हम साल 2022 के आखिरी पड़ाव पर हैं। हर साल की तरह इस साल भी फेमिनिज़म इन इंडिया आपके लिए लेकर आया है उन बेहतरीन 22 लेखों की सूची जिन्हें आपने सबसे ज्यादा पसंद किया और पढ़ा।
1- टेपवर्म डाइट से लेकर फुट बाइडिंग : महिलाओं को ‘सुंदर’ बनाने के पितृसत्तात्मक तरीकों का इतिहास– मालविका
इतिहास में जाएं तो, महिलाओं के लिए इजात हुए सभी सुंदरता के पैमाने पितृसत्तात्मक समाज ने बनाए थे, जो महिलाओं को एक निर्दिष्ट रूप में देखना चाहते थे और सिर्फ उस रूप को ही सुंदर मानता रहा। अलग-अलग दौर में, अलग-अलग समुदायों ने महिलाओं को सुंदर दिखने के लिए नियम बनाए और महिलाओं का उन नियमों का अनुसरण करना सुनिश्चित किया। जहां पुरुषों के लिए मूलतः ‘मर्दाना’ होना ही पर्याप्त रहा, महिलाओं को सुंदर माने जाने के लिए अलग-अलग मानदंड बनते रहे। मसलन, विक्टोरियन युग में एक निश्चित वजन पाने के लिए महिलाएं टेपवर्म सिस्ट गोली के रूप में लेती थी। दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में अक्सर महिलाओं के प्राकृतिक रूप से सफ़ेद दांतों को काला कर दिया जाता था। ऐसा माना जाता था कि यह परिपक्वता और सुंदरता का प्रतीक है। दुनिया भर में महिलाओं की सुंदरता के लिए अपनाए गए विभिन्न नुस्खों की बात हम इस लेख के ज़रिये कर रहे हैं।
2- महिलाएं क्यों नहीं उड़ाती पतंग और इसकी पितृसत्तात्मक कमान की पहचान| नारीवादी चश्मा– स्वाती
जनवरी-फ़रवरी का मौसम उत्तर भारत में पतंगों का मौसम भी माना जाता है, जब सर्दी की गुनगुनी धूप के चमकते आसमान में रंगीन पतंगे उड़ती दिखायी देती है। बचपन में जब भी मेरा भाई पतंग उड़ाता तो मैं पंतग को ऊँची उड़ान भरने के लिए पतंग को छुट्टी देना करती, जिससे भाई की पतंग जल्दी ऊँची उड़ान भर सके और इससे मैं बहुत खुश होती कि मेरी दी हुई छुट्टी से भाई की पतंग ऊँची उड़ान भर रही है। ठीक उसी तरह जैसे बाक़ी लड़कियाँ किया करती थी। इसके साथ ही, पतंग के धागे समेटना और कटी पतंगों को समेटकर सहेजने जैसी वो सारी ज़िम्मेदारी अपने हिस्से आती जिससे भाई को पतंग उड़ाने में कोई दिक़्क़त न हो। ये सब बहुत सामान्य और सहज होता, क्योंकि आसपास की लड़कियाँ भी ऐसा ही करती या ये कहूँ कि हम लड़कियाँ ऐसा व्यवहार करने के लिए ही तैयार की जाती है। ‘पतंग उड़ाने’ के अलावा लड़कियाँ वो सभी काम करती जिससे भाई, चाचा या मामा, यानी कि किसी भी पुरुष को पतंग उड़ाने में मदद मिले।
3- #MarriageStrike : भारतीय मर्दों ने चलाया एक ट्रेंड मैरिटल रेप के बचाव में– रितिका
