इंटरसेक्शनलजेंडर पितृसत्ता के वे अदृश्य रूप जो शामिल हैं हमारे रोज़मर्रा के जीवन में

पितृसत्ता के वे अदृश्य रूप जो शामिल हैं हमारे रोज़मर्रा के जीवन में

पितृसत्ता एक ऐसी व्यवस्था है जिसकी वजह से पुरुष और महिलाओं में तमाम तरह की असमानताएं बनाई हुई हैं। इस व्यवस्था में पूरा लाभ पुरुषों को मिलता है यही वजह है कि अधिकतर पुरुष अपने रोजमर्रा के जीवन में पितृसत्ता शब्द का इस्तेमाल तक नहीं करते है।

हमारे आसपास के माहौल में एक बात अक्सर कही जाती है कि ज़माना बदल रहा है। कैसे उसका जवाब होता है-ट्रेन की रफ्तार बढ़ गई है, इंटरनेट ने सूचना क्रांति ला दी है, लोगों के पास वक्त नहीं है और नयी-नयी तकनीक पर हमारा जीवन निर्भर हो गया है। अब एक बात पर अगर आप गौर करेंगे तो पाएंगे इन सारे बदलावों में पुरुषों का प्रभुत्व नज़र आता है। इनका लाभ ज्यादातर पुरुष ही उठा रहे हैं। एक आम महिला या लड़की का जीवन का सार आज भी उसी तरह तय किया हुआ है जैसे बरसों पहले था। इसकी वजह है पितृसत्ता यानी समय बदल रहा है लेकिन महिलाओं की आकांक्षाओं के बीच पितृसत्ता को कायम रखने की तमाम कोशिशें अभी भी बनी हुई हैं। 

पितृसत्ता एक ऐसी व्यवस्था है जिसकी वजह से लैंगिक आधार पर तमाम तरह की असमानताएं बनी हुई हैं। इस व्यवस्था में पूरा लाभ पुरुषों को मिलता है। यही वजह है कि अधिकतर पुरुष अपने रोज़मर्रा के जीवन में पितृसत्ता शब्द का इस्तेमाल तक नहीं करते हैं। पितृसत्ता सामाजिक, जातिगत, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक और अन्य हर स्तर पर पुरुषों को श्रेष्ठ बनाती है। इसमें महिलाओं की भूमिकाओं को केवल एक तय दायरे तक सीमित कर दिया जाता है।

दूसरी ओर पितृसत्ता केवल महिला पर पुरुष के वर्चस्व स्थापित करने तक सीमित नहीं है बल्कि पुरुष में वर्ग, जाति के आधार पर भी विभाजित है। जो कुछ पुरुषों को अन्य पुरुषों से ज्यादा ताकतवर बना देती है। पितृसत्ता की यह व्यवस्था एक दिन में स्थापित नहीं हुई है बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी सींची जा रही है। आइए आज चर्चा करते हैं पितृसत्ता के उन रूपों के बारे में जिसे हम अपने दैनिक जीवन में इस्तेमाल करते हैं। 

नारीवादी ‘सिमोन द बाउवार’ ने अपनी किताब ‘सेकेंड सेक्स’ में घर के कुछ कामों की तुलना सिफसिस की यातनाओं से की है जिसकी अंतहीन पुनवृत्ति है। दिन-ब-दिन साफ, मैला हो जाता है और मैला, साफ हो जाता है। सिमोन ने काम ही नहीं श्रम के इस विभाजन को भी कष्टदायी बताया है।

घर के काम पहली कसौटी

इस धरती पर जीने की बुनयादी ज़रूरतों में से एक रोटी और घर है। यानी कि हर इंसान के लिए घर बहुत आवश्यक है लेकिन पितृसत्ता की अवधारणा में घर का मालिकाना हक पुरुष का है और उसमें काम करने की ज़िम्मेदारी महिलाओं की है। खाना बनाना औरतों की जिम्मेदारी है, घर की देखभाल और साफ-सफाई औरतों के काम हैं। ये वे वाक्य हैं जो हम अपने जीवन में न केवल रोज सुनते हैं बल्कि अपने घरों में इन पर अमल होते भी देखते हैं। पितृसत्तात्मक ढ़ांचे में बंधे अधिकतर घरों में महिलाओं को केवल घर के काम तक सीमित किया गया है। अगर महिलाएं कामकाजी हैं भी तो वापस आकर घर के काम करने की जिम्मेदारी उन्हें ही सौंप दी जाती है। महिलाएं बिना किसी शिकायत के एक काम को दिन में कई बार करती हैं।

