स्वास्थ्यशारीरिक स्वास्थ्य बात शिक्षण संस्थानों में ट्रांसफोबिया और होमोफोबिया की

बात शिक्षण संस्थानों में ट्रांसफोबिया और होमोफोबिया की

हमारा समाज आज भी बुनियादी रूप से पितृसत्ता और होमोफोबिया से ग्रसित है। हमारे घर इन रूढ़िवादी विचारों की नींव को मज़बूत करते हैं। आखिर स्कूल भी तो हमारे इसी होमोफोबिक, पितृसत्तात्मक समाज का हिस्सा हैं, ऐसे में ये LGBTQIA+ समुदाय से आनेवाले स्टूडेंट्स के लिए सेफ स्पेस कैसे बन सकता है। जेंडर और यौनिकता के आधार पर लोगों के साथ हिंसा, उत्पीड़न, शोषण किया जाता है। 

साल 2020 में मुंबई के धारावी में एक 17 साल के नाबालिग की उसके तीन दोस्तों ने इसलिए हत्या कर दी क्योंकि पीड़ित को साड़ी पहनना और डांस करना पसंद था। इसी साल फरवरी के महीने में हरियाणा के फरीदाबाद में एक दसवीं के स्टूडेंट की आत्महत्या से मौत हो गई। वजह- स्कूल में उसे उसकी यौनिकता को लेकर प्रताड़ित किया जा रहा था।

यूनेस्को की एक स्टडी जिसमें तमिलनाडु के 18 से 22 साल की उम्र के 371 लोग शामिल थे, इनमें से 60 से 50 फीसद लोगों ने माना कि जब वे मिडिल या हाईस्कूल में थे तो उन्हें शारीरिक रूप से प्रताड़ना का सामना करना पड़ा था। 43% लोगों ने बताया कि स्कूल में उन्हें सेक्सुअली उत्पीड़ित किया गया था। नतीजा 63% स्टूडेंट्स की स्कूल में परफॉर्मेंस प्रभावित हुई और 33% ने पढ़ाई ही छोड़ दी।

घर के बाद स्कूल को तो विद्यार्थियों के लिए सबसे ज्यादा सुरक्षित और सेफ स्पेस के रूप में देखा जाता है। लेकिन क्या हमारे शैक्षणिक संस्थान एलजीबीटी+ समुदाय के लिए एक सेफ स्पेस बन पाए हैं? हमने जिन आंकड़ों की चर्चा की उसके आधार पर देखें तो इसका जवाब न में है। कैसे हमारे स्कूल, कॉलेज होमोफोबिया, ट्रांसफोबिया, जेंडर, यौनकिता आदि के आधार पर होनेवाले भेदभाव को रोकने में नाकामयाब रहे हैं, इस लेख में हम जानने की कोशिश करते हैं।

शिक्षण संस्थानों में होमोफोबिया की जड़

हमारा समाज आज भी बुनियादी रूप से पितृसत्ता और होमोफोबिया से ग्रसित है। हमारे घर इन रूढ़िवादी विचारों की नींव को मज़बूत करते हैं। आखिर स्कूल भी तो हमारे इसी होमोफोबिक, पितृसत्तात्मक समाज का हिस्सा हैं, ऐसे में ये LGBTQIA+ समुदाय से आनेवाले स्टूडेंट्स के लिए सेफ स्पेस कैसे बन सकता है। जेंडर और यौनिकता के आधार पर लोगों के साथ हिंसा, उत्पीड़न, शोषण किया जाता है। 

सिसजेंडर-हेट्रोसेक्सुअल स्टूडेंट्स के मुकाबले, LGBTQIA+ से आनेवाले स्टूडेंट्स के साथ हिंसा होने की संभावना कई गुना अधिक होती है। ये हिंसा ज़ाहिर सी बात है उनके जेंडर और यौनिकता के आधार पर की जाती है, ऐसे में ज़रूरत है कि हमारे स्कूलों को, शिक्षकों को, वहां काम करनेवाले हर स्टाफ को इन मुद्दों पर जागरूक किया जाए, ट्रेनिंग दी जाए, काउंसलर्स की नियुक्ति की जाए

इस जेंडर बाइनरी के तहत तो हमारे स्कूलों में लड़के-लड़कियों को हर तरीके से अलग बिठाया जाता है, उनके गेम्स पीरियड्स अलग होते हैं, लंच करने की जगह अलग होती है। लड़कों के लिए स्पोर्ट्स डे, लड़कियों के लिए डांस के प्रोग्राम्स। इन सारी पाबंदियों और रूढ़िवादी सोच के बीच हमारे स्कूलों का क्वीयर फ्रेंडली होना, जेंडर और यौनिकता के पहलुओं को संवेदनशील होकर समझना अपने आप में एक नामुमकिन सी बात लगती है। 

हिंसा और उत्पीड़न के ये रूप अलग-अलग स्तरों पर हमारे बीच मौजूद हैं, जो विद्यार्थी पितृसत्ता द्वारा गढ़ी गई जेंडर की बाइनरी से अलग होते हैं उन्हें बचपन से ही उत्पीड़न का सामना अलग-अलग रूपों में करना पड़ता है। एक जर्नल बताता है कि अपनी सेक्सुअलिटी के आधार पर एक स्टूडेंट को हर दिन औसतन 8 बार होमोफोबिक अपमान, टिप्पणियों का सामना करना पड़ता है। 

