स्वास्थ्यशारीरिक स्वास्थ्य सेक्स एजुकेशन और बॉडी इमेज से जुड़े सवालों के जवाब

सेक्स एजुकेशन और बॉडी इमेज से जुड़े सवालों के जवाब

2018 में हुई एक स्टडी बताती है कि कैसे हम सोशल मीडिया पर कितना वक्त गुज़ारते हैं, नेगेटिव बॉडी इमेज और इंटिंग डिसॉर्डर आपस में जुड़े हुए हैं। ख़ासकर तब जब हम किसी मॉडल या फिटनेस इंस्ट्रक्टर्स के कॉन्टेंट से गुज़रते हैं।

सआदत हसन मंटो की एक कहानी है ‘ब्लाउज़।’ इस कहानी का किरदार है मोमीन, मोमीन का शरीर टीएनज में बदलावों से गुज़र रहा है। उसके अंदर अपने शरीर से जुड़े कई सवाल दौड़ रहे होते हैं लेकिन इन सवालों का जवाब उसे कोई नहीं देता।मंटो ने यह कहानी कई दशक पहले लिखी थी लेकिन किशोरावस्था से जुड़े सवालों के जवाब आज भी हमें कोई नहीं देता। हम जैसे-जैसे बड़े होते हैं हमारे शरीर में बदलाव होते हैं। हमारे बदलते शरीर के बारे में हमें शर्म महसूस करवाई जाती है। जैसे स्तन बड़े होने पर दुपट्टा दे दिया जाता है। लेकिन कोई ये नहीं बताता कि आखिर हमारा शरीर बदल क्यों रहा है? कैसे सबके शरीर में होनेवाले बदलाव अलग-अलग होते हैं।

हम सबके दिमाग में कभी न कभी ये ख्याल तो ज़रूर आया होगा जहां हम ये सोचते हैं कि काश हम अपने शरीर के इस हिस्से को बदल सकते। जैसे काश हमारी आंखें और बड़ी होती, कमर थोड़ी और पतली होती, हम थोड़े और लंबे होते, वज़न थोड़ा कम होता, ब्रेस्ट थोड़े और बड़े होते। अगर बड़े हैं तो शर्मिंदगी महसूस होती है और ये लिस्ट लंबी होती चली जाती है। अपने आस-पास देखिए ज्यादातर लोग अपनी बॉडी को लेकर सहज नज़र नहीं आते।

बचपन से न हमारे अंदर एक परफेक्ट बॉडी की डेफिनिशन जेंडर के आधार पर फिट कर दी जाती है…फिर इसमें सिनेमा, टीवी, इंटरनेट भी अपनी-अपनी डेफिनिशन जोड़ देता है। बदलते ट्रेंड्स के साथ पॉप कल्चर हमें अपने ही शरीर को लेकर असहज महसूस करवाता है। हम पहले से ही ये तय कर लेते हैं कि हमारी बॉडी अगर इस तरह की दिखेगी, हम तभी अपने शरीर से प्यार कर सकेंगे, तभी हमें एक्सेप्ट किया जाएगा।

बॉडी ईमेज होती क्या है

आसान शब्दों में कहें तो बॉडी इमेज का मतलब है हम अपने शरीर को कैसे देखते हैं, अपने शरीर के बारे में कैसा महसूस करते हैं। लेकिन काश ये इतना आसान होता। बॉडी इमेज पर सवाल तो बहुत होते हैं लेकिन इन्हें हमेशा शर्म के पर्दे से ढक दिया जाता है। बात करने की जगह चुप्पी को तरजीह दी जाती है। ये रूढ़िवादी सोच ही धीरे-धीरे हमें हमारी ही बॉडी के प्रति कॉन्शस करती चली जाती है। अगर हम अपनी बॉडी को किसी भी वजह से अगर नापसंद करने लगते हैं तो हमें ये समझानेवाला कोई नहीं होता कि हम ग़लत हैं।

