इतिहास संत रविदास का बेगमपुरा कैसे सही मायनों में था एक समाजवादी समाज

संत रविदास का बेगमपुरा कैसे सही मायनों में था एक समाजवादी समाज

रविदास यूं तो पंद्रहवीं शताब्दी के कवि हैं लेकिन उनके विचार आधुनिक थे, क्रांतिकारी थे। इस विचार के विपरीत वे खड़े थे कि दलित (उस समय के अछूत समुदाय) विचारक, समाज सुधारक, ज्ञाता और सबसे ऊपर एक संत नहीं हो सकता क्योंकि वह ब्राह्मण नहीं है, उसके पास वेदों का ज्ञान नहीं है।

अगस्त 2020 में दिल्ली के तुगलुकाबाद में संत रविदास का मंदिर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद दिल्ली विकास प्राधिकरण ने तोड़ दिया था। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने यह भी आदेश दिया था कि एक अलग जगह इस मंदिर का निर्माण दोबारा कराया जाए। मंदिर टूटने को लेकर दलितों ने आक्रोश भी जताया था और धरना-प्रदर्शन भी किया था। संत रविदास से उत्तर भारतीय दलितों का ऐसा ख़ास रिश्ता क्यों है कि वे मंदिर टूटने पर आक्रोश में आ गए थे? आख़िर कौन थे ये रविदास जिनके लिए पूरा दलित समुदाय सड़कों पर आ गया?

रविदास से परिचय

रविदास कहिए या रैदास, पंद्रहवीं-सोलहवीं शतवर्ष में उत्तर भारत के भक्ति आंदोलन के अहम संत थे। इस आंदोलन के कवियों के बारे में सहेजकर रखनेवाली पहली जीवनी ‘अनंतदास परसाई’ में रविदास के जन्म को लेकर जानकारी है। इनका जन्म बनारस के गांव सीर गोवर्धनपुर में हुआ था जिसे आज गुरु रविदास जन्मस्थान के रूप में जाना जाता है। इनके जन्म का साल 1377 बताया जाता है। हालांकि, इनसे जन्म वर्ष को लेकर एकदम स्पष्ट जानकारी अभी मौजूद नहीं है। इनकी मां का नाम कलसी, पिता का नाम संतोख दास था। यह परिवार दलित समुदाय की चमार जाति से था जिनका काम चमड़े का काम करना, मरे हुए जानवरों को व्यवस्थित करना था। रविदास खुद जूते बनाने का काम करते थे और भक्ति के पद/वाणी/सबद लिखते थे।

बारह वर्ष की उम्र में ही लोना देवी से ब्याह होने के बाद इनकी एक संतान भी इन्हें हुई जिसका नाम विजय दास था। रविदास- उनके विचार, साहित्यरविदास, कबीर के समकालीन संत थे, और दोनों एक दूसरे से मिले भी थे। भक्ति, नाम, सादसंगत, धर्म, भेदभाव, जाति व्यवस्था, भाईचारे आदि पर चर्चाएं भी की थीं। इन्हीं चर्चाओं का नतीजा था कि रविदास जो पहले सगुण भक्ति के उपासक थे, कबीर के संपर्क में आने के बाद निर्गुण भक्ति के उपासक बन गए थे। रविदास ने हर तरह के विषयों पर पद/दोहे/वाणी लिखीं। उनके लगभग चालीस पद्य सिख धर्म की धार्मिक पुस्तक ‘आदि ग्रंथ’ में शामिल हैं। आदि ग्रंथ, पंचवाणी (हिंदू योद्धा तपस्वी समूह दादूपंथी की पुस्तक) रैदास के साहित्य के सबसे पुराने और प्रामाणिक श्रोत हैं।

बेगमपुरा में रविदास जाति, ईश्वर, धर्म, ऊंच नीच सबकी बात करते हैं। साथ ही ‘बेगमपुरा’ में वह कैसा समाज चाहते थे इसकी भी बात करते हैं। विस्तार से समझेंगे कि इतने वक्त पहले रविदास कैसे एक बेगमपुरा की कल्पना करते हैं और कैसे वह लोकतंत्र में हासिल किया जा सकता है और कह सकते हैं कि मार्क्स के जन्म से पहले ही भारत में समाजवाद की विचारधारा रैदास ने ‘बेगमपुरा’ की कल्पना में खोज ली थी।

