नारीवाद नारीवादी ज्ञान मीमांसा के संदर्भ और भारतीय मीडिया: एक नज़र थ्योरी और अनुभवों को साथ रखते हुए

नारीवादी ज्ञान मीमांसा के संदर्भ और भारतीय मीडिया: एक नज़र थ्योरी और अनुभवों को साथ रखते हुए

समाज में जितनी महत्ता आम इंसान तक पहुंचने वाली सूचना की है, उतनी ही महत्ता सूचना किस भाषा में पहुंचती है उसकी भी है। इसलिए स्त्री संबंधित या जेंडर संबंधित ख़बरों को रिपोर्ट करते वक्त मीडिया की भाषा और गेज़ की पड़ताल जरूरी है। हाल ही में 'लैंगिक हिंसा की कवरेज़ और हिंदी मीडिया' पर एक नारीवादी मीडिया संस्थान द्वारा रिपोर्ट प्रकाशित की है।

निज़ी तौर पर मैं अक्सर ख़ुद को कई मामलों में थ्योरी, थ्योरी की दुनिया की भाषा और अनुभव, आम लोगों की भाषा के बीच खड़ी पाती हूं। लेकिन ये दोनों दुनिया क्या एक दूसरे से बिल्कुल अलग हैं? दर्शनशास्त्र परास्नातक की अकादमिक ज़मीन पर एक पैर और दूसरा पैर अपने गांव-समाज, रोज़मर्रा जीवन, लिखे गए ग्राउंड रिपोर्ट्स पर रखे हुए मैं नारीवादी ज्ञान मीमांसा को समझने की कोशिश करती हूं। यह लेख नारीवादी ज्ञान मीमांसा (ज्ञान मीमांसा, जिसे अक्सर थ्योरी के खांचे में रखा जाता है) के साथ भारतीय मीडिया के संबंध पर एक नज़र डालने का प्रयास है। इस लेख में हम कुछ फेमिनिस्ट रिपोर्ट्स-प्रोजेक्ट्स पर नज़र डालेंगे। साथ ही देखेंगे कि क्या मीडिया नारीवादी भाषा या भाषा के समावेशी रूप को अपना पाने में क़ामयाब हुआ है?

क्या ज़रूरी है एक ‘फेमिनिस्ट मेथड’/ज्ञान को समझने का नारीवादी तरीक़ा?

‘ऑन फेमिनिस्ट मेथडोलॉजी’ नामक रिसर्च पेपर में मार्टिन हम्मर्सले ‘Validity of Experience as against method’ शीर्षक के अंदर बड़ी ज़रूरी बात करती हैं। वह कहती हैं कि इस तरीक़े के अंतर्गत पारंपरिक वैज्ञानिक तरीक़े की जगह निजी अनुभवों पर ज़ोर दिया जाता है। पारंपरिक वैज्ञानिक ज्ञान मीमांसा पर हम्मर्सले के इस बयान का अर्थ समझने के लिए देखना होगा कि पारंपरिक ज्ञान मीमांसा स्त्री अनुभवों, स्त्री जीवन, स्त्री पहचान को लेकर क्या रुख़ रखती है। ‘द कलर ऑफ एंजल्स‘ नामक क़िताब में कोस्टेन्स क्लासेन ‘कोल्ड वीमन/हॉट मेन’ शीर्षक के अंदर बताती हैं: दृष्टि जगत (visual domain) के अंतर्गत पुरुषों को केवल तर्कसंगत गुण जैसे रोशनी और आकार से जोड़ा जाता था। वहीं, महिलाओं को केवल तर्कहीन गुण जैसे अंधकार और कामुक रंगों से जोड़ा जाता रहा है। 

पौरुष को रोशनी से जोड़ना पुरुषों के ज्ञानी होने और समाज में पितृसत्तात्मक व्यवस्था बनाए रखने के लिए लैंगिक पूर्वाग्रह को मजबूत करने की बौद्धिक साजिश है। स्त्रियों को कामुकता के रंगों से जोड़ना, उस पितृसत्तात्मक सोच को मजबूती देती है जो बताती है कि स्त्रियों की सामाजिक भूमिका आकर्षण मात्र के लिए मौजूद शरीर है। पुरुषों के अस्तित्व को दिमाग़ और दिमाग़ी काम, महिलाओं के अस्तित्व को शरीर और इंद्रियों की इच्छा के खांचे में सीमित किया गया। क्लासेन श्रमिक वर्ग के काम को इस इस संदर्भ से जोड़कर कहती हैं, “पति, पत्नी खेतों और लघु उद्योगों में एक साथ काम करते थे। पुरुषों और महिलाओं द्वारा किए गए श्रम के बीच कोई साफ़ बंटवारा नहीं था, लेकिन ऐसे प्रतीकात्मक ढांचे तब भी थे।”