हम अपने शरीर को कैसे देखते और समझते हैं इसे तय करने में पॉप कल्चर और सोशल मीडिया की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। टिकटॉक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब हर जगह आपको ऐसे कॉन्टेंट की भरमार मिल जाएगी जो आपको ये बताते हैं कि परफेक्ट बॉडी क्या है।

याहू द्वारा किए गए एक हेल्थ सर्वे के मुताबिक अमेरिका में 94 परसेंट टीनएज लड़कियों ने किसी न किसी वजह से बॉडी शेमिंग का सामना किया है। द गर्ल्स ऐटिट्यूड सर्वे के मुताबिक जैसे-जैसे लड़कियां बड़ी होती हैं उन्हें उनके शरीर को लेकर और ज्यादा शर्मिंदा किया जाता है। आपको ज़रूर याद होगी वो उम्र जब स्कर्ट की जगह सलवार कमीज़ और दुपट्टे ने ले ली होगा ताकि हम ‘बड़े’ हो रहे हैं इसे छिपाया जा सके। ये शर्मिंदगी, चुप्पी ही हमें हमारे शरीर के प्रति नेगेटिव बनाती है. हम भी यही सोचने लगते हैं कि स्तन शर्मिंदगी की एक वजह हैं, हमारे अंडरगार्मेंट्स हमेशा घर के मर्दों की नज़रों से दूर रहने चाहिए।

ये शर्मिंदगी सिर्फ एक जेंडर तक सीमित नहीं रहती। लड़कों, ट्रांस, क्वीयर बच्चों को भी उनके बदलते शरीर के लिए शर्मिंदा महसूस करवाना हमारे पितृसत्तात्मक समाज की ज़िम्मेदारी है। हम आए दिन ऐसी खबरें पढ़ते हैं जहां ट्रांस, क्वीयर बच्चों को उनके पहनावे, उनके व्यवहार के लिए स्कूल में बुली किया जाता है। आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली के स्कूलों में 30 फीसदी ट्रांस बच्चों को बुली किया जाता है।

पॉप कल्चर और मीडिया की भूमिका

पुराने ज़माने में परफेक्ट बॉडी के नाम पर चीन में लड़कियों के पैर को कसकर बांधने और तोड़ने का रिवाज था जिसे फुट बाइडिंग के नाम से जाना जाता था। विक्टोरियन युग में महिलाएं एक निश्चित वज़न पाने और सुंदर दिखने के लिए टेपवर्म सिस्ट को गोली के रूप में लेती थीं। वहीं बीसवीं शताब्द में तो लाइज़ॉल जिससे हम आज अपने घर की सफाई करते हैं उसे यह कहकर बेचा गया कि महिलाएं इससे अपने गुप्तांगों को साफ कर सकती हैं।

हम अपने शरीर को कैसे देखते और समझते हैं इसे तय करने में पॉप कल्चर और सोशल मीडिया की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। टिकटॉक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब हर जगह आपको ऐसे कॉन्टेंट की भरमार मिल जाएगी जो आपको ये बताते हैं कि परफेक्ट बॉडी क्या है। ये मजबूर करते हैं हमें कि हम खुद को हमेशा उनसे कंपेयर करें जिनकी बॉडी पॉप कल्चर के मुताबिक ‘परफेक्ट’ है।

2018 में हुई एक स्टडी बताती है कि कैसे हम सोशल मीडिया पर कितना वक्त गुज़ारते हैं, नेगेटिव बॉडी इमेज और इंटिंग डिसॉर्डर आपस में जुड़े हुए हैं। ख़ासकर तब जब हम किसी मॉडल या फिटनेस इंस्ट्रक्टर्स के कॉन्टेंट से गुज़रते हैं। हमारा पॉप कल्चर इन सभी को 2 ही बाइनरी में परोसता है लड़का और लड़की। इस परफेक्ट बॉडी की डेफिनिशन में क्वीयर, ट्रांस, विकलांग, गरीब, हाशिये पर गए समुदाय शामिल नहीं होते। देखा जाए तो हम कह सकते हैं कि जब सामाजिक, पितृसत्तात्मक ताने-बाने हमारे शरीर के खिलाफ रहे हैं तो ऐसे में हम अपने शरीर के प्रति कैसे पॉज़िटिव हो सकते हैं।

