जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, देश का वह विश्वविद्यालय है जो अपने आंदोलनों, प्रदर्शन, राजनीति, न्याय और सामाजिक रूढ़ियों जैसे मुद्दों पर मुखर होने के लिए जाना जाता है। 1969 में स्थापित हुआ यह विश्वविद्यालय हर उन मुद्दों के लिए लड़ता नज़र आया है जो जनहित में हो। चाहे वह फीस में बढ़ोतरी का मुद्दा हो या महिला सुरक्षा का, जेएनयू से हमेशा ही विरोध स्वर फूटा है। जेएनयू कैंपस शायद देश का सबसे समावेशी विश्वविद्यालय कैंपस हो, लेकिन जब बात क्वीयर विद्यार्थियों की आती है, तो खुद एक क्वीयर व्यक्ति होने के नाते मेरा और मेरे अन्य क्वीयर साथियों का अनुभव बताता है कि अभी कई ऐसी कमियां हैं जिनसे जेएनयू को उबरना होगा ताकि वह एक क्वीयर-फ्रेंडली और अधिक समावेशी कैम्पस बन सके।
चूंकि कोई भी कैंपस समाज से इतर नहीं होता, बल्कि समाज का हीं एक प्रतिबिंब होता है, जेएनयू में भी हमें वही एहसास होता है। उदाहरण के तौर पर यहां कुछ बेहद संवेदनशील और अच्छे लोग हैं तो कुछ ऐसे भी लोग हैं जो ग्रुप चैट में स्त्रीद्वेषी और होमोफोबिक बातें साझा करते हैं। इन सब में जेएनयू प्रशासन की भूमिका पर भी बात करेंगे। लेकिन पहले जानते हैं कैंपस में वो कौन सी चुनौतियां हैं जिनका हम क्वीयर विद्यार्थी आए दिन सामना करते हैं।
सबसे अव्वल तो है मिसजेंडरिंग यानी किसी नॉन-बाइनरी या ट्रांस व्यक्ति का उनसे पूछे या समझे बगैर ही महज उनके हावभाव, शारीरिक बनावट, कपड़ों आदि के आधार पर जेंडर निर्धारित कर देना। मुझे व्यक्तिगत तौर पर इसका सामना लगभग हर रोज़ करना पड़ता है। लोग मेरे छोटे बाल और हावभाव देखकर सबसे पहले मुझे लड़का ही समझते हैं और फिर बिना पूछे मेल-प्रोनाउंस से मुझे संबोधित करते हैं।
कई बार सिक्योरिटी गार्ड्स ने अनजाने में मुझे गर्ल्स हॉस्टल में जाने से रोका क्योंकि उन्हें लगा मैं कोई लड़का हूं और मेरे कई बार बताने पर भी मेरे लड़की होने पर संदेह किया। हालांकि, इसमें सिक्योरिटी गार्ड्स या अन्य सहायक कर्मचारियों को ज़िम्मेदार ठहराना अनुचित होगा क्योंकि इन पदों पर काम करने वाले व्यक्ति आमतौर पर हाशिये से आते हैं। उनके इस बर्ताव का सीधा-सा कारण यह है कि उनकी जेंडर-सेंसटाइजेशन ट्रेनिंग नहीं हुई है और वे जेंडर और सेक्सुअलिटी के मायनों से अनिभिज्ञ हैं।
यह बेहद ज़रूरी है कि शिक्षण संस्थानों में काम करनेवाले हर व्यक्ति को यह बुनियादी ट्रेनिंग मिले क्योंकि उनका विद्यार्थियों से सीधा संपर्क होता है। यह उन्हें अपने सहकर्मियों के प्रति भी संवेदनशील बनाता है। यहां यह भी प्रश्न उठता है कि जेएनयू में काम करने वाले कितने प्रतिशत लोग एलजीबीटी+ समुदाय से आते हैं? क्या प्रशासन हमारे प्रतिनिधित्व को लेकर सचेत है? जब विभिन्न लैंगिक और यौन पहचानों को लेकर प्रशासन में कोई जागरूकता नहीं होगी तो मिसजेंडरिंग और लोगों को जेंडर बाइनरी में बांटना कोई मुद्दा ही नहीं रह जाता। यह ज़िम्मेदारी जेएनयू प्रशासन की है कि वह क्वीयर और ट्रांस व्यक्तियों को नियुक्त करे। साथ ही यहां काम करने वाले सभी कर्मचारी क्वीयर-एफिरमेटिव और अलग-अलग सेक्सुअल पहचानों के प्रति जागरूक और संवदेनशील हो।