कार्ल पॉपर नामक दार्शनिक मानते हैं कि किसी भी हाइपोथीसिस के ख़िलाफ़ एक भी प्रमाण हाइपोथीसिस को ग़लत साबित कर सकता है। आश्चर्य है कि पितृसत्तात्मक समाज के अंदर स्त्री विरोधी सोच या यह पितृसत्तात्मक हाइपोथीसिस कि स्त्रियां बौद्धिक जीव नहीं हैं, खारिज़ क्यों नहीं हुई? क्या उस ज़माने में कोई भी स्त्री पढ़ने-लिखने का काम, अपने घर के बाहर शारीरिक श्रम, बौद्धिक बहसों में मौक़ा मिलने पर भी हिस्सा नहीं ले रही थी? इस तरह का पितृसत्तात्मक सामान्यीकरण किस हद तक सही है?

मीडिया और जेंडर रिपोर्टिंग की भाषा

समाज में जितनी महत्ता आम इंसान तक पहुंचने वाली सूचना की है, उतनी ही महत्ता सूचना किस भाषा में पहुंचती है उसकी भी है। इसलिए स्त्री या जेंडर संबंधित ख़बरों को रिपोर्ट करते वक्त मीडिया की भाषा और गेज़ की पड़ताल ज़रूरी है। हाल ही में ‘लैंगिक हिंसा की कवरेज़ और हिंदी मीडिया‘ पर नारीवादी मीडिया संस्थान फेमिनिज़म इन इंडिया द्वारा रिपोर्ट प्रकाशित की गई है। इस रिपोर्ट की मुख्य शोधकर्ता और रिपोर्ट लेखक रितिका बातचीत में कहती हैं, “जेंडर के मुद्दे पर मीडिया की भाषा बहुत की असंवेदनशील है। आपको ख़बर पढ़कर लगेगा कि उन्होंने ऐसा लिख कैसे दिया? क्या इन मीडिया संस्थानों के पास इतनी समझ, समय और संसाधन नहीं है कि वह इस पर रिसर्च कर सकें? क्या महिला मुद्दों में केवल सिस-जेंडर महिलाएं ही हैं, ट्रांस महिलाएं कौन हैं या नॉन बाइनरी कौन सा शब्द है। मेनस्ट्रीम मीडिया इसे समझने की इस दिशा में कोई कोशिश करता नहीं दिखता। उनके लिए जेंडर एक अलग कोई कैटगरी नहीं है। मुद्दे भी जो रिपोर्ट होते हैं वे केवल जेंडर आधारित हिंसा और स्वास्थ्य के मुद्दों के अलावा कुछ और नहीं होते।”

रिसर्च अनुभव पर बात करते हुए वह बताती हैं कि 505 रिपोर्ट की उन्होंने स्टडी की लेकिन कम से कम हज़ार आर्टिकल्स स्टडी के लिए जमा किए गए थे। स्टडी में सामने आए बिंदु पर: नारीवाद और समावेशी नारीवाद पर मीडिया की शून्य संवेदनशीलता को रेखांकित करते हुए वह जोड़ती हैं “हाथरस केस को देखिए। हमने इस केस स्टडी में पाया कि प्रिंट हो या डिजिटल मीडिया रिपोर्ट्स, कहीं भी न ही सर्वाइवर जो अब नहीं रहीं, उनकी जातिगत पहचान और न ही दोषियों की जातिगत पहचान का ज़िक्र था। हमें रिसर्च टाइमलाइन में पीछे जाकर इस केस को स्टडी में शालिम करना पड़ा क्योंकि इस तरह की रिपोर्टिंग जातिगत आधार पर होनेवाली यौन हिंसा को नज़रअंदाज़ करती है।”