मैरिटल रेप क्या है? इसका सीधा सा जवाब है शादीशुदा रिश्ते में अपने साथी की मर्ज़ी के बिना, जबरन यौन संबंध बनाना। जबरन यौन संबंध बनाना ही बलात्कार कहलाता है। दिसंबर, 1993 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के उन्मूलन पर अपने घोषणापत्र में मैरिटल रेप को एक अपराध माना था। अब तक 50 से अधिक देशों में मैरिटल रेप को अपराध माना जा चुका है। अफ़सोस! भारत उन देशों में शामिल है जहां पुरुषों की एक आबादी ‘रेप के डिफेंस’ में हर तरह के तर्क पेश कर रही है। अगर आप इस ट्रेंड पर जाएंगे तो आपको दिखेगा कि औरतें कैसे शादी के ज़रिये मर्दों का शोषण कर रही हैं, उन्हें नकली मुकदमों में फंसा रही हैं। शादी कैसे औरतों के लिए ‘गोल्ड डिंगिंग’ का ज़रिया बन गया है। ‘बेचारे, बेबस मर्द’ भारतीय औरतों के चंगुल में फंसकर अपनी ज़िंदगी जेल में काटने को मजबूर हैं। ट्विटर पर इस ट्रेंड को अपनी सफलता मान बैठे इन प्रिविलेज्ड मर्दों की मानें तो, “200 रुपये में सेक्स के लिए तो सेक्स वर्कर्स तैयार हो जाती हैं, तो वे शादी क्यों करें।” जिन मर्दों के लिए शादी सेक्स का लाइसेंस हो उनसे हम सेक्स वर्कर्स के लिए संवेदनशीलता की उम्मीद कैसे पालें। वह भी उन मर्दों से जो जी जान से लगे हुए हैं यह साबित करने में कि मैरिटल रेप कैसे एक जुर्म नहीं है।
4- पूर्णा मालावथः सबसे कम उम्र में माउंट एवरेस्ट फतह करने वाली दुनिया की पहली लड़की– पूजा
फेमिनिज़म इन इंडिया हिंदी से बात करते हुए पूर्णा मालावथ ने बताया, “ये सारी उपलब्धियां हासिल करना बहुत गर्व की बात है। लोग मुझे बुलाते हैं, बात करते हैं यह सब बहुत खुशी भरा होता है। मैं एक छोटे से गांव से आती हूं। जहां पर आगे निकलकर बोर्डिग स्कूल में पढ़ाई कर, ये सब हासिल करना न सिर्फ मेरा जीवन बदला है बल्कि मेरे समाज की भी सोच बदली है। यह बहुत खुशी की बात है। लड़कियां किसी से कम नहीं हैं वे सब कुछ कर सकती हैं। जब मैं कर सकती हूं तो कोई भी कर सकता है केवल सपोर्ट की ज़रूरत है। हर कोई बराबर है उसको केवल समान मौके देने की जरूरत है। मेरी उपलब्धियों के बाद मेरे गांव की तस्वीर बदली है। आज मेरा उदाहरण देकर कई लड़कियों को स्कूल पढ़ने भेजा जा रहा हैं। लड़कियों की कम उम्र में शादी नहीं हो रही है। ये बदलाव बहुत अच्छा है। अपने इस सफर के बारे में पूर्णा मालावथ ने आगे कहा, “मेरे परिवार, मेरे सर प्रवीण कुमार और कोच का मेरी इस जर्नी में बहुत बड़ा योगदान रहा है। मैं आज दुनिया देख रही हूं। सबने मुझे बहुत प्रोत्साहित किया है। मेरी जिम्मेदारी बनती है कि मैं आगे सब बेहतर करती रहूं और समाज के लिए कुछ अच्छा करूं।”
5- ख़ास बात: निम्न मध्यवर्गीय-गँवई औरतों को कविताओं में पिरोती कवयित्री रूपम मिश्र से– गायत्री
