संस्कृतिकिताबें एक कप कॉफी: औरतों की बेरोज़गारी पर लिखी गई एक अर्थपूर्ण कहानी

एक कप कॉफी: औरतों की बेरोज़गारी पर लिखी गई एक अर्थपूर्ण कहानी

पूरी कहानी बेरोजगार युवाओं के संवाद पर चलती है लेकिन जहां बेरोज़गारी खुद जीवन की स्थायी दुर्घटना बनी हो वहां घटनाप्रधान दृश्य कहानी में गैरजरूरी लगते हैं। वे बातचीत के नाम पर बेहद अटपटी और ऊबाऊ बात करते जा रहे हैं और अनायास हंसी-मज़ाक के नाम पर जैसे वल्गर होते जा रहे थे। जैसे खालीपन उनके भीतर शोर कर रहा है और वे कोई और बात करते जा रहे हैं।

कहानी वहां से शुरू होती है जब भरतनाट्यम के एक कार्यक्रम में बहुत साल बाद कॉलेज के चार दोस्त मिलते हैं। कॉलेज में पाँच दोस्तों का इनका समूह हुआ करता था जिसमें चार लड़कियां और एक लड़का सुनील था। इनकी दोस्ती के किस्से कॉलेज में मशहूर थे चारों लड़कियों के नाम गरिमा, नबीला, बीनू और सुषमा हैं। आज ये सारे दोस्त सुषमा के भरतनाट्यम के कार्यक्रम को ही देखने आए थे।

कहानी सुनील के आत्मकथ्य शैली में चलती है जिसमें एक बेरोजगारी से त्रस्त युवा मन की असफलता, निराशा और कुंठा का मिलाजुला भाव है। लेकिन एक सत्य बेचैनी के साथ चलता है कि आखिर इस बेरोजगारी नाम के दुख को कैसे खत्म किया जाए। बकौल सुनील मंच पर सुषमा बेहद सम्मोहक लग रही थी। उन पांचों में वह अकेली थी जो पैसे और शोहरत दोनों कमा रही थी।कई बार यूरोप में अपनी प्रस्‍तुतियां करके आ चुकी थी और दो दिनों बाद ही अमेरिका जा रही थी। वह दुनिया के तमाम देशों में उड़ रही थी और बाकियों के लिए नेपाल भी अभी तक विदेश बना हुआ था।

यह सुनील का एकालाप है जो अपने एक साथी के जीवन में मिली सफलता के लिए सोच रहा है। वह इतना निराश है कि जीवन से कि अपनी दोस्त को बधाई देने का भी मन नहीं बना पा रहा है। वह कार्यक्रम खत्म होने पर वहां से निकलना ही चाहता है कि देखता है कि उसकी मित्र मंडली की बाकी की तीन दोस्त भी सुषमा के भरतनाट्यम का कार्यक्रम देखने आई हैं लेकिन वह उनसे भी नहीं मिलना चाहता। जिन दोस्तों के साथ जीवन के खूबसूरत दिनों की यादें जुड़ी हैं आज सुनील को भी अच्छे नहीं लग रहे हैं तभी उसकी बाकी तीनों दोस्त उसे देख लेतीं हैं। सुनील के एकालाप से ही कहानी आगे बढ़ती है। 

कहानी कॉफी की तलब से बहुत पहले से शुरू होती है। यहीं से कहानी में पात्रों का अंतर्द्वंद्व और अवसाद झलकने लगता है और कहानी के मध्य तक हमें बेरोजगारी की मार झेलती लड़की नबीला के मन की दशा पीड़ा से भर देती है। सुनील कॉलेज के दिनों को याद करके में सोच रहा है कि उन पांचों का खिलंदड़ भरा व्यक्तित्व आखिर कैसे मुरझा गया। वह वक्त के बदलने की बात दार्शिनिक अंदाज में सोच रहा है लेकिन सच तो है बेकारी और चिंता ने उन्हें बदल दिया है। 

सबसे पहले बीनू ने साथ छोड़ा। वह रिसर्च के लिए इलाहाबाद चली गई क्‍योंकि उसके पापा का ट्रांसफर इलाहाबाद हो गया था। उसकी रिसर्च भी नहीं पूरी हो पाई थी कि उसके पापा ने उसकी शादी कर दी और वह मिस बीनू से मिसेज शर्मा बनकर लखनऊ वापस आ गई। उसने रिसर्च बीच में छोड़ दिया और बीएड के लिए बनारस चली गई। बीएड करके लौटी तो फिर से रिसर्च शुरू की। ऐसे ही उसने नेट भी किया और अब प्राइमरी पाठशाला से लेकर विश्‍वविद्यालय तक नौकरी के लिए हाथ-पांव मार रही है। सुषमा बहुत पहले से ही भरतनाट्यम सीख रही थी। अब वही भरतनाट्यम उसके काम आ रहा है। उसने भरतनाट्यम के साथ कुछ लोकप्रिय फिल्‍मी गीतों का फ्यूजन तैयार किया और देखते-ही-देखते बाजार में एक खुमार बनकर छा गई। देश-विदेश में एक के बाद एक शो। गरिमा शादी करके दिल्‍ली चली गई और हाउसवाइफ बन गई।

