ग्राउंड ज़ीरो से नागरिकता संशोधन कानून से लेकर भोपाल गैस त्रासदी को झेला है भोपाल के शाहीन बाग की ‘दादी’ सरवर ने

नागरिकता संशोधन कानून से लेकर भोपाल गैस त्रासदी को झेला है भोपाल के शाहीन बाग की ‘दादी’ सरवर ने

हमने दादी से पूछा कि इस उम्र में भी उनको नागरिकता संशोधन कानून के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने की प्रेरणा कहां से मिली थी। इस सवाल पर सरवर दादी ने बताया कि यह पहली बार नहीं था जब वह इस तरह के आंदोलन का हिस्सा बनी थीं। वह सालों से अलग-अलग संघर्षों से जुड़ी रही हैं।

बीते 15 दिसंबर को शाहीन बाग़ आंदोलन के तीन साल पूरे हो गए। नागरिकता संशोधन कानून के ख़िलाफ़ न सिर्फ दिल्ली के शाहीन बाग में प्रदर्शन हुए थे बल्कि देश के अलग-अलग राज्यों और शहरों में भी औरतों ने अपना शाहीन बाग बनाया था। इसी तरह भोपाल शहर के इक़बाल मैदान में शाहीन (चिड़िया) की स्टैचू के नीचे था एक और ‘शाहीन बाग़।’ आज अपने इस लेख के ज़रिये हम आज आपको मिलवा रहे हैं भोपाल शहर के शाहीन बाग की दादी सरवर से। यूं तो देश के अलग-अलग हिस्सों में शाहीन बाग़ और वहां की दादियां अपने संघर्षों के लिए मशहूर हुई हैं, बावजूद इसके छोटे शहरों और कस्बों में प्रदर्शन कर रही औरतों के जज्बे को, उनके संघर्ष को हम सबको जानना चाहिए।

हमने बीते तीन सालों की कहानियां सरवर दादी की ज़ुबानी सुनीं। हमने दादी से पूछा कि इस उम्र में भी उनको नागरिकता संशोधन कानून के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने की प्रेरणा कहां से मिली थी। इस सवाल पर सरवर दादी ने बताया कि यह पहली बार नहीं था जब वह इस तरह के आंदोलन का हिस्सा बनी थीं। वह सालों से अलग-अलग संघर्षों से जुड़ी रही हैं। वह बताती हैं, “हालांकि इससे पहले हम कभी किसी आंदोलन को लेकर दिन-रात घर से बाहर नहीं बैठे थे। भोपाल गैस कांड पीड़ितों के पुनर्वास के लिए हमने कई बार आवाजें उठाई हैं। लेकिन इस बार मैं जब बाहर निकली तो अपने आख़िरी फैसले के साथ बाहर आई थी। पूरे जोश और हिम्मत के साथ, यक़ीन के साथ कि सरकार जब तक इन अमानवीय कानूनों को वापस नहीं लेती हम खुद अपने घर वापस नहीं जाएंगे।”

आगे वह बताती हैं, “हम इस तानाशाही की घुटन में जीने से ज्यादा अपने हक़ और आज़ादी के लिए लड़ते हुए, संघर्ष करते हुए मर जाना चाहते हैं। हमारे पुरखे एक बार पहले भी ब्रिटिश सरकार से आज़ादी के लिए लड़ते हुए, संघर्ष करते हुए इस दुनिया से फ़ानी हो गए। अपनी जिंदगी पूरी होने से पहले, अलविदा कह गए। दूसरों के लिए जीना, नयी पीढ़ी, नये बच्चों के हक़ के लिए लड़ना हमें भाता है। इस मुल्क में अब मेरा वक़्त है कि मैं अपने बच्चों के हक़, अधिकारों के लिए खड़ी रहूं,  मुक़ाबला करूं ऐसे कानूनों से।”

दादी, भावुक होते हुए भोपाल गैस कांड के दिनों को याद करते हुए कहती हैं, “जब गैस लगी थी, उसमें हर धर्म, हर जाति का इंसान था। अस्पताल में मैंने जिस लड़के को तड़पते देखा उसके लिए अल्लाह से खूब दुआ मांगी। उसकी तकलीफ़ मुझसे देखी नहीं जाती थी। हम गैस पीड़ितों के मुआवज़े के लिए सारी औरतें मिलकर जाते थे। सरकार को तो हमारे साथ मिलकर उस एंडरसन से सवाल पूछना चाहिए था। भोपाल के लाखों लोगों को न्याय कब मिलेगा? आनेवाली कई-कई नस्लें संक्रमित हो गई हैं उनकी बात कौन करेगा? लेकिन वह तो भोपाल के और देश के गरीबों से ही उनके नागरिक होने के कागज़ात मांग रहे हैं।”