“अगर सीधा-सीधा कहूं तो मेरे मन में एक तरह का संकोच है जिससे मैं हर रोज़ जूझती रहती हूं। बहुत कुछ है जो मुझे कहना है, लेकिन अभी तक मैं उसे कह नहीं पा रही हूं। कई बार तो कविताओं में सारी बातें आ भी नहीं पाती हैं, इसलिए मैं कहानियों की ओर भी मुड़ी। इस तरह, अभिव्यक्ति की ओर मेरी कोशिश, मेरा संघर्ष अपने स्तर पर निरंतर जारी है। एकाध बार मन में आता है कि शायद अभी मेरे भीतर उतना साहस नहीं है, जिससे मैं वह सब कुछ कह सकूं, जो कहना चाहती हूं लेकिन हो सकता है कि बाद में मुझ में वह साहस आ पाए और मैं अपना सच पूरी तरह कह पाऊं।”
6- खिलाड़ी से लेकर प्रशिक्षक तक, कितना कठिन है महिलाओं के लिए स्पोर्ट्स पर्सन होना– शिशिर
“लड़कियों के लिए खेलने का संघर्ष उनके घर से ही शुरू हो जाता है। अगर घर में कोई स्पोर्ट्स किट लेकर आनी हो तो हम पहले अपने बच्चे (लड़के) के लिए लाते हैं और अपनी लड़की से कहते हैं कि बेटा आपको अगले साल लाकर देंगे या फिर लड़के द्वारा इस्तेमाल कर ली गई किट उसे देते हैं और उससे ही संतोष करने को कहते हैं। इस तरह से लड़कियों के लिए खेल की लड़ाई सबसे पहले सामाजिक मानसिकता के स्तर से शुरू होती है।” यह कहना है मध्यप्रदेश के रायसेन में बतौर जिला क्रीड़ा अधिकारी पदस्थ राजेश यादव का। इस बात पर विचार करने पर यह समझा जा सकता है कि एक लड़के के बजाय एक लड़की के लिए खेल की डगर कितनी मुश्किल है। बड़े शहरों में स्थित महंगे इंटरनेशनल स्कूल के बरक्स गाँव और छोटे शहरों में पढ़नेवाली लड़कियों के लिए तो खेल को अपने भविष्य के रूप में देखना लगभग नामुमकिन सा एक सपना है।
7- हमारा समाज योनि और स्तनों को हमेशा इतना सेक्सुअलाइज़ क्यों करता है? सौम्या
“लड़कियों के लिए खेलने का संघर्ष उनके घर से ही शुरू हो जाता है। अगर घर में कोई स्पोर्ट्स किट लेकर आनी हो तो हम पहले अपने बच्चे (लड़के) के लिए लाते हैं और अपनी लड़की से कहते हैं कि बेटा आपको अगले साल लाकर देंगे या फिर लड़के द्वारा इस्तेमाल कर ली गई किट उसे देते हैं और उससे ही संतोष करने को कहते हैं। इस तरह से लड़कियों के लिए खेल की लड़ाई सबसे पहले सामाजिक मानसिकता के स्तर से शुरू होती है।” यह कहना है मध्यप्रदेश के रायसेन में बतौर जिला क्रीड़ा अधिकारी पदस्थ राजेश यादव का। इस बात पर विचार करने पर यह समझा जा सकता है कि एक लड़के के बजाय एक लड़की के लिए खेल की डगर कितनी मुश्किल है। बड़े शहरों में स्थित महंगे इंटरनेशनल स्कूल के बरक्स गाँव और छोटे शहरों में पढ़नेवाली लड़कियों के लिए तो खेल को अपने भविष्य के रूप में देखना लगभग नामुमकिन सा एक सपना है।
8- लैंगिक समानता पर आदिवासी समुदाय के दोहरे चरित्र की झलकियां– ज्योति