स्त्री बेरोज़गारी पर हिंदी साहित्य में ये इस तरह की पहली और महत्वपूर्ण कहानी मेरी दृष्टि में आई। पढ़ते हुए जाने कितनी लड़कियों के मुरझाए और निराश चेहरे आंखों में आए। साहित्य में इस विषय पर और भी कहानियां आनी चाहिए जहां स्त्रियों की बेरोजगारी की पीड़ा को संवेदनात्मक स्वर मिल सके।

नबीला ने पिछले तीन सालों में यूनीक से लेकर यूनिवर्स तक सब कुछ चाट डाला है। प्रतियोगिता दर्पण, प्रतियोगिता किरण, योजना, कुरुक्षेत्र, द हिंदू से लेकर रोमिला थापर, इरफान हबीब और श्‍यामाचरण दुबे तक उसने सब कुछ इस तरह हजम कर डाला है कि उसका हाजमा खराब हो गया है। वह केंद्रीय सिविल परीक्षाओं से लेकर एसएससी. तक की तैयारियां एक साथ कर रही है। कभी प्री, कभी मेन्‍स, कभी इंटरव्‍यू, बस इसके आगे कुछ भी नहीं। कभी की हाजिरजवाब चुलबुली नबीला, पहले वाली नबीला लगती ही नहीं। नबीला की आंखों के नीचे काली झांइयां पड़ रही हैं। चेहरे पर हमेशा दिखनेवाला उल्‍लास पता नहीं कहां गुम हो चुका है।

नबीला की लाख कोशिश के बावजूद भी उसे नौकरी नहीं मिल रही है और दिन-ब-दिन वो टूटती जा रही है। उसका तनाव उसके व्यवहार में आ गया है जो धीरे धीरे गुस्से में बदलता जा रहा है। बेरोज़गारी का दंश झेलते-झेलते जैसे अब थक गई है। भारतीय समाज में लड़की को नौकरी न मिलना उसकी सारी अस्मिता को ही धुंधला करने लगता है। हालांकि बेरोज़गारी की मार कहानी का एकमात्र पात्र सुनील भी झेल रहा है वह भी निराश और चिंता में डूबा रहता है लेकिन फिर भी काम खोजकर कुछ न कुछ करता रहता है। नबीला के परिवार में विवाह के लिए उस पर दबाव बनाया जा रहा है। कहानी के एक अंश में सुनील नबीला को देखकर सोचता है हम जो एक समय उड़ते रहते थे। बड़ी-बड़ी ऊंचाइयां-गहराइयां नापने का ख्‍वाब देखा करते थे। अब उनके बारे में सोचकर भी उनका जी घबराता है, उल्‍टी आती है। जैसे हमारी आँखों में दम ही नहीं बचा।

आज जब मंहगाई इतनी बढ़ गई है कि मजदूर एकदिन काम न करे तो उसे भूखा सोना पड़ेगा ऐसे में बेरोज़गार युवा खुद के अस्तित्व पर जैसे सवाल कर रहे हैं। एक दृश्य में बीनू कहती है, “लखनऊ में कितने लोफर बच्‍चे पैदा हो गए हैं। क्‍या होगा इन सबका?’ सुनील कहता है ‘होगा क्‍या, वही होगा जो हमारा हो रहा है। कुछ को तो वक्त की मुश्किलें सुधार देंगी, जो नहीं सुधरेंगे वे नेताओं और पुलिस के चमचे बनकर हमें लूटेंगे और ऐश करेंगे।” नबीला सुनील से ज्यादा दूर तक सोचती है कहती है, “सुनील यही दिक्‍कत है तुम्‍हारी। हमेशा पॉलिटिकल कमेंट्स देने लगते हो और हमेशा नेताओं की तरह सतहीं बातें किया करते हो। क्‍या ऐश करेंगे ये, ज्यादा-से ज्यादा ये सिस्‍टम की बिसात पर कुछ गोटियां भर बन सकते हैं और सिस्‍टम जब चाहेगा, इनका सर कलम कर देगा।”

पूरी कहानी बेरोजगार युवाओं के संवाद पर चलती है लेकिन जहां बेरोज़गारी खुद जीवन की स्थायी दुर्घटना बनी हो वहां घटनाप्रधान दृश्य कहानी में गैरजरूरी लगते हैं। वे बातचीत के नाम पर बेहद अटपटी और ऊबाऊ बात करते जा रहे हैं और अनायास हंसी-मज़ाक के नाम पर जैसे वल्गर होते जा रहे थे। जैसे खालीपन उनके भीतर शोर कर रहा है और वे कोई और बात करते जा रहे हैं। कहानी के एक हिस्से में बीनू कहती है नबीला से, “अच्‍छा तू बता नबी, तेरा क्‍या हाल? अब भी तू आमिर खान की वैसी ही दीवानी है?” नबीला कहती है, “नहीं अब फिल्‍में देखने थियेटर नहीं जा पाती। कभी-कभी घर में ही डीवीडी लाकर देख देती हूं पर अब वैसा क्रेज नहीं रहा। बाहर निकलना पैसे और समय दोनों की बर्बादी है। अब इतना समय कहां है कि बर्बाद करें।”