द गार्डियन के लेख के मुताबिक नारीवादी ‘सिमोन द बाउवार’ ने अपनी किताब ‘सेकेंड सेक्स’ में घर के कुछ कामों की तुलना सिफसिस की यातनाओं से की है जिसकी अंतहीन पुनवृत्ति है। दिन-ब-दिन साफ, मैला हो जाता है और मैला, साफ हो जाता है। सिमोन ने काम ही नहीं श्रम के इस विभाजन को भी कष्टदायी बताया है। इससे अलग इन पहलूओं के इन पक्षों को हमेशा नज़रअंदाज़ कर महिलाओं से घर के अवैतिक काम कराने की परंपरा बनाई हुई है। घर के काम की सीख बहुत छोटी उम्र से लड़कियों को देनी शुरू हो जाती है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ़्फरनगर की रहने वाली शशि शर्मा कहती हैं, “यह तो रिवाज़ है, यह कहकर हमें चूल्हा-चौका बचपन में ही थमा दिया था। आज 50 साल की उम्र हो गई है मेरी, सालों से रोज यहीं काम करते आ रहे हैं। बेटियों को सिखाना यूं ज़रूरी हो जाता है कल को उन्हें भी तो दूसरे घर जाना है, उस घर को संभालना है। काम नहीं आएगा तो वह तो सब कुछ बर्बाद कर देगी। भले ही कितनी ही लड़कियां पढ़-लिख ले घर संभालना तो औरतों का गहना है।”

आवाजाही पर रोक

क्या कभी आपने देर रात तक घर से बाहर रुकने पर लड़कों पर कोई पाबंदी जैसी बात सुनी है? क्या कभी आपने हॉस्टल, कैंपस में देर रात तक आवाजाही की मांग करते लड़कों की मांग की ख़बरें सुनी हैं? अगर नहीं तो इसकी वजह हमारे दैनिक जीवन में मौजूद पितृसत्ता ही है। देर रात हो या सड़कों पर आवाजाही हो, लड़कों के लिए अलग नियम है और लड़कियों के लिए अलग। सुरक्षा की अवधारणा रचकर पितृसत्ता छोटी उम्र में लड़कियों पर इस तरह के नियम थोपना शुरू कर देती है और जो ताउम्र, हर जगह, हर क्षेत्र में लागू होती है। घर हो या बाहर महिलाओं के लिए कर्फ्यू का समय नहीं होना चाहिए। सुरक्षा के पैमाने जेंडर के आधार पर नहीं होने चाहिए। महिलाओं की सुरक्षा तय करने से ज्यादा लैंगिक भेदभाव वाली सोच को बदलने की ज़रूरत है।

मोरल पुलिसिंग

संस्कार और संस्कृति के नाम पर ख़ासतौर पर महिलाओं के लिए नियम-कायदे गढ़ना, उन्हें डराना और धमकाना मोरल पुलिसिंग कहलाता है। नैतिकता के नाम पर मोरल पुलिसिंग की शुरुआत घर पर सबसे पहले होती है जैसे लड़की ने क्या पहना है, कैसे बाल बनाएं हैं, कैसे बातचीत करती है, उसकी कौन सहेली है? हर लड़की को अपने रोज़मर्रा के जीवन में हर स्तर पर मोरल पुलिसिंग से गुजरना पड़ता है। घर से लेकर बाहर तक हर जगह उस पर नज़र रखकर मोरल पुलिसिंग की जाती है। मोरल पुलिसिंग महिलाओं से महिलाओं की यौनिकता को नियंत्रित किया जाता है। महिलाओं को अपनी हर छोटी से छोटी पसंद के लिए आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है। रोजमर्रा के जीवन में इन छोटी-छोटी बातों को फॉलो करके हम पितृसत्ता को आगे बढ़ाते हैं। 

