“भारत के लोगों का शैक्षिक ज़रूरतों की तुलना में अस्तित्व के लिए संघर्ष अधिक ज़रूरी है। इसलिए, शिक्षा और इसकी योजना को बड़े सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक संदर्भ से जोड़ा जाना चाहिए।”
ये लाइनें रामूर्ति समिति के पेपर ‘एक प्रबुद्ध और मानवीय समाज की ओर’ (टुवर्डस एनलाइटेंड एंड ह्यूमेन सोसायटी) से ली गई है। इस पेपर में भारतीय शिक्षा की समस्याओं के विचार पेश किए गए हैं। ये लाइनें इस मायने में समावेशी हैं कि ये उन सभी कारणों को संज्ञान में लेती हैं जो हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था को गहराई से प्रभावित करती आ रही हैं। बता दें कि रामूर्ति समिति (1990) देश में शिक्षा की सबसे महत्वपूर्ण समीक्षा समिति में गिनी जाती है।
साल 1986 में भारत सरकार ने दूसरी शिक्षा नीति की घोषणा की। अगले ही साल से इस नयी शिक्षा नीति को लागू करने का काम शुरू कर दिया। 1990 में शिक्षा की इस नीति की कमियों को संबोधित करने और इसकी समीक्षा के लिए दो समितियों- राममूर्ति समिति (1990) और जनार्दन रेड्डी समिति (1992) का गठन किया गया था। इसमें सबसे महत्वपूर्ण समिति, रामूर्ति समिति रही।
राममूर्ति समिति का कहना था कि हमारी शिक्षा की संस्थाएं ‘समतावाद’ के विचार से प्रभावित होती हैं जिनका मूल्यांकन किया जाना चाहिए ताकि एक ऐसी शैक्षिक व्यवस्था को तैयार किया जा सके जो देश की शिक्षा को समतावादी नज़रिये की ओर ले जाए। इन दोनों ही समितियों के सुझावों को देश की तीसरी शिक्षा नीति (1992) में जोड़ा गया। लेकिन इस लेख में हम आगे रामूर्ति समिति की चर्चा करने जा रहे हैं जिसने अपनी रिपोर्ट में शिक्षा की व्यवस्था में जेंडर और पितृसत्ता, सामाजिक अन्याय और वर्ग भेद पर बात करते हुए साल 1986 की नीति की कमियों को उभारा था।
राममूर्ति समिति की रिपोर्ट आंकड़ों के साथ-साथ महिलाओं की स्थिति, पिछड़े, वंचितों और अल्पसंख्यकों की शिक्षा की भी बात करती है। यह हमें यह बताने की कोशिश करती है कि शिक्षा के क्षेत्र में ख़ासकर कि स्कूलों में लड़कियों की कम भागीदारी और संस्थाओं का पितृसत्तात्मक रवैया केवल एक सामाजिक समस्या ही नहीं है। शिक्षा को सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से देखने की दृष्टि इस समिति को संविधान से मिलती है। समिति के अनुसार वास्तव में, संविधान में दिए गए मौलिक कर्तव्य सबसे कम पढ़े गए अध्यायों में से एक हैं।
समिति की रिपोर्ट महिलाओं की शिक्षा से जुड़े सामाजिक और सांस्कृतिक वास्तविकताओं के एक बड़े संदर्भ को शामिल करने का सुझाव देती है। यह एक ऐसा व्यापक संदर्भ है जिसमें महिलाएं रह रही होती हैं और जिससे उनकी शैक्षिक स्थिति प्रभावित भी होती है। रिपोर्ट का ऐसा नज़रिया पितृसत्ता की जड़ों तक पहुंचने की कोशिश करता है।
देखा जाता है कि लड़कियों की शिक्षा पर उनकी सामाजिक भूमिकाएं अधिक प्रभाव डालती हैं। अक्सर वे मां, पत्नी, गृहिणी जैसी घरेलू भूमिकाओं तक ही सीमित रह जाती हैं। भूमिकाओं का यह असमान बंटवारा लैंगिक असमानता का आधार बनता है। समिति की रिपोर्ट लड़कियों की शिक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले सांस्कृतिक मानदंड और महिलाओं की घरेलू और प्रजनन भूमिकाओं को ज़िम्मेदार मानती है।