रविदास यूं तो पंद्रहवीं शताब्दी के कवि हैं लेकिन उनके विचार आधुनिक थे, क्रांतिकारी थे। इस विचार के विपरीत वे खड़े थे कि दलित (उस समय के अछूत समुदाय) विचारक, समाज सुधारक, ज्ञाता और सबसे ऊपर एक संत नहीं हो सकता क्योंकि वह ब्राह्मण नहीं है, उसके पास वेदों का ज्ञान नहीं है। बावजूद इसके यह कहा जाता है कि रैदास उस दर्जे के व्यक्ति बन गए थे कि ब्राह्मण तक उनके आगे सर झुकाते थे। जिस ईश्वर पर एक मात्र ब्राह्मणों का आधिपत्य समझा, माना गया है, उस ईश्वर तक रैदास, कबीर निर्गुण भक्ति के माध्यम से पहुंचे। निर्गुण भक्ति एक ऐसी भक्ति जिसमें ईश्वर का कोई निश्चित आकार नहीं है, जिसमें कोई मूर्ति पूजा, धर्म कर्म कांड नहीं हैं बल्कि गुरु के प्रति सच्ची श्रद्धा है। इसीलिए दोनों ही कवियों के साहित्य को निर्गुण काव्यधारा भी कहा जाता है। रैदास ने अपनी भक्ति, साहित्य, विचारों के बीच जाति को कभी नहीं आने दिया।

संत रविदास और जाति-विरोधी आंदोलन और बेग़मपुरा

उत्तर भारत के जाति-विरोधी आंदोलन में रैदास ने अहम भूमिका निभाई है। कबीरपंथी, रविदसिया/रैदासी पंथ के लोगों का एक नया समूह इस भक्ति आंदोलन के मध्य पनपा था। यह जाति व्यवथा में किसी बड़ी दखल से कम नहीं था। बेगमपुरा में रविदास जाति, ईश्वर, धर्म, ऊंच नीच सबकी बात करते हैं। साथ ही ‘बेगमपुरा’ में वह कैसा समाज चाहते थे इसकी भी बात करते हैं। विस्तार से समझेंगे कि इतने वक्त पहले रविदास कैसे एक बेगमपुरा की कल्पना करते हैं और कैसे वह लोकतंत्र में हासिल किया जा सकता है। कह सकते हैं कि मार्क्स के जन्म से पहले ही भारत में समाजवाद की विचारधारा रैदास ने ‘बेगमपुरा’ की कल्पना में खोज ली थी।

रविदास यूं तो पंद्रहवीं शताब्दी के कवि हैं लेकिन उनके विचार आधुनिक थे, क्रांतिकारी थे। इस विचार के विपरीत वे खड़े थे कि दलित (उस समय के अछूत समुदाय) विचारक, समाज सुधारक, ज्ञाता और सबसे ऊपर एक संत नहीं हो सकता क्योंकि वह ब्राह्मण नहीं है, उसके पास वेदों का ज्ञान नहीं है।

बेगमपुरा शब्द का विच्छेद करें तो एक ऐसा नगर/शहर/जगह जहां कोई गम/दुख नहीं होंगे। कभी मौका लगे तो गुरुद्वारे में जब गुरबानी गाई जाती है उसे ध्यान से सुनिएगा तो उसमें एक वाक्य से एक बानी शुरू होती है, वाक्य है- “बेगमपुरा शहर को नाउ…..।” रैदास इस पद्य को ‘बेगमपुरा’ शीर्षक से लिखते हैं:

“बेगम पुरा शहर कौ नांउ, दुखू अंदोह नहीं तिहिं ठांउ। नां तसवीस खिराजु न मालु, खउफु न खता न तरसु जवालु॥ अब मोहि खूद वतन गह पाई, ऊंहा खैरि सदा मेरे भाई। काइमु दाइमु सदा पातसाही, दोम न सेम एक सो आही॥ आबादानु सदा मसहूर, ऊँहा गनी बसहि मामूर। तिउ तिउ सैल करहि जिउ भावै, महरम महल न कौ अटकावै। कहि रैदास खलास चमारा, जो हम सहरी सु मीत हमारा॥”