जेंडर के आधार पर भावनात्मक असमानता

असमानता भरे व्यवहार की वजह से एक इंसान पर क्या असर पड़ता है इसके लिए ठहरकर आपको उस महिला या लड़की के अनुभव को सुनना होगा जो जीवन में तो बहुत कुछ करना चाहती थी लेकिन घर-परिवार ने तय किया था कि शादी के बाद उसे सब कुछ करना चाहिए। शादी के बाद पति ने तय किया की क्या करना है, कैसे जीना है। हमारे घरों में अक्सर हमारी माँ और चाची अपने किसी शौक के लिए कहती नज़र आती हैं कि काश! मैं भी ये कर पाती। यह काश उसी भावनात्मक असमानता से उपजा है जहां उन्हें उनकी लैंगिक पहचान और जेंडर की अवधारणा की वजह से किसी काम को करने के लिए रोका जाता है। पढ़ाई में विषय हो या फिर बचपन के खेल-खिलौने ही क्यों न हो अक्सर लड़कियों को उनके मन की करने से रोका जाता है। छोटी बच्चियों को पराया कहकर उन्हें पिता के घर को अपना घर कहने से रोका जाता है। 

देर रात हो या सड़को पर आवाजाही हो लड़कों के लिए अलग नियम है और लड़कियों के लिए अलग। सुरक्षा की अवधारणा रचकर पितृसत्ता छोटी उम्र में लड़कियों पर इस तरह के नियम थोपना शुरू कर देती है और जो ताउम्र, हर जगह, हर क्षेत्र में चलते है।

मध्यप्रदेश की शीतल का कहना है, “बचपन से ही जो छोटी-छोटी बातों पर लड़कियों के साथ भेदभाव होता है यह बहुत निराश करता है। किसी बात पर टोक देना, ये नहीं करना सिर्फ इसलिए कि आप लड़की हो। ये बातें हल्की-फुल्की लगती होगी लेकिन आज भी भुलाए नहीं भूलती है। मुझे याद है कि मेरे घर में बचपन में जब ये कहां जाता था कि तुझे तो दूसरे घर जाना है, ये तेरा घर नहीं है मैं रो पड़ती थी। अपने पापा से अक्सर सवाल करती थी कि भाई को तो कोई ऐसा नहीं कहता मुझे क्यों बोला जाता है। इस तरह की बातें मन में चुभती थी। ख़ासतौर पर जब आप बहुत छोटे होते हैं और रिश्तों और परिवार के नाम पर जो रिवाज़ बनाए जाते हैं उनको नहीं समझते हो। मैं आज भी पुरानी इस तरह की बातों को याद करके बुरा ही महसूस करती हूं।” 

“पहले घर के पुरुष खाना खाते हैं, तुम यह करके क्या करोगी, ये भी कोई शौक है फिजूल खर्च है,” जैसी बातें कहकर अक्सर लड़कियों और महिलाओं को उनके मन की करने से रोका जाता है। इन सब बातों का महिलाओं के आत्मविश्वास को कम कर दिया जाता है। उनकी बातों को अनसुना किया जाता है, उनकी राय को कमतर मानकर उनका मजाक उड़ाया जाता है ये चलन हमारे दैनिक जीवन में इतना सामान्य है कि हमें इसमें कोई बुराई तक नज़र नही आती है। लेकिन ये छोटी-छोटी बातें भावनात्मक असमानता की खाई बना देती हैं। 

अगर किसी बड़े शहर में अपने फोन पर बैठकर आप ये लेख पढ़ रहे हैं तो वह आपका विशेषाधिकार है जो महिलाओं ने कमाया है और पुरुषों को तो उनकी लैंगिक पहचान की वजह से मिला है। इससे इतर हमारे घरों में रोज़मर्रा के जीवन में आज भी छोटी-छोटी चीजों और बातों पर इस तरह से पितृसत्ता को बढ़ाया जाता है। अगर हम अपने रोजमर्रा के जीवन में छोटे-छोटे कदम उठाकर स्थिति को बदलने की कोशिश करेंगे तो एक समावेशी समाज बना पाएंगे।


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