बॉडी इमेज और सहमति

हम अपने शरीर को कैसे देखते हैं, इसमें सहमति की क्या भूमिका है? चलिए इसे ऐसे समझते हैं। आपको अपने ब्रेस्ट्स के साइज़ या शेप से कोई परेशानी नहीं है। लेकिन बाज़ार और सोशल मीडिया ने धीरे-धीरे ही सही आपको इस बात के लिए राज़ी कर लिया कि आपकी बॉडी परफेक्ट नहीं है। पॉप कल्चर ने आपके दिमाग में ये भर दिया कि इस वक्त किम कादर्शियां का फिगर ही परफेक्ट है और फिर हम लग जाते हैं इस बेतुकी परफेक्शन की होड़ में। यहां आपकी सहमति को दरकिनार कर दिया गया।

मान लीजिए आपका वज़न बढ़ गया लेकिन आप पूरी तरीके से हेल्थी हैं लेकिन आपको वज़न कम करने की इतनी बार सलाह दे दी गई कि आपको भी लगने लगेगा कुछ तो गड़बड़ है आपके शरीर के साथ। इसलिए बॉडी के साथ-साथ कंसेंट को भी समझना ज़रूरी है। कैसे हमारी बॉडी काम करती है, हम अपनी बॉडी के साथ कितने सहज हैं, हम अपनी बॉडी से जुड़े कौन से फैसले लेते हैं ये आपका निजी मसला है, यहां सिर्फ और सिर्फ आपकी सहमति ज़रूरी है।

हम सबके दिमाग में कभी न कभी ये ख्याल तो ज़रूर आया होगा जहां हम ये सोचते हैं कि काश हम अपने शरीर के इस हिस्से को बदल सकते। जैसे काश हमारी आंखें और बड़ी होती, कमर थोड़ी और पतली होती, हम थोड़े और लंबे होते, वज़न थोड़ा कम होता, ब्रेस्ट थोड़े और बड़े होते। अगर बड़े हैं तो शर्मिंदगी महसूस होती है और ये लिस्ट लंबी होती चली जाती है।

बॉडी इमेज और सेक्स एजुकेशन की भूमिका

सेक्स एजुकेशन का मतलब सिर्फ सेक्स से नहीं है, इसके ज़रिये हम किशोर, किशोरियों को ये बता सकते हैं कि परफेक्ट बॉडी जैसा कुछ नहीं होता, हर किसी का शरीर अलग होता है, हर किसी के पास अपने शरीर से जुड़े अलग-अलग सवाल होते हैं। बॉडी इमेज पर सही जानकारियों के सोर्स उन्हें उपलब्ध करवाए जाने चाहिए ताकि वे अपने शरीर और समय के साथ हो रहे बदलावों को समझ सकें।

ये जानकारियां सिर्फ लड़का-लड़की की बाइनरी में नहीं बल्कि वर्ग, जाति, जेंडर, यौनिकता, विकलांगता आदि आधारों पर समावेशी होनी चाहिए। बुनियादी समझ बेहतर होगी तभी बॉडी नेगेटिविटी जैसे मुद्दों को बेहतर समझ पाएंगे, बॉडी शेमिंग का विरोध कर पाएंगे। ये बदलाव सिर्फ निजी स्तर नहीं बल्कि स्कूल, समुदाय और नीतियों के स्तर पर ज़रूरी हैं। ज़रूरी हैं कि हमारी किताबें गोरी लड़की, सुंदर लड़की, संस्कारी लड़के जैसे ट्रोप से बाहर निकलें।


Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content