ग्राम सभा की सामाजिक बैठकों के बारे में हसदेव अरण्य आंदोलन में मुख्य भूमिका निभानेवाली सामाजिक कार्यकर्ता शकुंतला एक्का का कहना था, “ग्राम सभा की बैठकों में ग्रामीण महिलाएं केवल एक भीड़ होती हैं। वे सामाजिक निर्णयों में निर्णायक की भूमिका नहीं निभाती न ही पुरुष उनके फैसलों का सम्मान करते हैं पुरुष तीखे तेवर में कहते हैं कि क्या महिलाएं पुरुषों से ज्यादा जानती हैं? समुदाय में पुरुषों का व्यवहार आज भी हावी ही है। हालांकि, छत्तीसगढ़ में अब बहुत ही धीमे बदलाव नज़र आ रहा सामाजिक बैठकों का परिदृश्य बदल रहा है महिलाएं गलत के खिलाफ आवाज़ उठाती हैं और अपनी बात रखती हैं।”
9- टू फिंगर टेस्ट: रेप सर्वाइवर की गरिमा, गोपनीयता और कानून का उल्लंघन करता एक परीक्षण– मासूम
जागरूकता की यह कमी न केवल सर्वाइवर्स को रिपोर्ट करने से रोक सकती है, बल्कि जब सर्वाइवर्स ने अपराध को रिपोर्ट करने का फैसला किया हो, तब भी जागरूकता की यह कमी उन्हें अधिक आघात और शक्तिहीन महसूस करवाती है। इन्हीं में एक कानून है- ‘टू फिंगर टेस्ट’ पर बैन। पिछले साल, भारतीय वायु सेना (IAF) की एक महिला अधिकारी ने अपने सहयोगी पर बलात्कार का आरोप लगाया था और उसने आरोप लगाया कि यौन उत्पीड़न की पुष्टि करने के लिए उसे अवैध टू-फिंगर टेस्ट से गुज़रना पड़ा। भारतीय वायु सेना की महिला अधिकारी जिसकी शिक्षा और समझ का अंदाज़ा एक आम इंसान भी लगा सकता है लेकिन उन्हें इस टेस्ट से गुज़रना पड़ा।
10- बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर का लोकतांत्रिक समाजवाद– आशिका
बाबा साहब यह बखूबी जानते थे कि राजनीतिक, सामाजिक समानता स्थापित करने के लिए आर्थिक समानता ज़रूरी है। राजनीतिक समानता स्थापित करने के लिए सामाजिक और आर्थिक समानता ज़रूरी है और सामाजिक समानता स्थापित करने के लिए राजनीतिक और आर्थिक समानता स्थापित करना जरूरी है। तीनों ही सिद्धांत एक दूसरे के लिए जरूरी हैं, एक का अभाव सभी का अभाव बनता है।
11- अपने कुर्ते में एक जेब सिलवाना भी ‘संघर्ष’ जैसा क्यों लगता है?– नेहा
हाल ही में जब एक दिन मैं अपने कुछ कपड़े सिलवाने टेलर के यहां गई तो उसे अपने कुर्ते में जेब बनाने के लिए कहा, जिसे सुनते ही वह टेलर मेरा मुंह ऐसे देखने लगा जैसे मैंने कोई बड़ा गुनाह कर दिया हो। उसने तुरंत मुझसे सवाल किया, “तुम्हें जेब की क्या ज़रूरत? बाज़ार तो पापा या भाई के साथ ही जाती हो न। गाँव में ये सब फ़ैशन नहीं चलता है।” टेलर की इस बात पर मेरी उससे ख़ूब बहस हुई और आखिरकार उसने मेरे कुर्ते में जेब बनाने के लिए हामी भरी।
12- कभी सोचा है कि औरतों को घर के काम से एक भी छुट्टी क्यों नहीं मिलती है?– रेणू