सर्वाइवर और प्रीडेटर के बीच जातिगत आधार पर, सामाजिक पहचान की असमानता है, जिस वजह से ये केवल यौन हिंसा का केस नहीं है। वह कहती हैं, “रेप की घटना के बाद महापंचायत हुई थी दोषियों के समर्थन में। अब तो वह क़ानूनी रूप से रिहा हैं, आरोप साबित नहीं होता है, तब भी मीडिया जाति की बात नहीं कर रहा है।” रिसर्चर ने मेनस्ट्रीम मीडिया के साथ काम किया, फ्रीलांस काम भी किया है, वह अपने अनुभव से कहती हैं, “जो बड़े मीडिया संस्थान हैं, जिनके पास बड़े बजट हैं वह भी ख़ुद पर काम नहीं करते। बुनियादी बातें जैसे सर्वाइवर के लिए ‘आबरू लूट जाना’ या ‘इज्ज़त लूट जाना’ जैसी भाषा का प्रयोग आपको उनके लिखे में मिलेगा।”

उनकी बातों से मुझे भंवरी देवी केस याद आता है। साल 1992 में ‘साथिन’ भंवरी देवी को आसपास कहीं हो रहे बाल विवाह के बारे में पता चला और वह उसे रोकने पहुंचीं। उसी दौरान भंवरी देवी जो एक दलित महिला थीं, की नोंकझोंक तथाकथित ऊंची जाति के कुछ पुरुषों के साथ हो गई। इसके बाद पांच गुर्जर पुरुषों ने भंवरी देवी को ‘सबक सिखाने’ के लिए उनका सामूहिक बलात्कार किया। बीबीसी की रिपोर्ट में लिखा है कि कैसे अभियुक्तों को बरी करते हुए कोर्ट ने दलील दी थी, “एक ऊंची जाति का इंसान निचली जाति की औरत का बलात्कार नहीं कर सकता क्योंकि इससे उसकी पवित्रता भ्रष्ट होती है, पति की मौजूदगी में उसकी पत्नी का बलात्कार कैसे संभव है।” ऐसे अन्य कई मामले हैं जहां जातिगत, धार्मिक पहचान लैंगिक हिंसा को दोहरी-तिहरी हिंसा, शोषण का रूप दे देते हैं। लेकिन जब मुख्यधारा मीडिया नारीवादी जैसे शब्द के प्रयोग से ही बचता है, जैसा कि रिसर्चर बताती हैं, ऐसे में उसे नारीवादी को परत दर परत समझने की फुर्सत कहां है।

मैंने रिसर्चर से यह भी जानने की कोशिश की कि मीडिया की असंवेदनशील भाषा महिलाओं या किसी भी सर्वाइवर को किस तरह से प्रभावित करता है। वह बचपन में किसी पहचान के व्यक्ति द्वारा की गई यौन हिंसा पर कहती हैं, “निज़ी रूप से मेरे लिए रिपोर्ट में इस कॉलम पर काम करना ट्रिगर भरा था। ‘फूफा ने किया रेप’, ‘चाचा ने किया रेप’ जैसी भाषा का प्रयोग ऐसे होता है जैसे ये कोई मसाला ख़बर है।” वह बाल यौन हिंसा की सर्वाइवर होने के निज़ी अनुभव से कहती हैं, ” एक सर्वाइवर के रूप में मुझे लग रहा था कि अगर मैंने उस घटना को रिपोर्ट की होती है तो इसी भाषा में उसे कवर किया गया होता। सर्वाइवर जब इस तरह के कवरेज़ से गुज़रते हैं उनकी मनोस्थिति पर क्या प्रभाव पड़ता होगा? जब इस तरह की पढ़ाई, समझ, काम करते हुए उस घटना को रिविज़िट करना मेरे लिए इतना खौफनाक है तो जहां ये बातें लागू नहीं हैं, जो इस तरह की रिपोर्ट के बाहर आने से अपने कारणों के वजह से बचना चाहते हैं उन सर्वाइवर पर क्या असर पड़ेगा? क्या अन्य सर्वाइवर इस तरह के दस्तावेज़ीकरण देखकर रिपोर्ट करने की हिम्मत जुटा पाएंगे? क्या सर्वाइवर को आप रिपोर्ट दिखाते हैं? आपकी भाषा को लेकर उनकी सहजता जानने की कोशिश करते हैं?”

