अगर विवाह जीवन का अंत है तो उसे जीवन का उद्देश्य कैसे माना जा सकता है- निवेदिता मेनन
मेरे यह कहने पर कि मैं कभी शादी नहीं करूंगी, माँ हमेशा कहती हैं, “यह रीत बरसों से चली आ रही है, चाहे कितना भी कुछ कह लो, शादी तो तुम्हें करनी ही पड़ेगी। चाहे गरीब की बेटी हो या राजा की एक न एक दिन सबको दूसरे घर जाना ही है। एक न एक दिन तुम्हें भी जाना ही है। तुम्हारा अपना घर वह होगा जहां तुम शादी करके जाओगी।” मैं जब भी माँ से कहती हूं कि माँ आप जीन्स क्यों नहीं पहनती या आप टी-शर्ट और जीन्स पहनिए तो उनका जवाब होता है, “मेरी तो शादी हो गई है न मैं कैसे पहन सकती हूं ये सब?, अच्छा नहीं लगता लोग क्या कहेंगे?
बचपन में मैं जब कभी माँ से पूछती कि क्या मैं बाहर जा सकती हूं तो वह हमेशा मना कर देती यह कहते हुए कि जहां जाना होगा शादी के बाद जाना। वह मुझे मेरी पसंद के कपड़े भी नहीं पहनने देती थीं। कहती थीं कि शादी के बाद अपने ससुराल वालों की इज़ाज़त लेकर वहीं जाकर पहनना ये सब। उनकी इन बातें से कहीं न कहीं मेरे मन में खुद पर अपने हक़ को लेकर कई सवाल उठने लगते। जैसे खुद पर मेरा या मेरे परिवारवालों का कोई अधिकार ही नहीं बल्कि किसी और का है। मेरी पसंद का होना या न होना कोई मायने ही नहीं रखता बल्कि शादी के नाम पर किसी और की पसंद को जबरदस्ती मेरी पसंद बनाया जा रहा है। मुझे ऐसा लगता जैसे मैं कहीं घूमने जाने या अपनी पसंद के कपड़े पहनने के लिए शादी जैसी पितृसत्तात्मक संस्था में शामिल किए जाने के लिए मजबूर हूं।
शादी से जुड़ी इन सारी बातों को सुनकर अपने ही घर में लड़कियां बचपन से ही अलग-थलग महसूस करने लगती हैं। शादी के बाद पति के परिवार के साथ रहने की परंपरा, अपना पैतृक घर छोड़कर अपने पति के घर जाकर रहना, अपना उपनाम बदलना। कुछ समुदायों में तो औरतों का मूल नाम तक बदल दिया जाता है। फिर बच्चों के साथ सिर्फ उसके पिता का नाम जोड़ना शादी नामक पितृसत्तात्मक व्यवस्था की ही देन हैं। इस तरह अगर कुछ औरतें शादी के बाद भी अगर अपना नाम या सरनेम नहीं बदलना चाहतीं तब भी पितृसत्तात्मक व्यवस्था की चपेट में आकर उनका नाम किसी न किसी तरह मिट ही जाता है।
शादी के बाद औरतों को अपना जीवन फिर से एक नए सिरे से शुरू करना पड़ता है। लेकिन एक बात गौर करने लायक यह भी है कि शादी से पहले एक औरत का जीवन केवल और केवल शादी के ‘लायक’ बनने में ही निकलता है। बचपन से ही उन्हें इसी एक क्षण के लिए तैयार किया जाता है।
‘शादी’ यह शब्द जितना पारिवारिक लगता है, उससे कहीं ज्यादा एक कठोर सामाजिक व्यवस्था है। ‘शादी’ शब्द पितृसत्तात्मक व्यवस्था का प्रतीक होने के साथ-साथ जातिवादी समाज का भी प्रतीक है। यह एक ऐसी कठोर सामाजिक संस्था का प्रतीक है जो जाति, धर्म, वर्ग, लिंग जैसी संस्थाओं को दृढ़ता प्रदान करते हैं। यह एक ऐसी संस्था है, जिसे समाज के हर व्यक्ति को जबरन स्वीकार करना ही पड़ता है। अगर कोई व्यक्ति गलती से भी इस संस्था के नियमों का उल्लंघन करता है, ख़ासकर औरतें तो ये समाजिक व्यवस्था उसे कठोर से कठोर दंड देती है। दूसरी जाति या धर्म में शादी करनेवाले, अपनी मर्ज़ी से शादी करनेवाले लोगों की यह समाज हत्या तक करने से गुरेज़ नहीं करता।
