संस्कृतिकिताबें सुवर्णलताः समाज के बनाए संकीर्ण सामंती ढांचे में एक चेतनाशील स्त्री के जीवन की त्रासदी 

सुवर्णलताः समाज के बनाए संकीर्ण सामंती ढांचे में एक चेतनाशील स्त्री के जीवन की त्रासदी 

उपन्यास पढ़ते हुए लगातार दृष्टि में हमारे ही आसपास की ना जाने कितनी स्त्रियां आकर खड़ी हो जाती हैं जैसे सब अपना-अपना दुःख कहना चाहती हैं। जब हम निगाह भर उस दुःख को देखते हैं तो संवेदना हाहाकार करके थकने लग जाती है कि कितनी लड़ाइयां हैं जिन्हें हमें लड़ना है, कितनी जगहें हैं जहां हमारे साथ आज भी अन्याय हो रहा हैं।

एक रूढ़ और पारंपरिक समाज मे सोचने-समझने, वैज्ञानिक दृष्टि, गलत पर सवाल करने वाली, व्रत, कर्मकांड, पाखंड, अन्याय, असमानता पर सवाल करने वाली स्त्री की क्या दशा हो जाती है। ऐसे ही स्त्री जीवन के सत्य का दस्तावेज है उपन्यास ‘सुवर्णलता।’ ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित आशापूर्णा देवी का लिखा यह उपन्यास बंगाल में स्त्रियों के कठिन संघर्ष की कहानी है। ये एक श्रृंखला उपन्यास की विधा में लिखा गया दूसरा उपन्यास है। पहला उपन्यास है भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित प्रथम प्रतिश्रुति, जो कि सत्यवती नाम की स्त्री के जीवन और संघर्ष की कहानी है। 

सत्यवती, सुवर्णलता की माँ थीं, जो बंगाल के एक गाँव नित्यानंदपुर के कविराज रामकाली चटर्जी की अकेली पुत्री थीं। सत्यवती ने असंख्य बाधाओं और विपत्तियों के बीच समाज में अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष किया था। वह आजीवन समाज की रूढ़ियों से कुसंस्कारों और कुरीतियों से लड़ती रही लेकिन अपनी बेटी को इन कुरीतियों से न बचा पायीं और उसी संताप में वो बेटी को छोड़कर हमेशा के लिए काशी चली जाती हैं। इससे आगे सुवर्णलता अकेली सारा जीवन उसी आग मे जलती रही। 

“जीवन संग्राम में विजयिनी होने के हेतु हमेशा अग्रसर अंत में सत्यवती को हार माननी पड़ी अपनी सास और पति के सामने, उसका संस्कार मुक्त मन स्तब्ध रह गया। जब सास एलोकेशी ने सत्यवती की एकमात्र कन्या सुवर्णलता का बाल विवाह उसको बिना बताये कर दिया था। इस दुःख से वह इतनी आहत हुई कि संसार के सब बंधन छिन्न-भिन्न कर दिया। वह क्षोभ से अपने पति का घर, संतान सब कुछ को त्यागकर चली गयी।” ये उपन्यास सुवर्णलता का अंश है जिसने सुवर्णलता की मां सत्यवती के जीवन का परिचय है और सुवर्णलता के संघर्षपूर्ण जीवन का आरंभ।

यहां से सुवर्णलता के जीवन में यातना के दिन शुरू होते है। पारंपरिक दृष्टि से देखा जाए ऐसा नहीं था कि उसके जीवन में दुःख ही दुःख था लेकिन एक चेतनाशील स्त्री के लिए परंपराओं वाला समाज यातनाओं से भरा होता है। उपन्यास की पंक्तियां हैं कि सुवर्णलता का जीवन जब निःशेष होने को हुआ तब युग का छन्द बदल चुका था। सुवर्णलता फल, फूल व्याप्ति, विशालता में वनस्पति के समान परिपूर्णता का प्रतीक है। उसकी मृत्यु ऐसी उम्र और ऐसी अवस्था में हुई कि वह मृत्यु अवहेलना से भूल जाने की नहीं, शोक से हाहाकार करने की भी नहीं थी।

उपन्यास को पढ़ते हुए लगता है कि विवाह नाम की सामाजिक संस्था द्वारा स्त्रियों से क्या-क्या छीन लिया जाता है। विवाह करके स्त्री को एक पुरुष की संपत्ति बना दिया जाता है और वो आजीवन उसी संज्ञा में पड़ी रह जाती है।

जगर-मगर जीवन, जगर-मगर मृत्यु!

