इंटरसेक्शनलजेंडर क्यों पितृसत्तात्मक समाज में केवल ‘अच्छी औरत’ ही सम्मान की हक़दार होती हैं

क्यों पितृसत्तात्मक समाज में केवल ‘अच्छी औरत’ ही सम्मान की हक़दार होती हैं

पुरुषवादी समाज में किसी स्त्री द्वारा पुरुष को अपना मित्र बनाना या उससे हंसकर बात करना, अपने फ़ैसले खुद लेना, अपनी आज़ादी के लिए आवाज़ उठाना, हिंसा का विरोध करना, तथाकथित सामाजिक मर्यादा का पालन न करना, देर रात तक घर के बाहर रहना या अपने मन-पसंद कपड़े पहनना आदि तथाकथित 'बुरी स्त्री' के लक्षण माने गए हैं।

‘चरित्रहीन’ और ‘वेश्या’ ये दो शब्द पितृसत्तात्मक समाज द्वारा तथाकथित ‘बुरी स्त्रियों’ को बेइज़्ज़त करने के लिए निर्धारित एक ऐसी गाली है जो यह बात स्पष्ट करती है कि अमुक स्त्री सामाजिक सम्मान की हक़दार नहीं। इस गाली से सबसे ज्यादा वे स्त्रियां प्रभावित होती हैं जो समाज में अपने सामाजिक या व्यक्तिगत जीवन को लेकर सक्रिय हैं और अपनी मर्ज़ी से अपना जीवन जीती हैं। हमारा समाज ऐसी स्त्रियों को सम्मान या सुरक्षा के घेरे से बाहर हाशिए पर धकेल देता है।

शायद हमारे समाज का हर एक शख्स इस बात से वाकिफ़ नहीं है कि ‘सुशील औरत’ और ‘बाज़ारू औरत’ की परिभाषाएं पितृसत्तात्मक समाज द्वारा गढ़ी गईं है। इसलिए हमारे समाज की प्रत्येक स्त्री इस बात को अच्छी तरह गांठ बांधकर रखती है कि पितृसत्तात्मक समाज के नियमों के विरुद्ध जाते ही यह समाज किस तरह उसे बड़ी आसानी से ‘बुरी स्त्री’ की श्रेणी में धकेल देगा। वह यह भी जानती है कि एक बार ‘बुरी स्त्री’ की श्रेणी में धकेल दिए जाने के बाद उनके लिए समाज की नज़र में ‘अच्छी स्त्री’ बनने के सारे रास्तों पर ताला लग जाएगा।

पुरुषवादी समाज में किसी स्त्री द्वारा पुरुष को अपना मित्र बनाना या उससे हंसकर बात करना, अपने फ़ैसले खुद लेना, अपनी आज़ादी के लिए आवाज़ उठाना, हिंसा का विरोध करना, तथाकथित सामाजिक मर्यादा का पालन न करना, देर रात तक घर के बाहर रहना या अपने मन-पसंद कपड़े पहनना आदि तथाकथित ‘बुरी स्त्री’ के लक्षण माने गए हैं।

एवरेस्ट दो बार फतह करनेवाली दुनिया की पहली माउंटेनियर संतोष यादव ने दृढ़तापूर्वक कहा था, ‘एवरेस्ट पर विजय पाना आसान है, लेकिन सामाजिक रूढ़ियों और असमानता के संस्कारों से पार पाना असंभव है, क्योंकि एवरेस्ट शिखर पर एक बार में चढ़ा जा सकता है, लेकिन गैर-बराबरी की खाइयों से तो हर रोज गुज़रना पड़ता है।” 

शायद हमारे समाज का हर एक शख्स इस बात से वाकिफ़ नहीं है कि ‘सुशील औरत’ और ‘बाज़ारू औरत’ की परिभाषाएं पितृसत्तात्मक समाज द्वारा गढ़ी गईं है। इसलिए हमारे समाज की प्रत्येक स्त्री इस बात को अच्छी तरह गांठ बांधकर रखती है कि पितृसत्तात्मक समाज के नियमों के विरुद्ध जाते ही यह समाज किस तरह उसे बड़ी आसानी से ‘बुरी स्त्री’ की श्रेणी में धकेल देगा।

हमारे समाज में स्त्री जब तक पितृसत्तात्मक व्यवस्था का समर्पित पुर्जा बनी रहती है तब तक उसे श्रद्धा और सम्मान की दृष्टि-से देखा जाता है, लेकिन जैसे ही वह पुरुषों की इच्छा और स्वार्थ के ख़िलाफ़ अपने करियर का चुनाव करती है, अपने साथी का चुनाव करती है, अविवाहित माँ बनती है या किसी पुरुष से दोस्ती करती है तो उसे ‘बुरी स्त्री’ की श्रेणी में शामिल कर दिया जाता है। यह समाज स्त्री को न तो चुनाव का अधिकार देता है न ही बराबरी का।