मिसजेंडरिंग यानी किसी नॉन-बाइनरी या ट्रांस व्यक्ति का उनसे पूछे या समझे बगैर ही महज उनके हावभाव, शारीरिक बनावट, कपड़ों आदि के आधार पर जेंडर निर्धारित कर देना। मुझे व्यक्तिगत तौर पर इसका सामना लगभग हर रोज़ करना पड़ता है। लोग मेरे छोटे बाल और हावभाव देखकर सबसे पहले मुझे लड़का ही समझते हैं और फिर बिना पूछे मेल-प्रोनाउंस से मुझे संबोधित करते हैं।
यूनिवर्सिटी में सक्रिय सोशल मीडिया ग्रुप्स कैसे फैला रहे हैं होमोफोबिया
दूसरा अहम मुद्दा है विद्यार्थियों में होमोफोबिक भावना का होना। यहां पढ़नेवाले हजारों विद्यार्थी अलग-अलग पृष्ठभूमि से आते हैं और अपनी रूढ़ियां भी साथ लाते हैं। लेकिन जेएनयू एक ऐसा विश्वविद्यालय है जो सभी विद्यार्थियों को समान मंच पर लाकर खड़ा करता है। यहां आते ही हर विद्यार्थी की डी-स्कूलिंग शुरू हो जाती है। कुछ अपने जीवन में आज़ादी, समानता जैसे मूल्यों को आत्मसात करते हैं, तो कई ऐसे भी हैं जो अपनी रूढ़ियों में ही जकड़े रह जाते हैं जहां ऊंच-नीच, जाति, धर्म, लिंग पहले आता है और इंसानियत बाद में।
ऐसे कई ग्रुप चैट सक्रिय हैं जिनमें लोग धार्मिक कट्टरपंथ, स्त्रीद्वेषी और होमोफोबिक बातें और मीम्स शेयर करते हैं। हमारे कुछ साथियों ने पता लगाया कि ऐसे कुछ वॉट्सएप ग्रुप और इंस्टाग्राम पेज भी हैं जो जेएनयू के नाम से चलते हैं और स्त्री-विरोधी व होमोफोबिक बातें पोस्ट करते हैं। Hindus of JNU, JNU Political Talks, KinkJNU, आदि, इसके कुछ उदाहरण हैं। ऐसी गतिविधियों से न केवल पितृसत्ता मज़बूत होती है, बल्कि समाज में नफ़रत, हिंसा और भेदभाव भी बढ़ता है।
अमर (बदला हुआ नाम) हमारे एक क्वीयर साथी हैं जो जेएनयू से मास्टर्स की पढ़ाई कर रहे हैं। अमर अपना अनुभव साझा करते हुए बताते हैं कि किस तरह समावेशी माने जाने वाले हमारे कैंपस में उन्हें होमोफोबिया का सामना करना पड़ा। उनके चलने के तरीके से लेकर उनकी आवाज़ और चेहरे के हावभाव तक का मज़ाक बनाया गया और दोस्तों ने असंवेदनशील टिप्पणियां कीं। ऐसे में बिना किसी से साझा किए अपना मनोबल बनाए रखना, पढ़ाई करना और घर पर बोलना कि हां सबकुछ ठीक है हमारे मानसिक स्वास्थ्य पर असर डालता है।
प्रभा (बदला हुआ नाम), एक अन्य क्वीयर साथी ने बताया कि उनके दोस्तों ने कई बार उनकी सेक्सुअलिटी को लेकर मज़ाक उड़ाया और आखिर में उन्हें अपने दोस्तों से दूरी बनानी पड़ी। अब उन्हें नये दोस्त बनाने में डर लगता है कि कहीं वे भी उनका मज़ाक न बनाएं। प्रभा कहती हैं, “महज मेरे सेक्सुअल ओरिएंटेशन अलग हो जाने से लोगों के मेरे लिए लोगों के विचार और बर्ताव बदल जाते हैं। यह भेदभाव किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं झेलना पड़ता जो खुद को जेंडर बाइनरी में फिट पाते हैं। कभी-कभी लोग मुझसे असहज करने वाले निजी सवाल पूछते हैं तो कभी मेरे रिलेशनशिप का मज़ाक बनाते हैं। इस तरह का रवैया और लोगों को जेंडर बाइनरी में विभाजित करना निश्चित रूप से हमारे आत्मविश्वास को कमज़ोर करता है।”
विश्वविद्यालय की आधारभूत संरचना से जुड़ी चुनौतियां और क्वीयर विद्यार्थी
