“मेरा मानना है कि महान शहर में, या यहां तक कि एक छोटे से शहर या गांव में, एक महान रंगमंच एक आंतरिक संभावित संस्कृति का बाहरी संकेत दृश्य होता है।” यह कथन है इंग्लिश अभिनेता, निर्देशक लॉरेंस ओलिवर का। ऑलिवर के कथन से सहमति रखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि एक रंगमंच या थियेटर किसी भी समुदाय, जगह आदि की छिपी हुई संस्कृति को बाहर लाकर हम सभी के सामने रख देता है। हमारे देश में जाति, वर्ग, जेंडर आदि आधारों पर बंटा हुआ है। हर एक समुदाय का हमारे देश में अपनी एक विशेष संस्कृति है, संघर्ष है मूलभूत सुविधाओं के लिए, मुख्यधारा में शामिल होने के लिए।
क्या है बुढन थियेटर?
अपने इसी संघर्ष को जन जन तक पहुंचाने के उद्देश्य से विमुक्त जाति के छारा समुदाय के युवक अपना खुद का थियेटर ग्रुप, बुढन थियेटर अहमदाबाद, गुजरात में चलाते हैं। छारानगर, जहां से इस थियेटर ग्रुप की शुरुआत हुई, छारा समुदाय का घेट्टो है। यह ग्रुप 1998 में भाषाविद्, आदिवासी कार्यकर्ता प्रोफेसर गणेश देवी, जीएन देवी और महाश्वेता देवी ने मिलकर बनाया था। हमने भारतीय परिपेक्ष्य में रंगमंच के कई प्रकार सुने हैं जैसे नौटंकी, रासलीला, स्वांग आदि लेकिन ये बुढन थियेटर कुछ नया और अलग है।
बुढन थियेटर सामुदायिक मेहनत और कोशिश का नतीजा है। इस थियेटर का नाम जिन पर रखा गया है जो कि एक आदिवासी थे जिन्हें एक अपराधी घोषित कर दिया गया था, फिर पश्चिम बंगाल की पुलिस कस्टडी में इनकी हत्या कर दी थी। इन्हीं के नाम से थियेटर ग्रुप का नाम रखा गया, न्याय की मांग को दर्शाते हुए और अन्याय को याद रखते हुए। यही वजह थी कि इस थियेटर ग्रुप ने अपना सबसे पहला नाटक ‘बुढन’ नाम से ही परफॉर्म किया था। इसमें बुढन सबर की हत्या को मार्मिक तरीके से प्रदर्शित किया गया और उनके लिए न्याय की मांग उठाई गई।
बुढन के अलावा इस समूह ने अन्य नाटक जैसे चोली के पीछे क्या है, द बालकनी, पाटा, भूख, एनकाउंटर, द एक्सीडेंटल डेथ ऑफ़ एन अनार्किस्ट किए हैं। चोली के पीछे क्या है, महाश्वेता देवी की कहानी ब्रेस्ट गिवर पर आधारित था और द एक्सीडेंटल डेथ ऑफ़ एन अनार्किस्ट गुजरात के संदर्भ में था। नाटकों को ऑडिटोरियम में दिखाने के लिए भी इस समूह ने संघर्ष किया है। इसी के चलते थियेटर ग्रुप ‘स्टेज’ का मोहताज़ नहीं रहा और ये एक्सपेरिमेंटल थियेटर करने लगे जिसके तहत बस, ट्रेन, मोहल्ला कहीं भी परफॉर्म किया जा सकता है। गणेश देवी, जीएन देवी, महाश्वेता देवी ने सिर्फ़ थियेटर ग्रुप नहीं बनाया था बल्कि ये मानते हुए कि समुदाय के विकास के लिए शिक्षा, किबातें कितने महत्वपूर्ण हैं उन्होंने छारानगर लाइब्रेरी की स्थापना भी समुदाय के बच्चों, युवकों के लिए की थी। दरअसल यही लाइब्रेरी थियेटर ग्रुप का जन्म स्थान भी थी।