भारतीय पारंपरिक समाज में स्त्री का यही जीवन सुख-सौभाग्य का माना जाता है जहां उसकी अस्मिता का कोई अर्थ न हो। इसी वजह से सही-गलत, न्याय, अन्याय सोचने वाली स्त्री इस समाज में आजीवन घुटती, छटपटाती रहती है। सुवर्णलता का बचपन सुंदर सपनों से भरा था। वह मुक्ति की कामना रखने वाली माँ की बेटी थी जो परंपरा को तोड़कर अपने बच्चों को लेकर शहर जाती है उन्हें शिक्षा दिलाने के लिए जहाँ वो खुद भी शिक्षित हो और अपने बच्चों को भी शिक्षित कर सके।

आजादी की एक छोटी मशाल उसने अपने हाथ में थामी ही थी लेकिन छल से वो मशाल उसके हाथ से छीन ली गई। बच्ची सुवर्णलता को गाँव ले जाकर उसकी दादी उसका बाल विवाह करा देती हैं। ससुराल आकर वह बच्ची ठगी सी अवाक रह जाती है और अचानक चीख पड़ती है कि मुझे मेरी माँ के पास ले चलो। लेकिन एक रूढ़िवादी समाज के लिए स्त्री संवेदना का क्या अर्थ है स्त्रियां तो उनके लिए वस्तु होती हैं। सास, उसे भला- बुरा कहने लगती है और उसकी माँ सत्यवती को कोसने लगती है। वर्चस्व और सामंतवादी सोच में उसे अपनी बाल बहू का रोना भी एक अनावश्यक क्रिया लग रही है। 

उपन्यास पढ़ते हुए लगातार दृष्टि में हमारे ही आसपास की ना जाने कितनी स्त्रियां आकर खड़ी हो जाती हैं जैसे सब अपना-अपना दुःख कहना चाहती हैं। जब हम निगाह भर उस दुःख को देखते हैं तो संवेदना हाहाकार करके थकने लग जाती है कि कितनी लड़ाइयां हैं जिन्हें हमें लड़ना है, कितनी जगहें हैं जहां हमारे साथ आज भी अन्याय हो रहा हैं। ससुराल के सामन्ती परिवेश में आकर सुवर्णलता देखती है कि यहां अन्याय ही अन्याय है और स्त्रियों को पूर्ण मनुष्य मानने का चलन नहीं है। उसको पढ़ने का बेहद शौक है। पढ़ने की इच्छा के चलते उसे बहुत कष्ट और जिल्लत सहनी पड़ती है लेकिन वो पढ़ना नहीं छोड़ती। उसका पति प्रबोध भी नहीं चाहता कि वह किताबें पढ़े इसलिए वो घर की एक अंधेरी कोठरी में छुपकर किताब पढ़ती है। दूर के रिश्ते का एक भानजा उसको सबसे छिपाकर किताबें लाकर देता है और वह पढ़कर वापस कर देती है। लेकिन एकदिन ये चोरी पकड़ी जाती है और बहुत तरह से जलील करके उसका पति पीटता है।

ससुराल के सामन्ती परिवेश में आकर सुवर्णलता देखती है कि यहां अन्याय ही अन्याय है और स्त्रियों को पूर्ण मनुष्य मानने का चलन नहीं है। उसको पढ़ने का बेहद शौक है। पढ़ने की इच्छा के चलते उसे बहुत कष्ट और जिल्लत सहनी पड़ती है लेकिन वो पढ़ना नहीं छोड़ती।

उपन्यास को पढ़ते हुए लगता है कि विवाह नाम की सामाजिक संस्था द्वारा स्त्रियों से क्या-क्या छीन लिया जाता है। विवाह करके स्त्री को एक पुरुष की संपत्ति बना दिया जाता है और वो आजीवन उसी संज्ञा में पड़ी रह जाती है। लेकिन सुवर्णलता जीवन और उसकी आजादी का महत्व समझती थी और शायद यही समझना उसके जीवन की यातना भी बना। क्योंकि कभी- कभी स्त्रियों का न जानना भी उनके लिए एक तरह का सुख होता है। अपनी अस्मिता को न पहचानना एक सत्ता की ढाल पर जीवन भर चलते रहना किसी स्त्री के लिए सुख भी हो सकता है जैसे उसकी ससुराल में उसकी देवरानी, जेठानियों और ननद के लिए था।

