राजस्थान के रेगिस्तान में जोधपुर जिले का एक गाँव है- खेजड़ली। इस गांव का नाम ही ‘खेजड़ी’ वृक्ष से लिया गया है जिनकी संख्या इस गाँव में बेहद अधिक है। 18वीं शताब्दी की शुरुआत में इसी स्थान से चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई जिसे आज भारत के पर्यावरण आंदोलन में बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। उस आंदोलन की पहल एक महिला अमृता देवी और उनकी तीन बेटियों ने की थी। इसके बाद ही पूरा बिश्नोई समाज जुड़ा और पेड़ों से गले लगकर उन्हें बचाया गया।
खेजड़ी का वृक्ष (जांटी)
खेजड़ी राजस्थान का राज्य वृक्ष है। खेजड़ी के पेड़ रेगिस्तानी परिस्थितियों के लिए बेहद अनुकूल होते हैं। इसकी जड़ें पानी तक पहुंचने के लिए ज़मीन में कुछ सौ फीट नीचे तक जाती हैं। पेड़ पर खाने लायक मशहूर सांगरी की फली होती हैं और इसकी पत्तियों का इस्तेमाल चारे के लिए किया जाता है। खेजड़ी के पेड़ से गोंद मिलता है जिसे लोग खाने और लड्डू बनाने के काम में इस्तेमाल करते हैं। इसका उपयोग औषधीय प्रयोजनों के लिए भी किया जाता है। अकाल के समय इसकी छाल भी खाई जाती थी। स्थानीय लोग इस पेड़ का बहुत आदर करते हैं। विशेषकर बिश्नोई समाज के लोग जिनके 29 सिद्धांत में से एक है कि ‘हरे पेड़ों को मत काटो और पर्यावरण को बचाओ।’
अमृता देवी की कहानी
यह जोधपुर के खेजड़ली गाँव की कहानी है। थार रेगिस्तान में होने के बाद भी बिश्नोई गांवों में बहुत हरियाली थी और खेजड़ी के पेड़ बहुतायत में थे। 1730 में भद्रा महीने के दसवें उज्ज्वल पखवाड़े के दिन अमृता देवी अपनी तीन बेटियों आसू, रत्नी और भागू बाई के साथ घर पर थीं। तभी अचानक उन्हें पता चला कि मारवाड़ जोधपुर के महाराजा अभय सिंह के सैनिक उनके गांव खेजड़ी के पेड़ों को काटने आए हैं। खेजड़ी के पेड़ों की लकड़ियों का इस्तेमाल महाराजा अभय सिंह अपने नए महल के निर्माण में करना चाहते थे। उस वक़्त चूने को बहुत उच्च तापमान पर भट्ठे में जलाना आम बात थी, ताकि बुझा हुआ चूना प्राप्त किया जा सके। यह रेत और पानी के साथ मिश्रित होने पर निर्माण के लिए पत्थरों और ईंटों को बांधने और एक साथ रखने के लिए मोर्टार बन जाता था। भट्ठे को चालू रखने के लिए उन्हें काफी लकड़ी की जरूरत थी। खेजड़ी की लकड़ी बहुत बेहतर जलती है इसलिए महाराजा ने अपने आदमियों को खेजड़ी के पेड़ों से लकड़ियां लाने का आदेश दिया था।
चूंकि पेड़ों को काटना, विशेष रूप से खेजड़ी, बिश्नोई धर्म के खिलाफ है इसलिए अमृता देवी ने राजा के आदमियों का विरोध किया। कोई और उपाय न देख फिर उन्होंने एक पेड़ को गले से लगा लिया और घोषणा की कि “सिर साटे, रूंख रहे, तो भी सस्तो जांण” यानी “यदि किसी व्यक्ति की जान की कीमत पर भी एक पेड़ बचाया जाता है, तो वह सही है।” अड़ियल आदमियों ने पेड़ को काटने के लिए उनके शरीर को काट डाला। उनकी तीन बेटियां भी उनके नक्शेकदम पर बहादुरी से चली और पेड़ों को गले लगा लिया। इससे भी शाही दल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और उन्होंने जोश के साथ अपना काम जारी रखा। यह ख़बर फैल गई और 83 गांवों के बिश्नोई खेजड़ली में एकत्रित हो गए। उन्होंने परिषद आयोजित की और फैसला किया कि प्रत्येक जीवित पेड़ को काटने के लिए, एक बिश्नोई स्वयंसेवक अपने या अपने जीवन का त्याग करेगा। उस दिन कुल 49 गांवों के 363 बिश्नोई शहीद हुए थे।