कामकाजी महिला, घर संभालने वाली महिला, बिज़नेस करने वाली महिला, शादीशुदा महिला, किसान महिला या सिर्फ़ महिला, इन सबका कोई छुट्टी का दिन नहीं होता है। खासकर ग्रामीण क्षेत्र में या फिर मध्यमवर्गीय परिवार में। महिलाएं चाहे कमाई करने बाहर जाए या न जाए पर घर संभालने का काम हमेशा उनकी ही ज़िम्मेदारी होती है। घर के कामों से उनकी एक भी दिन की छुट्टी नहीं होती है। जब मैं इंटरनेट पर महिलाओं की छुट्टी के बारे में खोजने की कोशिश कर रही थी तो बार-बार महिला दिवस का ज़िक्र सामने आ जा रहा था। बिल्कुल महिला दिवस के माध्यम से महिलाओं के नाम पर एक दिन तो बनाया गया, लेकिन इस दिन हमारे गाँव की औरतें या हमारे घर की औरतें चैन की सांस ले पाती हैं ये कहना मुश्किल है।
13- नीलोत्पल मृणाल केस: सारे सवाल सर्वाइवर से ही क्यों?– ताजवेर
साल 2018 में #MeToo आंदोलन के तहत सिनेमा, पत्रकारिता आदि क्षेत्र में कई बड़े चेहरों पर यौन शोषण के आरोप लगे। लेकिन उस दौरान भी यही देखने में आया कि अकादमिया और साहित्य के क्षेत्र में चुप्पी तोड़नेवालों की संख्या लगभग नगण्य थी। ऐसा नहीं है कि साहित्य का क्षेत्र इससे अछूता हो और जब कुछ दिन पहले साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित लेखक नीलोत्पल मृणाल के ख़िलाफ़ यूपीएससी की तैयारी कर रही एक छात्रा ने अपनी आवाज़ बुलंद करने का साहस किया है तो साहित्य जगत में अजीब खामोशी पसरी हुई है। जबकि लेखक के समर्थन में सर्वाइवर की स्लट शेमिंग करनेवालों की तादाद हर रोज़ बढ़ती नज़र आ रही है। कई लोग यह मान सकते हैं कि जब क़ानूनी कार्रवाई के तहत काम हो रहा है तो अपना मुंह ही क्यों खोलना।
14- बाल विवाह और घरेलू हिंसा नहीं रोक पाए रास्ता, अब बदलाव की ड्राइव पर निकलीं निर्मला– श्वेता
फिलहाल निर्मला के पास अपनी टैक्सी है, जिसे वह खुद चलाती हैं। उत्तर भारत के कई शहरों तक सवारी लेकर जाती हैं। रोजाना 2000 से 2500 रुपए तक कमाती हैं। कुछ लाख का बैंक-बैलेंस भी कर लिया है। दिल्ली से लेकर उत्तर प्रदेश तक जमीन के कुछ टुकड़ों को अपने नाम भी करवा लिया है। ये परिणाम मनोविश्लेषणवाद के संस्थापक सिग्मंड फ्रायड के शब्दों को चरितार्थ करता है। फ्रायड लिखते हैं, “एक दिन वर्षों का संघर्ष बहुत खूबसूरत तरीके से तुमसे टकराएगा।” आज बेखौफ़ होकर कई शहरों का रास्ता नाप देने वाली निर्मला के लिए यह राह आसान नहीं थी। एक वक्त ऐसा भी था जब वह भूख से निपटने के लिए बकरी चराने को मजबूर थीं, दूसरों के घरों में जाकर बुजुर्गों के डायपर बदलने को मजबूर थीं, कोठियों में झाड़ू-पोछा लगाने को मजबूर थीं।
15- एक दिन का सफ़र दिल्ली मेट्रो की ट्रेन ऑपरेटर श्रद्धा के साथ उनकी नज़रों से|#WomenOnStreets– ऐश्वर्य, ताजवेर, निधि