यह ग्रुप 1998 में भाषाविद्, आदिवासी कार्यकर्ता प्रोफेसर गणेश देवी, जीएन देवी और महाश्वेता देवी ने मिलकर बनाया था। हमने भारतीय परिपेक्ष्य में रंगमंच के कई प्रकार सुने हैं जैसे नौटंकी, रासलीला, स्वांग आदि लेकिन ये बुढन थियेटर कुछ नया और अलग है।
विश्वविद्यालयों से, अलग-अलग जगहों से किताबें आईं और थियेटर, पत्रकारिता के कोर्स से जुड़ी किताबें भी लाइब्रेरी तक लाई गई और छारा समुदाय के युवाओं के लिए यह एक लर्निंग सेंटर साबित हुआ। समुदाय के भीतर जब समुदाय के बच्चों, युवाओं के द्वारा इस तरह का सेंटर जब अस्तित्व में आता है तब सामुदायिक संघर्ष में समर्थन तो मिलता ही है, साथ ही अपने संघर्ष को ‘सच्चा’ दिखाने का बोझ सिर पर नहीं आता। यह तब महसूस होता है जब ऐसे ही लर्निंग सेंटर ‘गरीबों के सशक्तिकरण’ के नाम पर सवर्णों द्वारा चलाए जाते हैं।
यह थियेटर ग्रुप अपनी कला का इस्तेमाल समुदाय के विकास के लिए करता है। हमने ग्रुप की वेबसाइट देखी जिसे खोलते ही पहले पेज पर उनके होने का उद्देश्य साफ़-साफ़ शब्दों में ये लिखा हुआ है -“हमारा मिशन विमुक्त जनजातियों की ऐतिहासिक दुर्दशा के बारे में जागरूकता बढ़ाकर सामाजिक परिवर्तन लाना है, विशेष रूप से छारा समुदाय, जिसने अपराधी के रूप में कलंकीकरण किए जाने की वजह से शारीरिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक संघर्ष का सामना किया है। हमारा उद्देश्य इन अद्वितीय मुद्दों पर जोर देने के लिए अभिव्यक्तिवादी रंगमंच का संचालन छारों की प्रतिभा को प्राकृतिक कलाकारों के रूप में उपयोग करके करना है।”
बुढन थियेटर नुक्कड़ नाटक से लेकर इंटिमेट थियेटर, एक्सपेरिमेंटल थियेटर का प्रदर्शन समुदाय के प्रति भेदभाव, विमुक्त जनजाति के लोगों के साथ हो रही हिंसा से अवगत करवाने के लिए करते हैं। ये खुद को इप्टा और बर्टोल्ट ब्रेख़्त से प्रभावित पाते हैं। यह ग्रुप सिर्फ़ ज़मीन पर ही नहीं सोशल मीडिया जैसे यूट्यूब पर भी मौजूद है जहां आप इनके नाटक, पॉडकास्ट आदि देख, सुन सकते हैं।
कौन हैं डिनोटिफाइड ट्राइब्स जिसका हिस्सा है थियेटर ग्रुप का यह छारा समुदाय?