इसकी व्याख्या समझें तो रैदास कह रहे हैं – “मैं बेग़मपुरा शहर को नमन करता हूं जहां कोई दुख या चिंता नहीं है। वहां अपने माल पर कोई अतिरिक्त कर देने की परेशानी नहीं है। वहां पाप-कर्म नहीं है और पाप-कर्म न होने के कारण किसी का चरित्र नहीं गिरता है। सब बेकसूर हैं। रहने के लिए मुझे इस शहर में सुंदर स्थान मिल गया है। वहां सदा अमन-चैन है। वहां आत्मिक अवस्था की बादशाहत सदैव रहती है। किसी में दूसरे−तीसरे का भेद नहीं है, सब एक समान हैं। वहां का आबदाना (अन्न-पानी) सदा मशहूर है। वहां राम रूपी धन से संपन्न और आबदाना से तृप्त व्यक्ति रहते हैं। सभी अपनी इच्छानुसार आनंदपूर्वक विचरण करते हैं क्योंकि वे सभी उस महल से परिचित होते हैं, कोई भी उनके विचरण में व्यवधान पैदा नहीं करता। चर्मकार रैदास कहते हैं, इस शहर में रहनेवाला ही मेरा सच्चा मित्र है।”

ऐसा शहर जहां असमानता नहीं होगी, स्वतंत्रता होगी, मैत्री होगी, धार्मिक कर्म-कांड नहीं होंगे, कुछ गलत, आतंक नहीं होगा बल्कि सभी की मूलभूत जरूरतें पूरी रहेंगी यानी रविदास के बेगमपुरा का न तो भौगौलिक स्थान है, ना ही उसका कोई इतिहास है, यह वक्त की मांग के साथ साकार होगा। समाज कैसा होना चाहिए, उसमें क्या-क्या होना चाहिए जैसे बड़े सवाल जिनका हल हम लंबी-लंबी थियरीज में खोजते हैं, रैदास ने कुछ पंक्तियों में ही स्पष्ट कर दिया था। हालांकि, ज़रूरी नहीं कि सब का सब अपना लिया जाए, तार्किक कसौटी पर रखते हुए ज़रूर अपनाया जा सकता है।

बेगमपुरा और लोकतंत्र

रविदास ने बेगमपुरा की कल्पना की, बाबा साहब आंबेडकर ने प्रबुद्ध भारत की, ज्योतिबा फुले ने सत्यशोधक समाज की। भारत का वंचित वर्ग समाज के हित की हमेशा से सोचता आया है और उसकी बेहतरीन स्थिति की कल्पना करता आया है।भारतीय संविधान उन कल्पनाओं का जस का तस दस्तावेज नहीं है लेकिन कुछ-कुछ चीज़ों का जरूर है। लोकतंत्र में समानता, स्वतंत्रता, नागरिक अधिकार, जवाबदेही, न्याय, संपत्ति आदि मूल्य मौजूद हैं। बेगमपुरा में भी ये मूल्य मौजूद हैं लेकिन इसके सभी मूल्य भारतीय लोकतंत्र में नहीं हैं। जैसे बेगमपुरा में निजी संपत्ति होगी ही नहीं लेकिन लोकतंत्र में है। बेगमपुरा में धार्मिक कर्म-कांड नहीं होंगे लेकिन लोकतंत्र में धर्म को लेकर स्वतंत्रता है। बेगमपुरा में व्यक्ति ऊंचे नीचे पायदान पर नहीं है लेकिन लोकतंत्र में अपना पदक्रम है।

समाज कैसा होना चाहिए, उसमें क्या-क्या होना चाहिए जैसे बड़े सवाल जिनका हल हम लंबी-लंबी थियरीज में खोजते हैं, रैदास ने कुछ पंक्तियों में ही स्पष्ट कर दिया था। हालांकि, ज़रूरी नहीं कि सब का सब अपना लिया जाए, तार्किक कसौटी पर रखते हुए ज़रूर अपनाया जा सकता है।

बेगमपुरा विचार की सराहना क्यों जरूरी?

मैं राजनीति विज्ञान से दिल्ली विश्वविद्यालय में 2022 में स्नातक कर रही थी जिसका एक पेपर भारतीय विचारकों को लेकर था। कौटिल्य, गांधी, सावरकर तक उसमें मौजूद थे लेकिन रविदास का बेगमपुरा नहीं। भारतीय शिक्षा व्यवस्था अपने सबसे लचर दौर से गुज़र रही है जिसमें बेगमपुरा को शायद ही शामिल किया जाए। फिर भी जहां पढ़ने मिल सके वहां पढ़ना चाहिए यह समझने के लिए कि भारत के अछूतों को शिक्षा से दूर रखने के बावजूद वे विचारक बने हैं। उन्होंने एक समान और श्रेष्ठ समाज की कल्पना की है और उसे पाने की ओर कदम भी बढ़ाए हैं। बेगमपुरा में रैदास ने आखिर में एक और बात कही है कि जो बेगमपुरा में बसता है वही उनका सच्चा मित्र है यानी रैदास के विचारों को आगे ले जाने के लिए उनके बेगमपुरा को साथ रखना होगा।


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