इंटरसेक्शनलजेंडर क्या यह बात सच है कि भारत में बहुत सारी औरतें आलसी हैं?

क्या यह बात सच है कि भारत में बहुत सारी औरतें आलसी हैं?

भारतीय समाज में जहां वर्ग, जाति और जेंडर जैसी चीजें श्रम को भी विभाजित करती हैं, जहां कठिन श्रम हमेशा हाशिये का वर्ग ही करता है। वहां इस तरह के बयान एक विशेषाधिकार प्राप्त तबके की स्त्री की ओर से ही आ सकते हैं।

गाँवों में इस समय फसल की कटाई का सीजन है। मज़दूर स्त्रियां इन दिनों दिहाड़ी करती हैं जिसकी समय सीमा निश्चित है। उसके बाद जो समय होता उसमें अपने खेत की कटाई करती हैं। जिनके खेत नहीं हैं वे बटाई पर लिए खेत की कटाई करती हैं। वे इन दिनों अपने पूरे समय को काम के बांटकर उसी में अपने रोज़मर्रा के काम भी करती हैं। जैसे मुंह अंधेरे उठकर कटाई करती हैं, उसके बाद दिहाड़ी की कटाई और इन सभी कामों के बीच समय निकालकर वे घर के काम भोजन आदि बनाती हैं, पशुओं को भी देख लेती हैं। ग्रामीण इलाकों में ये हमेशा से होता आ रहा है। कारण यह है कि सारी फसल एक साथ बोई जाती है तो एक साथ तैयार भी हो जाती है। अगर उनकी कटाई-मड़ाई नहीं हुई तो नुकसान हो सकता है। ज्यादातर महिला मज़दूरों के पति शहर में मजदूरी करने गए होते हैं तो उनको अकेले ही सब जिम्मेदारी उठानी पड़ती है।

इसी क्रम में मैंने कुछ शहरी महिला मजदूरों के नियमित कार्यों का अध्ययन किया तो देखा कि शहरों में जो दिहाड़ी महिला मजदूर हैं वे अपने साथी मजदूर से ज्यादा काम करती हैं और मजदूरी उनसे कम पाती हैं। इस ज्यादा श्रम, कम मज़दूरी के भेदभाव को एक कंडीशनिंग मानती हैं। उनसे मैंने इस विषय पर एक लंबी बातचीत की जिससे यह समझ में आया कि स्त्री का श्रम सिर्फ यहां नहीं कई स्तर पर पुरुषों से ज्यादा है। वे महिला मज़दूर सुबह घर का सब काम करके मजदूरी करने जाती हैं। शाम को सब्जी वगैरह लेने का काम करते हुए घर आती हैं और घर के फिर सारे काम करती हैं। इसके एवज में उनके पुरुष सिर्फ दिहाड़ी करते हैं। 

यह बातचीत याद करते हुए मन में उन तमाम स्त्रियों के चेहरे आंखों में आ गए जिन्होंने बताया कि कैसे उनमें से ज्यादातर स्त्रियां घरेलू हिंसा का सामना कर रही हैं। यहां स्त्री शोषण की इतनी परतें खुलती हैं कि लगता है कि क्या दुनिया में घर से लेकर हर जगह स्त्री यातना की छोटी बड़ी इकाइयां हैं। क्या दुनिया में हर जगह स्त्री का यही हश्र है? जहां वे मजदूरी करती हैं, उनको मजदूरी पुरुषों से कम मिलती है और श्रम उनसे ज्यादा और उस पर कई तरह के यौन शोषण का भी वे सामना करती हैं। 

जिस दिन स्त्री श्रम का हिसाब दुनिया की सबसे बड़ी चोरी पकड़ी जाएगी यह बात यूं ही नहीं कही गई है। यह भारत ही नहीं पूरी दुनिया का सच है। “भारत में ज्यादातर स्त्रियां आलसी हैं” एकबारगी यह वाक्य सुनने से लगता कि हमारे ही घर के हमारे आसपास के पुरुषों ने ही यह बात कही है। जो बात-बात में कहते रहते हैं कि स्त्रियां काम ही क्या करती हैं। बात यह बहुत पुरानी है और एक मर्दवादी ज़मीन से कही गई है जो आज भी लगातार दुहराई जाती है। अगर ध्यान से देखा जाए तो विवाह नाम की संस्था का काम ही यही कि स्त्री पर ज्यादा से ज्यादा श्रम का भार रखा जाए।

श्रम के यौनिक विभाजन का यही ढांचा सार्वजनिक दायरे के वैतनिक कामों तक फैला है। नौकरी करती स्त्रियों पर काम का ज्यादा ही भार आता है और जब एक औरत या लड़की नौकरी करना चाहती है तो मर्दवादी समाज या तो करने नहीं देता या फिर उससे कहा जाता है कि नौकरी करना तुम्हारी पसंद है लेकिन इस वजह से घर के कामों पर असर नहीं पड़ना चाहिए। इस तरह वे घर और बाहर की दोहरी ज़िम्मेदारी में पिसने को मजबूर हो जाती हैं।