आज जब मंहगाई इतनी बढ़ गई है कि मजदूर एकदिन काम न करे तो उसे भूखा सोना पड़ेगा ऐसे में बेरोज़गार युवा खुद के अस्तित्व पर जैसे सवाल कर रहे हैं। एक दृश्य में बीनू कहती है, “लखनऊ में कितने लोफर बच्‍चे पैदा हो गए हैं। क्‍या होगा इन सबका?’ सुनील कहता है ‘होगा क्‍या, वही होगा जो हमारा हो रहा है।

बीनू को इस बात पर अचरज़ है। वह जैसे चीख कर कहती है, “नबी हो क्‍या गया है हम लोगों को? इस सुनील को देख कैसी मनहूसों-सी बात कर रहा है। तेरे पास आमिर खान के लिए भी समय नहीं बचा। खुद मैं… मुझे याद नहीं पिछली बार कब आर्चीज गई थी… कब आइसक्रीम खाई थी… और कब हंसी थी। उधर सुषमा को देख कहां से कहां पहुंच गई। उसमें ऐसा क्‍या था जो हम लोगों में नहीं था?” दोस्तों की सफलता पर अक्सर बार दोस्त ही द्वेष के कारण इस तरह की बात कर देते हैं लेकिन वे घुट रहे हैं व्यवस्था की मार से वे भी जानते हैं कि उनके साथ सबसे बड़ी त्रासदी है बेरोज़गारी जिसके तनाव में वह अपना सामान्य व्यवहार नहीं कर पा रहे हैं।

ये लड़कियां कहीं चली जाना चाहती हैं लेकिन कहां कहीं घूमने-फिरने मौज मस्ती करने। नबीला कहती है पंद्रह दिन बाद ही उसे सिविल का मेन्‍स देना है। इस पर सुनील लापरवाही से कह देता है कि छोड़ नबी ये मेन्‍स-वेन्‍स का चक्‍कर। नबीला इस बात पर जैसे उबल पड़ती है कहती, “क्‍यों छोड़ दूं, वही एक रास्‍ता है जो मुझे अपने मन की जिंदगी दे सकता है। रोज दस-दस घंटे पढ़ाई कर रही हूं मैं। घर के काम अलग। अब्‍बू लगातार कहने लगे हैं कि बंद करो पढ़ाई-वढ़ाई। निकाह करो और अपने घर जाओ। उनको लगता है कि कल को मुझे कोई शौहर ही नहीं मिलेगा। आज कल किताबों और मैगजीन्‍स के लिए भी अब्‍बू से पैसा मांगने में डर लगता है कि फिर वही शादी-ब्‍याह का रोना शुरू कर देंगे। चलो शादी करो और कैद हो जाओ घर, मियां और बच्‍चों के बीच।”

नबीला का यह कथन बताता है कि आज पढ़ी-लिखी लड़की जानती है कि आत्मनिर्भर होना ही उसके जीवन की आज़ादी का पहला और सबसे महत्वपूर्ण कदम है। सामाजिक सत्ता आत्मनिर्भर लड़कियों को भी अपने शिकंजे में रखने की पूर्ण कोशिश करता है तो एक बेरोजगार लड़की जिसके पास जीवन-यापन के साधन दूसरों पर निर्भर होते हैं उसका जीवन कठिन होता है अपनी इच्छाओं के साथ उसे जीने नहीं दिया जाता।

जब राज्य अपनी भूमिका का निर्वहन नहीं करता ,अपने नागरिकों के जीवन के लिए मूलभूत सुविधाएं मुहैया नहीं कराता तब पढ़े-लिखे लोग भी अपनी वैज्ञानिक चेतना को भूलकर हताशा में खुद को ही दोष देने लगते हैं। नबीला को लगता है कि उशने जीवन में कुछ लापरवाही की जिसके कारण नौकर नहीं मिली। सुनील का मन इस बात से आहत हो जाता है कि उसकी दोस्त उन पलों को लापरवाही कह रही थी जो उनके जीवन के सबसे खूबसूरत पल रहे हैं। वह सोचता है कि क्‍या हमारी दोस्‍ती गलत थी? क्‍या हम आज इसीलिए तबाह हो रहे हैं क्‍योंकि हमने भारत सरकार के तमाम पाठ्यक्रमों का गहराई से अध्‍ययन नहीं किया। 

स्त्री बेरोज़गारी पर हिंदी साहित्य में ये इस तरह की पहली और महत्वपूर्ण कहानी मेरी दृष्टि में आई। पढ़ते हुए जाने कितनी लड़कियों के मुरझाए और निराश चेहरे आंखों में आए। साहित्य में इस विषय पर और भी कहानियां आनी चाहिए जहां स्त्रियों की बेरोजगारी की पीड़ा को संवेदनात्मक स्वर मिल सके।


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