बचपन में जब हम बच्चों में लड़ाई हो ज़ाया करती थी तो अगले ही पल किसी खेल के शुरू होते ही सब ठीक हो जाता था। ऐसे ही मैंने किताबों में पढ़ा था कि खेल को देशों के आपसी संबंध को सुधारने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता रहा है। ये बातें इस बात को पुख़्ता करती हैं कि खेल लोगों को जोड़ने का और आपसी द्वेष मिटाने का मज़बूत साधन है। खेल सिर्फ़ लोगों को जोड़ने और द्वेष मिटाने ही बल्कि गतिशीलता को बढ़ाने और विकास के लिए ज़रूरी है।
लेकिन अपने पितृसत्तात्मक समाज में खेल खेलने का अधिकार महिलाओं की अपेक्षा, पुरुषों को ज़्यादा दिया गया है। इसमें भी खेल को जेंडर के आधार पर लड़का-लड़की के लिए बक़ायदा अलग-अलग किया गया है, जिसमें घर के अंदर खेले जाने वाले खेल को महिलाओं का बताया गया है और बाहर खेले जाने वाले खेल को लड़कों का। इस खेल के अंतर ने ही आज भी जेंडर के उस पितृसत्ता वाले ढांचे को क़ायम रखा है, जिसकी वजह से पुरुष घर के भीतर के काम में भागीदारी करने से कतराते हैं और महिलाएं घर की चौखट पार करने से घबराती हैं। इस व्यवहार का नतीजा यह होता है कि महिलाएं संगठित भी नहीं हो पाती हैं। लेकिन सदियों से चले आ रहे इस सामाजिक नियम की वजह से न तो कभी गलियों में लड़कियां गिल्ली-डंडा खेलते दिखाई पड़ती हैं, न घर की छत में पतंग उड़ाते या क्रिकेट खेलते।
इन सबके बीच बनारस ज़िले के सेवापुरी ब्लॉक के तेंदुई गाँव में कुछ बदल रहा है। सदियों से चले आ रहे जेंडर के पितृसत्तात्मक नियम को अब चुनौती दी जा रही है। महिलाएं और लड़कियां अपने घर की चौखट पार करके मैदान में डटना सीख रही हैं और अपने हाथों में कमान लेकर अपनी बातों को आकाश तक पहुंचा रही हैं। यह ज़िक्र है उस नज़ारे का जिसे मैंने हाल ही में, गाँव में आयोजित हुए महिला पतंग उत्सव में देखा, जिसमें जाति, धर्म और वर्ग के भेदभाव को भुलाकर महिलाएं और लड़कियां अपनी पतंग को ऊंची उड़ान देने की जुटी हुई थीं। सभी महिलाएं अपनी पतंग में जेंडर आधारित हिंसा के ख़िलाफ़ और महिला अधिकार के संदेश लिखकर आसमान में उड़ा रही थीं।
सामान्य रूप से पतंग उड़ाना लड़कों का खेल माना जाता है, इसलिए गली-मोहल्लों, घर की छत से लेकर मैदान तक में सिर्फ़ और सिर्फ़ लड़कों का क़ब्ज़ा होता है। ये क़ब्ज़ा इतना जटिल होता है कि कई बार महिलाओं और लड़कियों का उसके पास से गुजरना भी किसी चुनौती से कम नहीं होता है। यह कोई नयी बात नहीं है लेकिन यह इतनी आसान बात भी नहीं है और इन सबके बीच जब बस्तियों की महिलाएं एकजुट होकर किसी खेल में भाग लेने लगती हैं तो ये सकारात्मक बदलाव की ओर इशारा करता है।