रिपोर्ट समावेशी समाज की संकल्पना पर भी बात करती दिखाई देती है। रिपोर्ट का कहना है कि लैंगिक पूर्वाग्रह का प्रभाव अलग-अलग सामाजिक और आर्थिक समूहों में अलग-अलग होता है।
रिपोर्ट ने लड़कियों को स्कूल भेजने के प्रति नकारात्मक सोच को उजागर उस वक्त ही किया था। उदाहरण के तौर पर लड़कियों को स्कूल न भेजने या बीच में ही स्कूल छुड़वा देने, कम उम्र में शादी के पूर्वाग्रहों में विशेष रूप से किशोरावस्था के कारण। अक्सर किशोरावस्था की ओर बढ़ती लड़कियों के प्रति रूढ़िवादी नज़रिया शिक्षा में उनकी भागीदारी को काफ़ी प्रभावित करता है। साथ ही यह उनकी शिक्षा की यात्रा को और भी चुनौतीपूर्ण बना देता है। रिपोर्ट के अनुसार, ये समाज में मौजूद पितृसत्तात्मक मूल्यों और दृष्टिकोणों का प्रतिबिंब हैं।
रिपोर्ट समावेशी समाज की संकल्पना पर भी बात करती दिखाई देती है। रिपोर्ट का कहना है कि लैंगिक पूर्वाग्रह का प्रभाव अलग-अलग सामाजिक और आर्थिक समूहों में अलग-अलग होता है। लैंगिक पूर्वाग्रह ख़ासतौर से उन समुदायों पर ज़्यादा कठोर होते हैं जो समाज में भेदभाव का सामना करते हैं। ऐसे सामाजिक और आर्थिक समूहों से आनेवाली लड़कियों पर थोपी जानेवाली घरों की जिम्मेदारियां उनकी स्कूली शिक्षा में एक बड़ी बाधा बन जाती हैं।
समाज में प्रचलित लैंगिक पूर्वाग्रह का शिक्षा प्रणाली के कई पहलुओं पर सीधा प्रभाव पड़ता है। इनमें लड़कियों की शिक्षा के लिए अपर्याप्त सुविधाएं, पाठ्यक्रमों जैसे पाठ्यपुस्तकों में लैंगिक रूढ़िवादिता, लड़कियों के प्रति शिक्षकों और प्रशासकों का नकारात्मक दृष्टिकोण और देश में सरकारी पदों पर महिलाओं का खराब प्रतिनिधित्व शामिल है। इसलिए देश में शिक्षा नीति को लड़कियों की शिक्षा को प्रभावित करने वाले सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संदर्भों में संबोधित करना चाहिए।
स्कूलों में लड़कियों की पहुंच को आसान बनाने और उनके स्कूल को जारी रखने के लिए समिति की रिपोर्ट स्कूली शिक्षा में सुविधाओं की मौजूदगी को भी एक अहम पहलू मानती है। इन सुविधाओं को समझने के लिए रिपोर्ट ने उस समय के कुछ आधिकारिक आंकड़े दिए गए हैं। उदाहरण के तौर पर तब देश में 48.6% बस्तियों में प्राथमिक विद्यालय नहीं हुआ करते थे। इन बस्तियों में 300 से अधिक व्यक्तियों की आबादी वाली बस्तियां शामिल थी। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण आबादी का लगभग 95% प्राइमरी स्कूल एक किलोमीटर की पैदल दूरी पर स्थित थे। ग्रामीण क्षेत्रों में यह दूरी लड़कियों के लिया ज़्यादा मुश्किल होती थी खासकर की उन लड़कियों के लिए जो प्राइमरी में भी पढ़ रही थीं और घरेलू कामों में भी लगी हुई थीं।
समाज में प्रचलित लैंगिक पूर्वाग्रह का शिक्षा प्रणाली के कई पहलुओं पर सीधा प्रभाव पड़ता है। इनमें लड़कियों की शिक्षा के लिए अपर्याप्त सुविधाएं, पाठ्यक्रमों जैसे पाठ्यपुस्तकों में लैंगिक रूढ़िवादिता, लड़कियों के प्रति शिक्षकों और प्रशासकों का नकारात्मक दृष्टिकोण और देश में सरकारी पदों पर महिलाओं का खराब प्रतिनिधित्व शामिल है।