दिल्ली ‘सपनों का शहर’ है। इस शहर में जब भी आर्टिस्टिक कैमरा घूमता है या कोई लो बजट में यह शहर घूमना चाहता है तो दिल्ली मेट्रो नज़र के सामने आती है। लेकिन यही शहर जितने मौके देता है, उतने ही अलग-अलग कल्चरल शॉक्स भी देता है। इसी तरह किसी दिन मेट्रो में सफ़र करते हुए क्या आपने कभी सोचा है कि मेट्रो चला कौन रहा है? ‘रहा है’ क्योंकि ‘रही है’ सोच पाना ऐसी दुनिया में बहुत ही मुश्किल है जहां महिलाओं की ड्राइविंग पर जोक बनते हैं। क्या आप यह सोच सकते हैं कि कौन मेट्रो चला रही? टीओ यानी कि ट्रेन ऑपरेटर। दिल्ली मेट्रो देखकर आप उतने ही आश्चर्य और कंफ्यूज़न से गुज़रे होंगे जिससे इस शहर में ‘सपने देखने वाला/वाली’ हर व्यक्ति गुज़रता है! इस टीओ का नाम है श्रद्धा। पढ़िए उनकी यात्रा के एक हिस्से का दस्तावेज़ीकरण।
16- ख़ास बात: पहली कालबेलिया नर्तकी ‘जिप्सी क्वीन’ पद्मश्री गुलाबो सपेरा से– रिमझिम
गुलाबो सपेरा एक जिप्सी परिवार से संबंध रखती हैं। उनका बचपन बड़ी जटिल परिस्थितियों में गुज़रा। कालबेलिया समाज में लड़कियों को जन्म के बाद जमीन में अंदर जिंदा दफ़ना दिया जाता था। गुलाबो बताती हैं कि उनके जन्म के दौरान उनके माँ -बाप को डर था कि उनकी अगर बेटी हुई तो समाज वाले उसे जिंदा दफन कर देंगे। इस कारण वे दोनों अपने गाँव को छोड़कर शहर आ गए। लेकिन कालबेलिया हमेशा एक साथ एक ही कबीले में रहते हैं। इसलिए जन्म के बाद गुलाबो सपेरा इस प्रथा से बच नहीं पाई।
17- एक नज़र रामचंद्र मांझी, ‘नाच’ और उनके कलाकारों की सामाजिक स्थिति पर– ऐश्वर्य
साल 1925 में जन्मे रामचंद्र मांझी बारह साल की उम्र से भिखारी ठाकुर के साथ काम कर रहे हैं। ‘नाच’ के बारे में बात करते हुए रामचंद्र मांझी ने एक बार कहा था कि मेरा जीवन ‘नाच’ है, मेरे लिए यह साधना की तरह है। ‘लौंडा’ एक बुरा शब्द है, गाली है।” उनके अनुसार तथाकथित उच्च जाति के लोगों ने इस शब्द को लैंगिक और जातिगत भेदभाव की मानसिकता के कारण एक गाली बना दी।
18- डार्लिंग्स: घरेलू हिंसा पर लिए गए इस नये काल्पनिक टेक ने मर्दों को क्यों परेशान कर दिया है?– पूजा
फिल्म में हमारे आस-पास रह रही लाखों औरतों की कहानी कही गई है जो एक अपमानजनक शादी में बरसों-बरस रहती हैं। वे पति के बदलने के उम्मीद में रहती है। बदरू के मामले में भी ऐसा ही है क्योंकि वह सोचती है कि हमज़ा उसे प्यार करता है और उसका प्यार उसे बदल देगा। वह प्यार और हिंसा के व्यवहार में भरोसा रखकर उसके ख़िलाफ पुलिस शिकायत को वापस ले लेती है। वह हमज़ा से बच्चे का वादा कर एक बार फिर उस शादी में बनी रह जाती है।
19- बिलकिस बानो के दोषियों की रिहाई और उनका स्वागत भारतीय न्याय व्यवस्था पर एक ऐतिहासिक धब्बा है– मासूम