भोजन, घर, बच्चे, कपड़े, साफ-सफाई से लेकर अगर कामकाजी है तो ज्यादातर इन सारे काम का बोझ स्त्रियों पर ही होता है। अगर इसमें वह ज़रा हील-हवाली करती हैं तो ये सब बिखरा रहता है। इसमें यह मान लिया गया कि ये सारी जिम्मेदारी स्त्रियों की है। ये सारे काम वे खुद करें या कोई घरेलू नौकरानी रखकर उससे कराएं। अब घरेलू महिला मजदूर क्या है वह भी एक स्त्री है जिसका श्रम सस्ते दाम पर खरीदा जाता है। वह अपने घर के सारे काम करते हुए परिवार, बच्चे देखते हुए अन्य घरों के भी काम करती है। 

एक्ट्रेस सोनाली कुलकर्णी एक वीडियो में कहती नज़र आई, “भारत में बहुत सारी लड़कियां आलसी हैं। उनको ऐसा बॉयफ्रेंड या पति चाहिए जिसके पास अच्छी नौकरी हो, जिसके पास घर हो। लेकिन उस लड़की में इतनी हिम्मत नहीं है कि वो कह पाए कि मैं क्या करूंगी जब तुम मुझसे शादी करोगे। मैं आप सभी से कहना चाहती हूं कि अपने घर में ऐसी स्त्रियों का निर्माण कीजिए, जो काबिल हो। जो अपने आप के लिए कमा पाएं. जो कह पाएं कि हां हमें नया फ्रिज लेना है ना, आधे पैसे तुम दो आधे पैसे मैं दूंगी।”  इस बयान से साफ ज़ाहिर है कि सोनाली यहां स्त्रियों के संघर्ष और श्रम को खारिज करते हुए पितृसत्तात्मक ज़मीन पर खड़ी होकर बात कर रही हैं। इस तरह की जाने वाली सारी बातें सरलीकृत और मर्दवादी मध्यवर्गीय चेतना से कही जाती हैं। एक समाज जो गैरबराबरी से बना है, जहां कदम-कदम पर स्त्री अधिकार को कुचला जाता है वहां इस तरह की बात सीधे -सीधे पितृसत्ता की बात को दुहराना है। हालांकि, उन्होंने अपने इस बयान के लिए माफी मांग ली है।

भारतीय समाज में जहां वर्ग, जाति और जेंडर जैसी चीजें श्रम को भी विभाजित करती हैं, जहां कठिन श्रम हमेशा हाशिये का वर्ग ही करता है। वहां इस तरह के बयान एक विशेषाधिकार प्राप्त तबके की स्त्री की ओर से ही आ सकते हैं।

निवेदिता मेनन ने अपनी किताब ‘नारीवादी निगाह’ में लिखा है कि श्रम के यौनिक विभाजन में कुछ भी स्वाभाविक नहीं है। इस बात का जीवविज्ञान से खास लेना-देना भी नहीं है कि स्त्री और पुरुष घर और परिवार के भीतर और बाहर तरह -रह से काम करते हैं। यह एक सामान्य बात है इसमें केवल गर्भावस्था की प्रकिया ही जीव विज्ञान के दायरे में आती है। बाकी खाना पकाने, साफ-सफाई करने, बच्चों की देखभाल करने जैसे तमाम काम जिन्हें घरेलू काम की श्रेणी में रखा जाता है पुरुष भी बखूबी कर सकते हैं। लेकिन हमारे समाज में ये सारे काम महिलाओं के माने जाते हैं।

श्रम के यौनिक विभाजन का यही ढांचा सार्वजनिक दायरे के वैतनिक कामों तक फैला है। नौकरी करती स्त्रियों पर काम का ज्यादा ही भार आता है और जब एक औरत या लड़की नौकरी करना चाहती है तो मर्दवादी समाज या तो करने नहीं देता या फिर उससे कहा जाता है कि नौकरी करना तुम्हारी पसंद है लेकिन इस वजह से घर के कामों पर असर नहीं पड़ना चाहिए। इस तरह वे घर और बाहर की दोहरी ज़िम्मेदारी में पिसने को मजबूर हो जाती हैं।

भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) अहमदाबाद केएर शोध के अनुसार 15 से 60 साल की कामकाजी महिलाएं घरेलू काम पर 7.2 घंटे बिताती हैं, जबकि पुरुष केवल 2.8 घंटे बिताते हैं। ये शोध भी जहां तक मैं समझ रही हूं शहरी महिलाओं का होगा नहीं ग्रामीण स्त्रियों और शहरी मजदूरी स्त्रियों के जीवन के काम अध्ययन को देखेगें तो यह अंतर बहुत बड़ा है। इसी तरह एक और शोध में बताया गया है कि भारत में महज 6 प्रतिशत पुरुष खाना पकाते हैं। 

कोई स्त्री कह रही है कि स्त्रियां काम नहीं करती तो वहां जेंडर से ज़्यादा वर्ग का अंतर काम कर रहा है। समाज का वह बड़ा वर्ग जहां महिलाएं अपार श्रम करके जीवन चला रहीं हैं जिन कामों के लिए महिलाओं को कोई पारिश्रमिक नहीं मिलता। जो महिलाएं घर का भोजन बनाने ईंधन चारा और पानी भरने,पशुओं की देखभाल आदि करती हैं कुछ काम इनमें से रोजगार की तरह करती हैं और परिवार की आर्थिक सहायता करती हैं। भारतीय समाज में जहां वर्ग, जाति और जेंडर जैसी चीजें श्रम को भी विभाजित करती हैं, जहां कठिन श्रम हमेशा हाशिये का वर्ग ही करता है। वहां इस तरह के बयान एक विशेषाधिकार प्राप्त तबके की स्त्री की ओर से ही आ सकते हैं।


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