सुवर्णलता में चेतना थी जिसने एक सामंती परिवेश में अपने अस्तित्व को लेकर जीवन भर दुखों का सामना किया। कलकत्ता में प्लेग फैलने पर उसका पति बच्चों सहित उसे अपनी बहन के गाँव में छोड़ने जाता है जहाँ बहन के क्रांतिकारी देवर को देखकर संदेह में जलता है। प्रबोध अपनी पत्नी को हमेशा अपनी सम्पत्ति समझता है और उसके रूप के कारण हमेशा सशंकित रहता है। उपन्यास का यह भाग हमें दिखता है कि एक चेतनाशील स्त्री किससे प्रेम कर सकती है शासन करने वाले रूढ़िवादी पुरुष से कि समता और न्याय की बात करने वाले आधुनिक मनुष्य से। उस गाँव में अपनी बड़ी ननद के घर वह ऐसा ही मनुष्य देखती है जो बदलाव और बराबरी की बात करता है, जो कविता लिखता है। उसे उस मनुष्य से आत्मीयता होती है वो दो मनुष्य का सहज रागात्मक सम्बन्ध था जिसे सामंती समाज कभी सहन नहीं कर पाता।

इसके कुछ समय बाद प्रबोध आता है उसे जल्दी से वहाँ से ले जाता है। लेकिन वह उसके मन को नहीं बांध पाया। उसका मन हमेशा उस बंधन में बेचैन रहा। घर-परिवार में कर्तव्य-बोध में उससे बड़ा कोई नहीं है ये बात उसके परिवार वाले भी स्वीकार करते हैं। उसके श्रेष्ठ मानवीय गुणों और त्याग को जानते हैं हालांकि उस घर-परिवार, समाज मे कोई भी उसकी विरक्ति को नहीं जानता था। एक मध्यवर्गीय चेतना में ढला समाज उसे स्वतंत्रता आंदोलन के प्रभाव में देखकर पागल समझता है। विदेशी कपड़ों की होली जलाते देख सब सिर पीटते हैं। उसी परिवेश में तमाम हिंसा द्वेष को सहते वह कई बार खुद की जान लेने का भी प्रयास करती है लेकिन असफल होती है।

भारतीय पारंपरिक समाज में स्त्री का यही जीवन सुख-सौभाग्य का माना जाता है जहां उसकी अस्मिता का कोई अर्थ न हो। इसी वजह से सही-गलत, न्याय, अन्याय सोचने वाली स्त्री इस समाज में आजीवन घुटती, छटपटाती रहती है।

जिस सामंती व्यवहार को करते देख वह अपने देवर प्रभास से घृणा करती थी उसी की झलक जब अपने बेटे में देखती है तो टूट जाती है। उसको आजीवन किसी ने नहीं समझा उसके बेटे और बेटियों ने भी नहीं समझा। हालांकि ये पीड़ा सिर्फ उसकी नहीं है बल्कि संसार में रूढ़ियों को तोड़ती, मनुष्य होने की समझ रखती आधुनिक स्त्री की भी है। आखिर में सामाजिक कुरीतियों से लड़ते-लड़ते एकदिन वह हार जाती हैं। लेकिन ये हार क्या उनका अंत है, क्या उनकी अस्मिता फिर सिर उठाकर नहीं खड़ी होती, ये लड़ती, मरती, गिरती स्त्रियां फिर खड़ी होती हैं और अन्याय का फिर से विरोध करती हैं।

उपन्यास के दृश्य में जब सुवर्णलता की किताब छपकर घर आती है तो उसका बड़ा बेटा किताब को लेकर उसका उपहास करता है, पति हमेशा की तरह जलील करता है और इस संताप में जलते हुए वह एक दिन सारी किताब को जला देती है। ये किताब का जलना स्त्री की इच्छा का जलना था। एक स्त्री जो उपन्यास, आत्मकथा, कविता, कहानी लिख सकती थी। लेकिन समाज उसे महज अपना सांस्कृतिक मजदूर बनाकर जीवन भर तड़पाता रहा। घर- परिवार और अपने ही बच्चों की अवमानना को झेलते हुए एक दिन दुनिया को छोड़कर चली जाती है। 

सुवर्णलता को दुनिया से बहुत आस थी मनुष्य नाम के जीव को मनुष्य संज्ञा से मिलाना चाहती थी। लेकिन समाज के इस गलत गणित के प्रश्न को हल करने में ,जीवन परीक्षा में उस स्त्री का जीवन बेहद कठिन हुआ और पारंपरिक आघात से चूर-चूर प्रत्याशा के पात्र की ओर ताकते खुद भी टूट गयी। एक चेतनाशील और दुनिया को अधिक मानवीय देखने के स्वप्न से भरी स्त्री के लिए रूढ़ियों और मान्यताओं का अवैज्ञानिक सोच का संसार कितना निर्मम होता है इस बात को और गहरे जानने  के लिए ये उपन्यास पढ़ा जाना चाहिए।


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