न्याय प्रणाली में सजा यह सुनिश्चित करने के लिए दी जाती है कि अपराध करनेवाले आरोपी को पता चले कि उसने कुछ गलत किया है। आरोपी को पछतावा होना चाहिए और पश्चाताप व्यक्त करना चाहिए। लेकिन बिलकिस बानो के केस में ऐसी कोई स्पष्टता नहीं है। इस मामले में दोषियों ने कोई भी इस तरह का पछतावा या पश्चाताप व्यक्त नहीं किया है। न ही उन्होंने व्यक्त किया कि उन्हें खेद है और उन्हें अपने अपराध का एहसास हो गया है। उलटा उनके आने के बाद से बिलकिस बानो भय के माहौल में जीने को मजबूर हैं। यह रिहाई हमारे देश की वर्तमान न्याय प्रणाली पर धब्बा बन कर उभरी है। वर्तमान परिस्थिति पीड़ितों के हक़ में जाती दिखाई नहीं दे रही है। इस पर सर्वोच्च न्यायालय जो कि मौलिक अधिकारों का संरक्षक भी है, को दोबारा से विचार करना होगा ।
20- बात आदिवासी महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य और निजता के अधिकार की– अदसा फ़ातिमा
‘निर्णय कौन लेगा’ वास्तविकता में यह सवाल प्रजनन स्वास्थ्य और अधिकारों की जटिलताओं का उल्लेख करता है। प्रजनन स्वास्थ्य अधिकार को मौलिक मानव अधिकार के रूप में मान्यता मिली है। इसका मतलब यह है कि हर व्यक्ति या दोनों साथियों को स्वतंत्र रूप और ज़िम्मेदारी से प्रजनन संबंधी निर्णय लेने का अवसर मिलना चाहिए। साथ ही उचित जानकारी होना और बेहतर यौन और प्रजनन स्वास्थ्य उनका अधिकार हैI यह निर्णय लेने का अधिकार उनके आसपास के वातावरण को भी बताता है जो कि बिना भेदभाव, ज़ोर-ज़बरदस्ती और हिंसा मुक्त वातावरण होना चाहिए।
21- तारक मेहता का उल्टा चश्मा हमारे जातिवादी समाज के चश्मे की तरह उल्टा क्यों?
पिछले 13 सालों से यह शो चल रहा है और अब तक इस शो ने लगभग 3600 से अधिक एपिसोड पूरे कर लिए हैं। शायद ही कोई ऐसा हो जिसे इस शो के बारे में नहीं पता होगा। घर-घर में मशहूर इस शो को लेकर बहुत से सवाल मेरे मन में उठते रहे हैं। बचपन से इस शो को देख रही हूं। तब शायद एक बचपना था और समाज के प्रति मेरा कोई नज़रिया नहीं था। लेकिन अब बड़े होने के बाद और इस समाज के नज़रिए को समझने के बाद मुझे इसमें बहुत सी असमानताएं दिखती हैं धर्म, जाति, वर्ग, लिंग, नस्ल आदि के आधार पर जिनका अनुभव मैंने अपने जीवन में भी किया है।
22- अवध के लोकगीतों में स्त्री-प्रतिरोध के स्वर का इतिहास– रूपम
हम जब इतिहास में प्रतिरोध करनेवाली स्त्रियों को देखते हैं तो एक गिरती फिर से उठती प्रतिरोधी परंपरा की रोशनी दिखती है। उससे पर्याप्त प्रकाश भले न हो पाया हो लेकिन हमारी प्रतिरोध की परंपरा बहुत आदिम है। तभी ये लोकगीत बने और सदियों से जीवित हैं। समाज की विवाह संस्था को जिस तरह लोकगीत उघाड़ते हैं ये दृष्टि दुर्लभ दिखती है जिसमें वे बाज़ार के दखल को चिन्हित करते हुए बताती है कि यह विवाह संस्कार जीवन से कैसे बड़ा बन गया है।