यह ज़रूरी नहीं कि जेंडर और यौनिकता के आधार पर होनेवाली यह हिंसा हमेशा शारीरिक ही हो। होमोफोबिक टिप्पणी करना, LGBTQIA+ समुदाय से आनेवाले स्टूडेंट्स को तरह-तरह से परेशान करना भी उनके मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य को उतना ही प्रभावित करता है। रिसर्च और सर्वे बताते हैं कि LGBTQIA+ समुदाय से आनेवाले स्टूडेंट्स को सबसे ज्यादा उनके हाव-भाव, पहनावे, उनके बोलने या खुद को एक्सप्रेस करने के तरीके आदि को लेकर शोषित किया जाता है। 

सपोर्ट सिस्टम की कमी का होना

LGBTQIA+ समुदाय से आनेवाले स्टूडेंट्स को हिंसा और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है यह एक तथ्य है लेकिन साथ ही इन स्टूडेंट्स को स्कूल प्रशासन या शिक्षकों से भी कोई मदद नहीं मिलती,यहां तक कि अक्सर शिक्षक खुद भी इनके साथ हिंसा और भेदभाव करते हैं। यह भी इस मुद्दे का एक बहुत बड़ा पहलू है। हिंसा और उत्पीड़न को नज़रअंदाज़ करने की शुरुआत बहुत छोटे स्तर पर होती है। उदाहरण के तौर अगर किसी स्टूडेंट के हाव-भाव को लेकर उसपर होमोफोबिक टिप्पणियां की जा रही हैं तो अक्सर इन मामलों को उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता। ज्यादातर मामलों में शिक्षकों को यह ट्रेनिंग ही नहीं दी जाती कि वे इन मामलों को कैसे संवेदनशीलता से हैंडल करें, हमारा पाठ्यक्रम में लैंगिक भेदभाव और रूढ़िवादी सोच आज भी हावी है। इसे जेंडर और यौनिकता के आधार पर संवेदनशील और समावेशी बनाने की कोशिशें नज़र नहीं आती। 

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और केरल डेवलपमेंट सोसाइटी द्वारा द्वारा दिल्ली और यूपी में की गई एक स्टडी बताती है कि 52% ट्रांस स्टूडेंट्स को अपने ही क्लासमेट्स ने हरैस किया, 12% को उनके शिक्षकों द्वारा और 13% को स्कूल के नॉन-टीचिंग स्टाफ ने प्रताड़ित किया। इन आंकड़ों से साफ पता चलता है कि हमारे स्कूल और शिक्षक इन मुद्दों के प्रति कितने संवेनशील हैं। लेकिन हमारे देश में क्या हुआ?

होमोफोबिक टिप्पणी करना, LGBTQIA+ समुदाय से आनेवाले स्टूडेंट्स को तरह-तरह से परेशान करना भी उनके मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य को उतना ही प्रभावित करता है।

पिछले साल की ही बात है NCERT की वेबसाइट पर शिक्षकों के लिए ट्रांस समुदाय से आनेवाले स्टूडेंट्स को समझने, उनके प्रति संवेदनशील बनने के लिए एक ट्रेनिंग मैनुअल अपलोड किया गया था। इसका विरोध हुआ यह कहते हुए कि ये जेंडर रिएलिटी के अनुरूप नहीं है। यह कहना एलजीबीटी+ समुदाय से आनेवाले न जाने कितने स्टूडेंट्स के अनुभवों को, उनके अस्तित्व को खारिज करता है। ये विरोध हमारे समाज में तब भी देखने को मिलता है जब बात स्कूलों के सिलेबस में CSE को जोड़ने की होती है।

ज़रूरत शिक्षण संस्थानों को जेंडर और यौनिकता के आधार पर समावेशी बनाने की

सिसजेंडर-हेट्रोसेक्सुअल स्टूडेंट्स के मुकाबले, LGBTQIA+ से आनेवाले स्टूडेंट्स के साथ हिंसा होने की संभावना कई गुना अधिक होती है। ये हिंसा ज़ाहिर सी बात है उनके जेंडर और यौनिकता के आधार पर की जाती है, ऐसे में ज़रूरत है कि हमारे स्कूलों को, शिक्षकों को, वहां काम करनेवाले हर स्टाफ को इन मुद्दों पर जागरूक किया जाए, ट्रेनिंग दी जाए, काउंसलर्स की नियुक्ति की जाए। भेदभाव और बुलिंग को रोकने के लिए जो कानून पहले से मौजूद हैं उन्हें लागू किया जाए।  होमोफोबिक टिप्पणियों और हिंसा की हर घटना को गंभीरता से लिया जाए। शिक्षा से जुड़ी हर नीति को समावेशी बनाया जाए, इसे सिर्फ लड़का-लड़की की बाइनरी तक न सीमित किया जाए। ऐसा इसलिए ज़रूरी है क्योंकि अगर हमारे स्कूलों को समावेशी नहीं बनाया गया तो स्टूडेंट्स की एक बड़ी आबादी शिक्षा के अपने बुनियादी अधिकार से वंचित हो जाएगी। 


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