बनारस में लंबे समय से ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं और किशोरियों के साथ उनके नेतृत्व विकास और सशक्तिकरण के लिए काम कर रही स्वाती सिंह इस आयोजन के बारे में बताते हुए यह कहती हैं कि महिलाओं के साथ पतंगबाज़ी की इस पहल का उद्देश्य खेल के ज़रिए महिलाओं को मुख्यधारा से जोड़ना है, जिसकी अगुआई महिलाएँंखुद करेंगीं। साथ ही, इस खेल का आयोजन गाँव की मुसहर बस्ती में करवाया जाता है, जिसे जातिगत भेदभाव के तहत सालों से गाँव के बाहरी हिस्से में बसाया जाता है उर यहां अन्य जाति के लोग नहीं आते हैं। यह जातिगत भेदभाव मुसहर बस्ती की महिलाओं के ऊपरी दोहरी हिंसा जैसी है। ऐसे में जब इस तरह के खेल का आयोजन बस्ती में होता है तो छोटा ही सही लेकिन एक बदलाव तो ज़रूर नज़र आता है।
सामान्य रूप से पतंग उड़ाना लड़कों का खेल माना जाता है, इसलिए गली-मोहल्लों, घर की छत से लेकर मैदान तक में सिर्फ़ और सिर्फ़ लड़कों का क़ब्ज़ा होता है। ये क़ब्ज़ा इतना जटिल होता है कि कई बार महिलाओं और लड़कियों का उसके पास से गुजरना भी किसी चुनौती से कम नहीं होता है।
इस गाँव में पिछले दो सालों से लगातार महिला पतंगबाज़ी का कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। इसके प्रभाव को लेकर जब मैंने मुसहर बस्ती में रहनेवाली रिंकी से बात की तो उन्होंने अपना अनुभव हमसे साझा करते हुए कहा, “जब पिछले साल इस कार्यक्रम का आयोजन हुआ तो हमारी मुसहर बस्ती से सिर्फ़ लड़कियों ने हिस्सा लिया था, पर हमलोगों ने देखा कि गाँव की अन्य जाति की महिलाएं भी इसमें हिस्सा लेने पहुंची। सभी ने एकसाथ पतंग उड़ाई और ये साथ सिर्फ़ यही तक नहीं था, हमारी बस्ती की लड़कियां सालभर में होनेवाले किसी भी बैठक और कार्यक्रम में अन्य बस्ती जाने लगी जहां ये महिलाएं और किशोरियां उनकी मदद करती हैं। इससे हमारा मनोबल बढ़ा और इसबार हमारी बस्ती सात महिलाओं ने पतंगबाज़ी में हिस्सा लिया। इस खेल के बहाने हमलोगों का मनोबल बढ़ा है और अब तो हमलोग अपनी बस्ती में भी महिलाओं और लड़कियों के साथ कबड्डी और क्रिकेट जैसे खेल खेलते हैं।”
इस पतंगबाज़ी के कार्यक्रम में सात साल से लेकर चालीस साल तक की क़रीब पचास महिलाओं-किशोरियों ने हिस्सा लिया। पतंगबाज़ी की सात वर्षीय प्रतिभागी प्रीति खेल को लेकर कहती है, “एकदिन हमारी पतंग सबसे ऊंची उड़ेगी और हम पहले नंबर पर आएंगे।”
जब किसी खेल में महिला खिलाड़ी की बात आती है तो हम उन्हें सिर्फ़ बड़े पर्दे पर या राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर के मुक़ाबले में ही देखते हैं जहां बात सिर्फ़ जीत और हार की होती है। समुदाय स्तर पर खेल की ये छोटी-छोटी पहल कैसे बड़े बदलाव का आधार हो सकती है, इसे उजागर करना भी ज़रूरी होता है। पिछले साल भी मैं इस खेल की साक्षी थी। तब से अब में मैंने एक बड़ा बदलाव ये देखा कि इसबार इस कार्यक्रम को देखने के लिए गाँव के लड़के और पुरुष भी आए। उनकी मौजूदगी एक स्वीकृति का आभास करवा रही थी, जो इस बदलाव को स्वीकार करने की कोशिश कर रहे थे कि मैदान में महिलाओं की भी जगह होती है।