जब राजा ने यह समाचार सुना, तो उसने पेड़ों की कटाई बंद कर दी। बिश्नोइयों के साहस का सम्मान करते हुए, उसने समुदाय से माफी मांगी और बिश्नोई गांवों के भीतर और आसपास के पेड़ों को काटने और जानवरों के शिकार पर हमेशा के लिए प्रतिबंध लगाने के लिए एक ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण फरमान जारी किया। वह संरक्षण आज भी मान्य है और बिश्नोई अपनी जैव विविधता की जमकर रक्षा करना जारी रखे हुए हैं। पेड़ों की रक्षा में मारे गए 363 बिश्नोइयों में से कुछ को खेजड़ली में दफनाया गया था, जहां चार स्तंभों वाली एक साधारण कब्र बनाई गई। हर साल, सितंबर में बिश्नोई अपने लोगों द्वारा पेड़ों को संरक्षित करने के लिए किए गए बलिदान को याद करने के लिए वहां इकट्ठा होते हैं।
खेजड़ी पेड़ों को बचाने के लिए हुए इस आंदोलन को पहला ‘चिपको आंदोलन’ माना जाता है। आज हम बिश्नोइयों को भारत का प्रथम पर्यावरणविद भी कहते हैं। अठाहरवीं शताब्दी में अमृता देवी के उस हौसले और नेतृत्व क्षमता ने बाद में कई आंदोलनों और लोगों को प्रेरणा दी। राजस्थान और मध्य प्रदेश की सरकारों ने वन्यजीवों की सुरक्षा और संरक्षण में योगदान के लिए राज्य स्तरीय अमृता देवी बिश्नोई पुरस्कार शुरू किया। बाद में 2013 में, पर्यावरण और वन मंत्रालय ने अमृता देवी बिश्नोई राष्ट्रीय पुरस्कार की शुरुआत की जो वन्यजीव संरक्षण में शामिल व्यक्तियों या संस्थानों को दिया जाता है।
अहिंसा, पर्यावरण प्रेम, महिलाओं का नेतृत्व और पेड़ों को गले लगा विरोध करने की यह नीति फिर हिमालय के एक सुदूर गाँव चमोली में साल 1973 में इस्तेमाल की गई जहां पेड़ों को बचाने के लिए चिपको आंदोलन शुरू किया गया। बिहार, झारखंड, कर्नाटक जैसे राज्यों समेत विश्व के दूसरे हिस्सों जैसे जापान, मलेशिया, इंडोनेशिया और थाईलैंड में भी इस विचार को अपनाया गया।
ईको फेमिनिज़म और मौजूदा वक़्त
इस कहानी को समझने के लिए आज हमारे पास ईको फेमिनिज़म जैसे सिद्धांत हैं जो महिलाओं और प्रकृति के सम्बन्ध को समझने में मदद करते हैं। इस विचार के अनुसार महिलाओं और पर्यावरण दोनों की अधीनता, उत्पीड़न और उन पर मौजूद वर्चस्व की संरचना में समानता है। महिलाओं और प्रकृति का रिश्ता बहुत प्रेम का है। कुछ इसका कारण महिलाओं की बायोलॉजी को बताते हैं तो अन्य लोग संस्कृति और ऐतिहासिक कारकों को श्रेय देते हैं। यह निकटता महिलाओं को अपने पर्यावरण के प्रति अधिक पोषण और देखभाल करनेवाला बनाती है। अमृता देवी की कहानी इसका एक उदाहरण है।
वर्तमान में वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों ने चेतावनी दी है कि राजस्थान का राजकीय वृक्ष- खेजड़ी धीरे-धीरे मर रहा है। पर्यावरणविद् हर्षवर्धन कहते हैं, “इसका मूल कारण इसकी अत्यधिक कटाई (शाखाओं को काटना) है, जो सभी खेत मालिक इसके फल, फली, पत्ते, शाखाओं और टहनियों की खरीद के लिए सालाना करते हैं।” इसके अलावा इसकी लकड़ी को ईंधन के रूप में और दाह संस्कार के वक़्त भी काम में लिया जाता है। जोधपुर स्थित शुष्क वन अनुसंधान संस्थान (एएफआरआई) के वैज्ञानिकों ने आकलन किया है कि जोधपुर, नागौर, चूरू, सीकर, झुंझुनू और जालौर जिलों में खेजड़ी मृत्यु दर “20.93 प्रतिशत की औसत मृत्यु दर के साथ 18.08 प्रतिशत से 22.67 प्रतिशत” के बीच है। हमें अमृता देवी की कहानी से प्रेरणा लेने की और दादी-नानी की पीढ़ी से सस्टेनेबल जीवन का तरीका सीखने की सख़्त ज़रूरत है।
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