हम आज भी देख सकते हैं कि स्कूलों तक लड़कियों की पहुंच की यह समस्या आज भी बनी हुई है। रिपोर्ट के संबंध में बात करें तो प्राइमरी स्तर की तुलना में मिडिल स्कूल तक आते-आते लड़कियों की स्कूल में पहुंच और अधिक कम हो जाती है। इसका प्रमुख कारण सामाजिक और सांस्कृतिक बाधाएं हैं। उस समय केवल 13.3% बस्तियों में मिडिल स्कूल थे। रिपोर्ट ने संभावना व्यक्त करते हुए कहा की ग्रामीण बस्तियों में मिडिल स्कूलिंग की खराब उपलब्धता लड़कियों को स्कूलों में बने रहने में एक बड़ी बाधा हो सकती है। लड़कियों को लेकर परिवारवालों की किशोरावस्था से जुड़ी कमज़ोर सोच के कारण भी लड़कियां आगे की पढ़ाई करने से चूक जाती हैं। इसमें सबसे ज़्यादा कमजोर स्थिति में एससी/एसटी और अन्य हाशिये की पहचान वाले सामाजिक समूह से आनेवाली लड़कियां होती हैं।
जब हम स्कूलों के पाठ्यक्रम को जेंडर लेंस से देखते हैं तो कई सारी समस्याओं को देख पाते हैं। पाठ्यपुस्तकों में महिलाओं की की तस्वीरों और भूमिकाओं को लैंगिक रूढ़िवादी नज़रिये से शामिल किया जाता है। इनमें ज्यादातर पुरुष केंद्रित भाषा का प्रयोग हर जेंडर के लोगों के लिए होता है। पाठ्यपुस्तक के भीतर दी गई सूचनाओं में पुरुषों की सूचनाओं की मात्रा ज्यादा होती है। हमें इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में स्वतंत्रता संग्राम के संघर्षों और आंदोलनों में महिलाओं के योगदान का ज़िक्र न के बराबर मिलता है। समिति की रिपोर्ट स्कूलों में पाठ्यक्रम का मूल्यांकन करती है। इसने श्रमशक्ति रिपोर्ट के एक तथ्य का ज़िक्र किया था जिसमे कहा गया की स्कूली पाठ्यपुस्तकों में लड़कियों और महिलाओं की आर्थिक गतिविधियों से जुड़ी भूमिकाओं को शायद ही कभी चित्रित या शामिल किया जाता है। बच्चे इसे पढ़कर लैंगिक गैरबराबरी को आत्मसात करते हैं।
किसी भी समिति का उद्देश्य समस्याओं के सभी आयामों पर विचार करना और उसके सुझावों को पेश करना होता है। इस मायने में रामूर्ति समिति शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं के साथ-साथ वंचितों की शैक्षिक चुनौतियों का सफल रूप से समावेशीकरण करती है।
कई बार शिक्षकों के दृष्टिकोण और व्यवहार में भी लैंगिक पूर्वाग्रह दिखाई देते हैं। रिपोर्ट इस पर सुझाव देती है कि प्रशिक्षण के ज़रिये लैंगिक पूर्वाग्रह से ग्रस्त टीचरों के व्यवहार में सुधर लाया जा सकता है। महिलाओं की भूमिकाओं में पुरानी परंपराओं और मिथकों पर जेंडर के नज़रिये से कक्षा में चर्चा की जानी चाहिए। इसी तरह, महाकाव्यों और पौराणिक कथाओं में महिलाओं को जिस प्रकार से चित्रित किया जाता है इसकी कक्षा में आलोचनात्मक चर्चा की जानी चाहिए।
इस तरह नीतियों को रास्ता दिखाने के लिए कोई समिति अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। किसी भी समिति का उद्देश्य समस्याओं के सभी आयामों पर विचार करना और उसके सुझावों को पेश करना होता है। इस मायने में रामूर्ति समिति शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं के साथ-साथ वंचितों की शैक्षिक चुनौतियों का सफल रूप से समावेशीकरण करती है।