‘ख़बर लहरिया’ और उनके रिपोर्ट्स का ज़िक्र करते हुए भाषा और गेज़ को लेकर रिसर्चर एक और महत्वपूर्ण बात बताती हैं। उस से पहले मैं अपने पाठकों को बता दूं कि ‘ख़बर लहरिया’ की रिपोर्टर्स को मीडिया के तथाकथित बड़े कॉलेजों-संस्थाओं से प्रशिक्षण प्राप्त नहीं है। लेकिन उनकी रिपोर्टिंग बताती है कि उनके पास बुनियादी समझ और संवेदना है जो उन के रिपोर्ट्स को नारीवादी ज्ञान मीमांसा के लिए अहम बनाती हैं। “एक दलित महिला दूसरी दलित महिला से बात कर रही हैं, उनके साथ जो घटित हुआ है उस बारे में सवाल कर रही हैं, यहां पर ‘पोलिटिकली करेक्ट’ शब्द के प्रयोग से ज़्यादा जरूरी है उनके बीच के बातचीत की समझ-सहजता और सेफ स्पेस की भावना।” वह आगे कहती हैं कि खबर लहरिया की मैनेजिंग एडिटर मीरा देवी जब रिपोर्टिंग के सिलसिले में यौन हिंसा की सर्वाइवर के घर जाती हैं तो गौर करती हैं कि दो दिन से सब्जियां कटी पड़ी हैं, भूरी हो रही हैं। ‘ख़बर लहरिया’ के रिपोर्ट्स मीडिया में ‘फेमिनिस्ट मेथड’ की महत्ता को साबित करती हैं।

बड़े-बड़े मीडिया संस्थानों की तुलना में कम बजट पर काम करने वाली ‘ख़बर लहरिया’ की रिपोर्ट्स में नारीवादी दृष्टिकोण की संवेदनशीलता है, जो उनके जिए अनुभवों से आता है तो ऐसे में मेनस्ट्रीम मीडिया का रवैया न केवल पेशेवर आलस का प्रमाण है बल्कि उन के अंदर लैंगिक संवेदनशीलता को लेकर मौजूद उपेक्षा भाव को भी दिखाता है। 

एक तरफ़ मीडिया का ये व्यवहार-भाषा दूसरी तरफ़ हैं महिलाओं द्वारा लिखी गई आत्मकथाएं, ख़ासकर उन महिलाओं का लेखन जो उनके आम, रोज़मर्रा जीवन का दस्तावेज़ीकरण है। ऐसी आत्मकथाएं नारीवादी ज्ञान मीमांसा को समृद्ध करती हैं। बेबी हलदर द्वारा लिखी गई ‘अ लाइफ लेस ऑर्डिनरी’ (अंग्रेजी में अनुवादित) हो या फिर बेबी ताई कांबले द्वारा लिखी गई ‘द प्रिज़न वी ब्रोक’ (अंग्रेजी में अनुवादित)। ऐसे लेखन महिलाओं को उनकी बात अपनी तरह से कहने के स्पेस का उदाहरण हैं। साथ ही वह अपने समय के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक माहौल का भी ईमानदार और प्रत्यक्ष दस्तावेज हैं। उदाहरण के लिए, ‘द प्रिज़न वी ब्रोक’ में बेबी ताई के लिखे से उनके क्षेत्र के हाशिए के समुदाय, ख़ासकर महार समुदाय के शिक्षित होने की डॉक्टर आंबेडकर द्वारा की गई अपील के असर के बारे में पता चलता है। “डॉक्टर आंबेडकर के विचारों से प्रभावित होकर मैंने अपने बच्चों को स्कूल भेजा”, उन्होंने लिखा है।

नारीवादी ज्ञान मीमांसा को विस्तृत और मजबूत करने वाले सारे ये श्रोत मेनस्ट्रीम मीडिया और डिजिटल इंडिया की असंवेदनशील रवैए के दौर में महत्वपूर्ण सामाजिक हस्तक्षेप हैं। ये नारीवादी विमर्श को क़िताबों से बाहर लाकर हकीकत की ज़मीन पर खड़ा करते हैं।

इन आत्मकथाओं की श्रेणी से अलग लेकिन अपने ढंग की कहानियां डिजिटल दुनिया में कई माध्यमों से कहती हैं फेमिनिस्ट थिंक टैंक/विचारमंच, ‘द थर्ड आई’ द्वारा संचालित ‘श से शिक्षा, फ़ से फ़ील्ड’ प्रोजेक्ट। यह प्रोजेक्ट ‘लर्निंग लैब’ नामक व्यापक प्रक्रिया का एक हिस्सा है। इस प्रोजेक्ट को लेकर मेरी बात हुई ‘द थर्ड आइ’ की ‘लर्निंग लैब’ की हेड रुचिका से। वह बताती हैं, “अकसर हम कुछ लोगों को, ख़ासकर वह जो अकादमिक दुनिया, बौद्धिक जगत के विमर्शों का हिस्सा नहीं उन्हें नॉलेज प्रोड्यूसर नहीं मानते। लर्निंग लैब गांव कस्बों में स्थित डिजिट एजुकेटर्स के जिए हुए अनुभवों, जो कि विविध और समृद्ध हैं, पर काम करता है। इस ज्ञान को डिजिटल दुनिया में लाने का काम लर्निंग लैब के माध्यम से दो साल पहले शुरू हुआ।” निरंतर ट्रस्ट द्वारा संचालित ‘द थर्ड आई’ का ‘लर्निंग लैब’ इसी दर्शन पर टिका है।