स्त्रियां इस पुरुष शासित समाज में बाहर जाकर काम करने, सिगरेट या शराब पीने, पश्चिमी देशों की स्त्रियों की वेशभूषा अपनाने, पुरुषों से बोलने बतियाने या हंसी-मज़ाक करने तक के लिए भी स्वतंत्र नहीं हैं। अगर वें ऐसा करती हैं तो यह समाज उनसे ‘अच्छी स्त्री’ होने का हक़ छीन लेता है। इस सन्दर्भ में या उपर्युक्त लक्षणों के आधार पर यह समाज पुरुष की अच्छी या बुरी छवि की ऐसी कोई मिसाल पेश नहीं करता।

सेक्सवर्कर्स को गाली बनानेवाला समाज क्या उनके संघर्षों से वाकिफ़ है?

पितृसत्तात्मक समाज सेक्सवर्कर्स को सामाजिक नियमों की मर्यादा के खिलाफ़ मानता है और सेक्सवर्कर्स को सामाजिक सम्मान और सुरक्षा के योग्य तो बिल्कुल नहीं समझता। उन्हें हर प्रकार की सुरक्षा के दायरे से बाहर कर दिया जाता है। 2022 में आई फ़िल्म ‘गंगुबाई कठियावाड़ी’ में इसी सामाजिक सत्य को दर्शाने की कोशिश की गई है कि किस प्रकार यह पुरुष समाज सेक्सवर्कर्स और उनके बच्चों को समाज में रहने के लायक नहीं समझता और उनसे नागरिक होने के तमाम अधिकार छीन लेना चाहता है।

हम देखते हैं कि यह पुरुषवादी समाज किस प्रकार केवल उन्हीं स्त्रियों को सुरक्षा और सम्मान के काबिल मानता है जो आचार-विचार, सोच, रहन-सहन में पितृसत्तात्मक व्यवस्था की सारी मर्यादाओं के निर्वहन की ज़िम्मेदारी उठाती हैं।

सेक्सवर्कर्स के साथ-साथ उनके बच्चों के साथ भी अमानवीय व्यवहार करता है और उनसे मनुष्य कहलाने का हक़ छीन लेता है। हर स्तर पर महिलाओं के लिए चुनौती खड़ाकर यह समाज इनके पेशे को फिर एक गाली बना देता है। साथ ही इस गाली का इस्तेमाल उन महिलाओं के लिए करता है जो सार्वजानिक जीवन में सक्रिय होती हैं क्योंकि पितृसत्ता के ढांचे में ‘कलंक’ लगाने और इसे चुनौती देने का दोषी उन्हीं को माना जाता है।

ख़ासकर ऐसी गालियों का इस्तेमाल अविवाहित स्त्रियों के लिए होता है क्योंकि वे पितृसत्तत्मक वैवाहिक बंधन से मुक्त होती हैं। यह पितृसत्ता की एक बहुत बड़ी चिंता को जन्म देता है जो महिलाओं की यौनिकता को नियंत्रित करना चाहता है। यह एक ऐसा सच है जिसे यह पुरुषवादी समाज कभी स्वीकार नहीं करता। इसी तरह इस पितृसत्तात्मक समाज में सेक्सवर्कर्स की स्थिति की कल्पना करके देखिए जहां वे हर रोज़ यौन-शोषण का सामना करती हैं और उल्टा यही समाज उन्हें मान-मर्यादा एवं प्रतिष्ठा के अयोग्य समझता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि यह पुरुषवादी समाज किस प्रकार केवल उन्हीं स्त्रियों को सुरक्षा और सम्मान के काबिल मानता है जो आचार-विचार, सोच, रहन-सहन में पितृसत्तात्मक व्यवस्था की सारी मर्यादाओं के निर्वहन की ज़िम्मेदारी उठाती हैं। स्त्रियों को दिए जानेवाले सामाजिक और परिवारिक सम्मान, सुरक्षा और प्रतिष्ठा पितृसत्तात्मक समाज द्वारा निर्धारित नैतिक मर्यादाओं द्वारा तय किए जाते हैं। इसके विपरीत आती हैं वें स्त्रियां जो इस समाज द्वारा निर्धारित नियमों का अतिक्रमण करती हुई  पितृसत्ता की बेड़ियों को तोड़ खुद को स्वतंत्र घोषित करती हैं, जिन्हें ये पुरुषवादी समाज हीन भावना से देखता है, इन महिलाओं से घृणा करता है और किसी भी प्रकार अपनी आपराधिक प्रवृत्ति से इनका शोषण करता है।


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