर्णय कौन लेगा’ वास्तविकता में यह सवाल प्रजनन स्वास्थ्य और अधिकारों की जटिलताओं का उल्लेख करता है। प्रजनन स्वास्थ्य अधिकार को मौलिक मानव अधिकार के रूप में मान्यता मिली है। इसका मतलब यह है कि हर व्यक्ति या दोनों साथियों को स्वतंत्र रूप और ज़िम्मेदारी से प्रजनन संबंधी निर्णय लेने का अवसर मिलना चाहिए। साथ ही उचित जानकारी होना और बेहतर यौन और प्रजनन स्वास्थ्य उनका अधिकार हैI यह निर्णय लेने का अधिकार उनके आसपास के वातावरण को भी बताता है जो कि बिना भेदभाव, ज़ोर-ज़बरदस्ती और हिंसा मुक्त वातावरण होना चाहिए।
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किसी भी प्रकार की शर्त या अतिरिक्त प्रशासनीय औपचारिकता अपने आप में ही अवरोध और बाधाओं का प्रारूप बन जाती है। उदाहरण के लिए भारत के संदर्भ में बात करें तो हाल ही में पारित गर्भसमापन से जुड़े कानूनी संशोधन ‘गर्भ समाप्ति का चिकित्सीय अधिनियम संशोधन 2021’ में मेडिकल बोर्ड स्थापित करने की बात की गई है। इसका सीधा मतलब यह है कि गर्भसमापन जैसे निजी निर्णय की सत्ता महिला से लेकर बाहरी हितधारकों को दे दी गई। मेडिकल बोर्ड से जुड़े कई सवाल भी हैं कि कैसे यह गोपनीयता का उल्लंघन करता है, ग़ैर-ज़रूरी शर्तें रखता है। अगर किसी ग्रामीण क्षेत्र में डॉक्टर या अन्य विषज्ञोंकी कमी है जिनके कारण मेडिकल बोर्ड के गठन मे देरी होती है तो इसका सीधा प्रभाव उस महिला/गर्भवती व्यक्ति पर पड़ता है जिसे गर्भसमापन स्वास्थ्य सेवा की ज़रूरत है। इस इस स्थिति में भी मूलभूस सवाल यही है कि महिलाओं से उनकी निर्णायक स्वायत्तता क्यों ले ली जाती है।
इस बात पर भी ज़ोर डालना ज़रूरी है कि प्रजनन स्वास्थ्य के अधिकार का मुद्दा, सामाजिक न्याय के मुद्दे से परस्पर रूप से जुड़ा है। यौन और प्रजनन स्वास्थ्य और अधिकार को जब हाशिए के समुदायों के नज़रिए से देखा जाता है तो यह न्याय की चिंता भी पैदा करता है। यह बताता है कि कैसे संसाधनों के अभाव के साथ-साथ निषेधात्मक कानूनों ने हाशिए के समुदायों में स्थित महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन किया है। निजता के अधिकार को इन संदर्भों में देखने से नीतियां और कानून को भी मूलभूत रूप से परखने का भी अवसर बनता है। सुरक्षित गर्भसमापन और अन्य आवश्यक स्वास्थ्य सेवाएं जो सभी को समान रूप से प्राप्त/उपलब्ध होनी चाहिए, उन पर संस्थागत बाधाओं का हस्तक्षेप परस्पर रूप से निकल कर आता है।
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अगर बात हाशियबद्ध समुदायों के संदर्भों में हो रही हो जहां ज़्यादातर सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली पर महिलाएं निर्भर होती हैं, जहां पर उनको सुलभ रूप में, सम्मानजनक तरीके से, गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा प्रदान करना स्वास्थ्य प्रणाली का दायित्व है।
अगर हम छत्तीसगढ़ का उदाहरण देखें जहां बैगा और अन्य हाशियाबद्ध आदिवासी समुदायों की महिलाओं के लिए पहले एक प्रशासनीय ऑर्डर था, जिसके तहत उन पर नसबंदी करवाने पर प्रतिबंध लगा हुआ था। इसे लेकर ज़मीनी स्तर पर महिलाओं को प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं के लिए काफ़ी संघर्ष करना पड़ा है। नसबंदी, और गर्भनिरोधक सेवाओं के अभाव में यह प्रतिबंध महिलाओं को गर्भसमापन के असुरक्षित रास्ते अपनाने पर मजबूर करता था। हालांकि, छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय द्वारा इस ऑर्डर को साल 2018 में खारिज किया गया। इस आदेश में इसे जीवन का अधिकार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, और प्रजनन अधिकारों का उल्लंघन करते हुए बताया गया। लेकिन उच्च न्यायालय के इस फ़ैसले का क्रियान्वयन ज़मीनी स्तर पर एक मुद्दा बना हुआ है।
स्वास्थ्य प्रणाली और प्रशासनीय प्रतिबद्धता और जवाबदेही, निजता के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए एक ज़रूरी शर्त के रूप में निकलकर आता है। खासकर अगर बात हाशियबद्ध समुदायों के संदर्भों में हो रही हो जहां ज़्यादातर सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली पर महिलाएं निर्भर होती हैं, जहां पर उनको सुलभ रूप में, सम्मानजनक तरीके से, गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा प्रदान करना स्वास्थ्य प्रणाली का दायित्व है। लेकिन कमज़ोर स्वास्थ्य प्रणाली के प्रारूप में जब मूलभूत स्वास्थ्य सेवाएं लेने के लिए नियमित रूप से संघर्ष करना पड़ता हैं तब वहा अधिकारों की संरचना भी कमज़ोर होती दिखने लगती है।
निजता का अधिकार और अन्य मौलिक अधिकारों की अनुभूति और पूर्ति ऐसे में फिर एक दूरस्थ लक्ष्य की तरह प्रतीत होने लगती है। लेकिन इस विडम्बना भरे समझौते को चुनौती देने की ज़रूरत है जिससे कि अधिकारों की भाषा में सभी की बात हो, सभी प्रकार के भेदभाव को तत्कालीन रूप से मिटाना की बात हो। निश्चित रूप से यह बदलाव सिस्टम और संस्थानों के भीतर पितृसत्तात्मक और जातिवादी सत्ता संरचनाओं को चुनौती देते हुए आगे बढ़ता रहा है और इन प्रयासों को मज़बूत करने से बढ़ेगा। सुरक्षित गर्भसमापन और प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़ी अन्य आवश्यक स्वास्थ्य सेवाएँ सभी को प्राप्त होनी चाहिए बिना किसी संकट, कलंक या अपमान, या किसी भी विपरीत परिस्थितियों का सामना किए हुए।
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