डिनोटिफाइड ट्राइब्स भारत की वे ट्राइब्स हैं जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट 1871 के तहत तकरीबन दो सौ से ज़्यादा ट्राइब्स को जन्म से ही ‘क्रिमिनल’ यानी अपराधी घोषित कर दिया था जिनके लिए बेल तक का प्रावधान नहीं था। जिस इलाके में ये ट्राइब्स रहती थीं उन्हें अपने नज़दीकी पुलिस थाने में ख़ुद को दर्ज करवाना होता था। उनका ऐसा न करना भी उन्हें अपराधी साबित करता था। इस क्रूर, अमानवीय कानून को स्वतंत्र भारत में भारतीय सरकार ने 1949 में ख़त्म कर, नये कानून हैबिचुअल ऑफेंडर्स एक्ट 1952 से बदल दिया था जिसके तहत इन क्रिमिनल करार दी गईं ट्राइब्स को डिनोटिफाइड किया गया लेकिन पुलिस को यह अधिकार भी दिया गया कि वे उनके जीवन जीने की शैली सही है या नहीं, यह सुनिश्चित करे। यानी की ब्रिटिश सरकार ने जो कानून इन सुमदायों के लिए बनाया था उसका ही लाइटर वर्जन भारत सरकार ने पारित कर दिया था।
बुढन थियेटर नुक्कड़ नाटक से लेकर इंटिमेट थियेटर, एक्सपेरिमेंटल थियेटर का प्रदर्शन समुदाय के प्रति भेदभाव, विमुक्त जनजाति के लोगों के साथ हो रही हिंसा से अवगत करवाने के लिए करते हैं। ये खुद को इप्टा और बर्टोल्ट ब्रेख़्त से प्रभावित पाते हैं।
यूएन की एंटी डिस्क्रिमिनेशन बॉडी ‘कमिटी ऑन द एलिमिनेशन ऑफ़ रेशियल डिस्क्रिमिनेशन’ ने भारत सरकार से मार्च 2002 में हैबिचुअल ऑफेंडर्स एक्ट 1952 को हटाने की सिफारिश की थी और डीनोटिफाइड ट्राइब्स के पुनर्वास की बात रखी थी। बावजूद इसके 2014 में जाके विशेष कमीशन भीकुजी इडाते के नेतृत्व में गठित किया गया, इन ट्राइब्स के लिए अलग रिजर्वेशन की मांग रखी गई लेकिन पहले से ही दिए जा रहे एससी, एसटी, ओबीसी रिजर्वेशन में इन्हें फिट कर दिया। अभी भी खुद के समुदाय के गढ़ दिए गए मानकों को लेकर ये संघर्षरत हैं, रोज़ इस मुख्यधारा से लड़ रहे हैं, अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
कैसे बुढन थियेटर ‘अपराधी’ होने के टैग को समुदाय से हटा रहा है?
बुढन थियेटर में ज़्यादा तादाद छारा समुदाय के युवाओं की है जिनमें से कुछ युवा पढ़े लिखे हैं, देश के सर्वश्रेष्ठ विश्विद्यालयों से पढ़कर आए हैं, फिल्में बना रहे हैं, ड्रामा कर रहे हैं और क्रिमिनल करार दी गई धारणा को तोड़ रहे हैं। थियेटर के कुछ प्रमुख लोगों में शामिल हैं – दक्षिन बजरंग छारा, कल्पना गगडेकर, रॉक्सी गगडेकर, आतिश इंद्रेकर, आलोक गगड़ेकर।
दक्षिन छारा एक फिल्म मेकर भी हैं जिन्होंने थियेटर के साथ मिलकर 120 तकरीबन फिक्शन, नॉन फिक्शन फिल्में समुदाय के प्रति हिंसा, आदि मुद्दों पर बनाई हैं। थियेटर, लाइब्रेरी से यह तो है कि छारा समुदाय आर्ट पसंद है। साहापीडिया को 2020 में दिए गए इंटरव्यू में दक्षिन बजरंग छारा से ये पूछने पर कि आर्ट के और किस आर्ट में छारा समुदाय संलिप्त है वह बताते हैं कि छारा समुदाय म्यूज़िक, में इतना ज़्यादा संलिप्त है कि किसी बच्चे से गाने को कहें तो आप उसका गाना सुनकर ये समझेंगे कि इसने कहीं से सीखा होगा लेकिन ऐसा है नहीं, ये उनके जीन्स में ही शामिल है।
म्यूजिक के बाद धीरे-धीरे फिल्म मेकर्स भी अब समुदाय से निकल रहे हैं। लॉयर, डांसर्स, एक्टर्स भी निकल रहे हैं। डेनोटिफाइड ट्राइब्स के सर से क्रिमिनल होने का टैग ज़रूर कागजों पर से हट गया लेकिन लोगों के बीच से यह छवि अभी तक नहीं गई है, यही है कि हम अपने आसपास सुनते हैं कि तथाकथित असभ्य व्यवहार करने पर बच्चे को कंजड़ कहा जाता है जबकि यह एक घुमंतु जनजाति है। ऐसे ही अनेक रूढ़िवाद को तोड़ने का काम बुढन थियेटर कर रहा है।
स्रोत:
1- Sahapedia
2- Wikipedia
3- Budhan Theatre