एक औरत को बचपन से ठोक-पीटकर केवल शादी नामक संस्था के लिए ही तो तैयार किया जाता है। ये पितृसत्तात्मक समाज शादी को लेकर बचपन से ही लड़कियों का मानसिक अनुकूलन इस हद तक कर देता है कि वे खुद भी इस संस्था का हिस्सा बनने के सपने बुनने लगती हैं।
शादी के बाद औरतों को अपना जीवन फिर से एक नए सिरे से शुरू करना पड़ता है। लेकिन एक बात गौर करने लायक यह भी है कि शादी से पहले एक औरत का जीवन केवल और केवल शादी के ‘लायक’ बनने में ही निकलता है। बचपन से ही उन्हें इसी एक क्षण के लिए तैयार किया जाता है। शादी की संस्था की आग में झोंक देने के लिए बचपन से ही लड़कियों का इस समाज द्वारा मानसिक अनुकूलन किया जाता है। उनके दिमाग़ में इस बात का घर बना दिया जाता है कि उसे इस तरह के काम ही सीखने चाहिए जो शादी के बाद उनके काम आएं और जिन्हें घर की चार दीवारी में रहकर ही पूरा किया जा सके।
पितृसत्तात्मक समाज हिदायत देता है कि उन्हें ‘लड़कियों की तरह ही व्यवहार’ करना चाहिए ताकि ससुराल में कोई उनकी माता-पिता की परवरिश पर उंगली न उठा सके, आदि आदि। एक औरत को बचपन से ठोक-पीटकर केवल शादी नामक संस्था के लिए ही तो तैयार किया जाता है। ये पितृसत्तात्मक समाज शादी को लेकर बचपन से ही लड़कियों का मानसिक अनुकूलन इस हद तक कर देता है कि वे खुद भी इस संस्था का हिस्सा बनने के सपने बुनने लगती हैं। यह समाज लड़कियों द्वारा भविष्य का कोई और सपना देखने के सारे रास्तों पर ताला लगा देता है। खुद लड़कियां भी इस संस्था के जाल में इस तरह फंसती चली जाती हैं कि शादी के बाद उनका जीवन सच में बदल जाएगा।
‘शादी’ यह शब्द जितना पारिवारिक लगता है, उससे कहीं ज्यादा एक कठोर सामाजिक व्यवस्था है। ‘शादी’ शब्द पितृसत्तात्मक व्यवस्था का प्रतीक होने के साथ-साथ जातिवादी समाज का भी प्रतीक है। यह एक ऐसी कठोर सामाजिक संस्था का प्रतीक है जो जाति, धर्म, वर्ग, लिंग जैसी संस्थाओं को दृढ़ता प्रदान करते हैं।
इस तरह हम देखते हैं कि कैसे शादी की पितृसत्तात्मक संस्था ने एक स्त्री के रहन-सहन, खाने-पीने और विचारों पर भी कब्ज़ा कर रखा है। यह समाज शादी के बाद एक औरत से विशेष प्रकार के व्यवहार की उम्मीद करने लगता है। वह स्त्री से उम्मीद करता है कि वह अपना इतिहास भूल कर एक नए जीवन की शुरुआत करे। उससे यह अपेक्षा की जाती है कि शादी से पहले वह क्या थी, कैसी थी, उसे क्या पसंद था, उसे क्या नहीं पसंद था, यह सब भूलकर केवल अपने वैवाहिक जीवन के नियमों का पालन करते हुए अपने पति और ससुराल वालों के प्रति अपने दायित्वों को निभाए। क्योंकि शादी का मतलब तो यही होता है न!