अपनी कहानियों को बताते हुए, याद करते हुए सरवर दादी बार-बार भावुक हो रही थीं और कभी-कभी वह जोश से और कभी बहुत नरमी और प्यार से अपने संघर्ष के दिनों को याद करते हुए कहतीं, “हम सिर पर कफ़न बांध कर निकले थे। हमने अपने नाती-पोती, अपने सामने बड़े होते तमाम बच्चे देखे हैं। साथ में घर मकान, बाज़ार सजते, मेले लगते, देखे। अभी कैसे हमें अपने ही मुल्क़ में पराया कर दिया हम से पूछकर कि काग़ज़ दिखाओ। अरे, हम कौन से काग़ज़ दिखाएं? इस मुल्क़ की आज़ादी के लिए दी कुर्बानी के कागज़ या गैस कांड में खो दिए सैकड़ों अपनों के, कैसे काग़ज़ दिखाएं? हमारी उंगली ही हमारा सबूत है जिस पर हर बार चुनाव में हम नीली स्याही लगवाते हैं। लोकतंत्र का त्योहार ही हमारा गवाह है कि हम इन सरकारों को चुनते आए हैं। सरहदों की हिफ़ाज़त के लिए अपने बच्चों को भेजते रहे हैं और आज हमसे वही सरकार हमारे इस देश के नागरिक होने का सबूत मांग रही है।

दादी, भावुक होते हुए भोपाल गैस कांड के दिनों को याद करते हुए कहती हैं, “जब गैस लगी थी, उसमें हर धर्म, हर जाति का इंसान था। अस्पताल में मैंने जिस लड़के को तड़पते देखा उसके लिए अल्लाह से खूब दुआ मांगी। उसकी तकलीफ़ मुझसे देखी नहीं जाती थी। हम गैस पीड़ितों के मुआवज़े के लिए सारी औरतें मिलकर जाते थे। सरकार को तो हमारे साथ मिलकर उस एंडरसन से सवाल पूछना चाहिए था। भोपाल के लाखों लोगों को न्याय कब मिलेगा? आनेवाली कई-कई नस्लें संक्रमित हो गई हैं उनकी बात कौन करेगा? लेकिन वह तो भोपाल के और देश के गरीबों से ही उनके नागरिक होने के कागज़ात मांग रहे हैं। मेरी बस्ती में, कई-कई परिवार ऐसे हैं जिनके पूरे बच्चों के आधार नहीं हैं। राशन कार्ड नहीं है तो किसी के पास डेथ सर्टिफिकेट नहीं है। बच्चा 2 साल तक का हो गया है और अभी तक पैदाइश का कोई कागज़ नहीं बना है। ऐसे में हम कहां से नागरिक होने का कागज़ बनाएंगे। कहां से पुरखों के सबूत बनाएंगे। पुरखे तो हमारे इस मुल्क के कब्रिस्तानों की मिट्टी में तब्दील हो गए।

सरवर सालों से अलग-अलग संघर्षों से जुड़ी रही हैं। वह बताती हैं, “हालांकि इससे पहले हम कभी किसी आंदोलन को लेकर दिन-रात घर से बाहर नहीं बैठे थे। भोपाल गैस कांड पीड़ितों के पुनर्वास के लिए हमने कई बार आवाजें उठाई हैं।”

इस देश के नौजवानों को लेकर सरवर कहती हैं, “यह मुल्क साझी विरासत है। मैं तो चंद शहरों और गांवों से बाहर निकली ही नहीं लेकिन मुझे यक़ीन है हमारे मुल्क जैसी साझी ख़ूबसूरती इस दुनिया में और कहीं नहीं बख्शी गई है। इस मुल्क के हुक्मरानों को कोई हक़ नहीं इस मुल्क की साझी विरासत को वे खत्म करें। हम जानते हैं, जब तक हम जिंदा हैं लड़ते रहेंगे इन अमानवीय कानूनों को रद्द करवाने के लिए।” 


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