फेमिनिज़म इन इंडिया की रिसर्चर ने भी इस बिंदु का ज़िक्र किया था, “मुझे लगता है फेमिनिस्ट मीडिया पैकेजिंग करती है लेकिन असल काम तो ग्राउंड से हो रहा है। ज़मीन पर काम करनेवाले एनजीओ के साथ जुड़ी महिलाएं, बच्चियां असल में नारीवादी ज्ञान मीमांसा को समृद्ध कर रही हैं।” दो साल पहले यह काम शुरू हुआ था ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले 24 लोगों के साथ। ये सभी लोग उत्तर प्रदेश, राजस्थान और झारखंड के अलग-अलग सामुदायिक संस्थाओं के साथ काम करते थे। ‘श से शिक्षा फ़ से फ़ील्ड’ के दस ऑडियो एपिसोड इन्हीं डिजिटल एजुकेटर्स की मेहनत है। कहानी लिखना, उन्हें रिकॉर्ड करना, उन्हें सुनाए जाने के बीच-बीच में आनेवाली ध्वनि को रिकॉर्ड करना, सब कुछ उन्होंने खुद किया है।

स्टडी में सामने आए बिंदु पर: नारीवाद और समावेशी नारीवाद पर मीडिया की शून्य संवेदनशीलता को रेखांकित करते हुए वह जोड़ती हैं “हाथरस केस को देखिए। हम ने इस केस स्टडी में पाया कि प्रिंट हो या डिजिटल मीडिया रिपोर्ट्स, कहीं भी न ही सर्वाइवर जो अब नहीं रहीं की जातिगत पहचान और ना ही दोषियों की जातिगत पहचान का ज़िक्र था। हमें रिसर्च टाइमलाइन में पीछे जाकर इस केस को स्टडी में शालिम करना पड़ा क्योंकि इस तरह की रिपोर्टिंग जातिगत आधार पर होने वाली यौन हिंसा को नजरअंदाज करती है।”

इस ऑडियो सीरीज़ में दसवां एपिसोड है ‘पैसे चाहिए कि नहीं‘ जिसे लिखा और पढ़ा है कुसुम ख़ातून ने। कुसुम, जो सद्भावना नामक संस्था से जुड़ी हैं, उन्हें सुनते हुए आपको उनकी शैली के बारे में ये ख़ास बात पाएंगे कि वह आम शब्दों में बड़े खूबसूरत तरीक़े से कहानी बुन रही हैं। कहानी में पात्र, जो कि वह खुद हैं, पिता से अपनी असहमति को सरल ढंग से, कम शब्दों में, आत्म स्वाभिमान से भरे व्यंग के माध्यम से दर्ज़ कर रही है। पात्र की लड़ाई है पढ़ाई के लिए, लेकिन उस लड़ाई में केवल हिंसा का भाव न होकर समझदारी, चाह, जिद का भाव है। तत्कालीन समाज में जब अभिव्यक्ति से लेकर विचारधारा हिंसा की संस्कृति से प्रभावित लगती है, कुसुम के लेखन का तरीक़ा मुझे एक श्रोता के रूप में इससे काफ़ी अलग लेकिन बेहद ही प्रभावशाली और स्मार्ट लगा।

वहीं एपिसोड 9, ‘छोटी बहू’ तीन महिलाओं, राजकुमारी प्रजापति, राजकुमारी अहिरवार और आरती अहिरवार ने मिलकर लिखा और उनमें से दो महिलाओं ने मिलकर रिकॉर्ड किया है। ‘छोटी बहू’ की आवाज़ में आपको घर के बाहर की दुनिया देखने की टीस सुनाई देगी और बाहर आने के बाद का उल्लास। मैं अन्य कहानियों के स्पॉइलर देने से फ़िलहाल बच रही हूं। रुचिका कहती हैं, “हमारा मुख्य उद्देश्य इंद्रियों से प्राप्त अनुभव को लेकर सजग करने का है, तब आप अपने आसपास की चीज़ों को लेकर पहले से बेहतर सोच, समझ, महसूस कर पाते हैं। दुनिया के साथ अपने संबंध को लेकर भी आपकी समझ बेहतर और बारीक़ होती है। इसके बाद आप अपने जीवन में किस तरह से सशक्त महसूस करते हैं? आपकी अभिव्यक्ति में क्या बदलाव आता है? हम ऐसे सवालों के साथ काम करते हैं। इसलिए हम अक्षर, आवाज़ और दृष्टि तीनों माध्यमों के ज़रिए काम करते हैं।”

रेडियो प्रोड्यूसर माधुरी आडवाणी ने कहानियों की रिकॉर्डिंग में प्रयोग आवाज़ें के बारे में बताया। “हो सकता है दिल्ली में शाम में सुनाई देनेवाली आवाज़ें बांदा की आवाज़ों से अलग हो, बांदा की दिल्ली से”, वह कहती हैं। सुननेवालों को अपने शहर की आवाज़ सुनकर, शब्दावली, भाषा, गेज़ पहचानी सी लगे इसलिए इन छोटी छोटी बातों पर भी काम किया है। “हमने कहा कि आप लोग साउंड बैंक बनाइए, जैसे कुसुम के कहानी में साइकिल आवाज़ उन्होंने खुद रिकॉर्ड की है, कहीं पर बांदा की चिड़ियों की आवाज़ है।” आवाज़ रिकॉर्ड करने के लिए एजुकेटर्स को संसाधन मुहैया करवाया गया है। लिखने के प्रक्रिया के बारे में माधुरी बताती हैं, “हर किसी के लिखने का तरीक़ा अलग था, लिखने को लेकर सबसे सवाल अलग थे।”

फेमिनिज़म इन इंडिया की रिसर्चर ने भी इस बिंदु का ज़िक्र किया था, “मुझे लगता है फेमिनिस्ट मीडिया पैकेजिंग करती है लेकिन असल काम तो ग्राउंड से हो रहा है। ज़मीन पर काम करने वाले एनजीओ के साथ जुड़ी महिलाएं, बच्चियां असल में नारीवादी ज्ञान मीमांसा को समृद्ध कर रही हैं।”

जूही, जिन्होंने बतौर मेंटर एडिटिंग पर एजुकेटर्स के साथ काम किया है, वह बताती हैं कि कई बार प्रक्रिया में उन्हें भी पता नहीं होता कि कैसे सवाल आएंगे, कैसे अनुभव होंगे। जैसे उदाहरण के तौर पर विकास ने कहा कि मैं लिख रहा हूं पर मुझे पता नहीं मैं रुकूं कहां। तब हमने उन्हें कुछ ब्लॉग के लिंक भेजे थे। वह कहती हैं, “नॉर्मल पॉडकास्ट का जो एस्थेटिक्स होता है हमारे पास वह नहीं था, कहीं न कहीं हमें भी ये समझना था और उन्हें भी। कभी ट्रैफ़िक की आवाज़ आती है, आसपास की आवाज़ें भी थीं। बार बार रेकॉर्ड करने या लिखने की भी स्थिति बनती थी।”

ग्राम्स्की ने लिखा है कि समाज में कोई भी गैर-बुद्धिजीवी नहीं होता लेकिन सबकी सामाजिक भूमिका बुद्धिजीवी की नहीं होती। नारीवादी नज़रिये से सीखने-सिखाने का प्लैटफ़ार्म तैयार करती ‘द थर्ड आई’ ज्ञान मीमांसा को गैर-श्रेणीबद्ध बनाने की दिशा में एक रचनात्मक और जरूरी उदाहरण है। नारीवादी ज्ञान मीमांसा को विस्तृत और मजबूत करनेवाले सारे ये स्रोत मेनस्ट्रीम मीडिया और डिजिटल इंडिया के असंवेदनशील रवैये के दौर में महत्वपूर्ण सामाजिक हस्तक्षेप हैं। ये नारीवादी विमर्श को क़िताबों से बाहर लाकर हकीकत की ज़मीन पर खड़ा करते हैं। जेंडर आधारित भेदभाव, शोषण का आंतरिकरण कर चुकी संस्कृति के दौर में जीनेवाले लोगों, महिलाओं को उम्मीद और भरोसा देते हैं। 


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