क्वीयर विद्यार्थियों के कैंपस जीवन और उससे जुड़ी चुनौतियों में एक अन्य बड़ी चुनौती है हॉस्टल की। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस, मुंबई भारत का पहला ऐसा शिक्षण संस्थान है जहां ट्रांस, नॉन-बाइनरी और जेंडर नॉन-कन्फर्मिंग विद्यार्थियों को ध्यान में रखते हुए जेंडर न्यूट्रल हॉस्टल की सुविधा दी गई है। क्वीयर समुदाय के लिए बेहद ज़रूरी यह सुविधा 2018 में शुरू हुई और अब TISS प्रशासन ने तय किया है कि कैंपस में जेंडर न्यूट्रल बाथरूम भी हो ताकि किसी भी विद्यार्थी को इन बुनियादी जरूरतों को लेकर असुविधा न हो। यह कैंपस के क्वीयर कलेक्टिव के निरंतर प्रयास से संभव हो पाया है।
चूंकि जेएनयू में एलजीबीटी+ समुदाय को ध्यान में रखकर ऐसी कोई अलग हॉस्टल सुविधा नहीं दी जाती है, हम क्वीयर विद्यार्थियों को हॉस्टल में खासा परेशानी का सामना करना पड़ता है। एक तो पहले से जेएनयू प्रशासन हॉस्टल सुविधा देने में देरी करता है जिससे विद्यार्थियों को परेशानी होती है और उन्हें किराया देकर कैंपस के बाहर रहना पड़ता है। ऊपर से जेंडर-न्यूट्रल हॉस्टल न मुहैया कराना, या सामान्य हॉस्टल में जेंडर-न्यूट्रल बाथरूम व अन्य ज़रूरी सुविधाएं न होना, प्रशासन का क्वीयर विद्यार्थियों के प्रति एक भेदभावपूर्ण रवैया है।
इन बाइनरी में विभाजित हॉस्टलों में कई बार क्वीयर विद्यार्थियों को अपनी सेक्सुअलिटी और पहचान छुपाकर रहना पड़ता है क्योंकि हॉस्टल में अन्य लोगों का बर्ताव होमोफोबिक हो सकता है। ट्रांस और क्वीयर विद्यार्थियों को हॉस्टल्स में मिसजेंडरिंग से लेकर यौन उत्पीड़न तक का खतरा रहता है। हॉस्टल में क्वीयर-फ्रेंडली वातावरण न होना और ट्रांस विद्यार्थियों का अपनी इच्छा के विरूद्ध बाइनरी में बंटे इन हॉस्टल में रहना निश्चित तौर पर उन्हें एक ‘सेफ स्पेस’ से वंचित करता है।
इस तरह जेंडर बाइनरी में फिट होते ये हॉस्टल क्वीयर विद्यार्थियों के लिए एक अलग दीवार खड़ी करते हैं जो उन्हें खुलकर स्वयं को व्यक्त करने से रोकती है। मेरा खुद का हॉस्टल मिलने का अनुभव चुनौतीपूर्ण रहा है क्योंकि एक एंड्रॉजेनस, समलैंगिक और टॉमबॉय पहचान होने के कारण मुझे अन्य लड़कियों के साथ रहने में झिझक होती है। लेकिन वर्तमान में मेरे जैसे विद्यार्थियों के लिए अलग से कोई प्रावधान नहीं है और न ही जेएनयू प्रशासन के लिए यह कोई मुद्दा है।
प्रभा (बदला हुआ नाम) कहती हैं, “महज मेरे सेक्सुअल ओरिएंटेशन अलग हो जाने से लोगों के मेरे लिए लोगों के विचार और बर्ताव बदल जाते हैं। यह भेदभाव किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं झेलना पड़ता जो खुद को जेंडर बाइनरी में फिट पाते हैं। कभी-कभी लोग मुझसे असहज करने वाले निजी सवाल पूछते हैं तो कभी मेरे रिलेशनशिप का मज़ाक बनाते हैं। इस तरह का रवैया और लोगों को जेंडर बाइनरी में विभाजित करना निश्चित रूप से हमारे आत्मविश्वास को कमज़ोर करता है।”
रवि (नाम बदला हुआ है), हमारे एक क्वीयर दोस्त बताते हैं कि कैसे बॉयज हॉस्टल में उन्हें असुरक्षा महसूस होती है और कुछ लड़कों की स्त्रीद्वेषी बातों से उन्हें घुटन होती है। हालांकि, ये सारे अनुभव विद्यार्थियों के अपने व्यक्तिगत अनुभव हैं लेकिन महज व्यक्तिगत हो जाने से इन्हें ख़ारिज नहीं किया जा सकता है। अगर एक भी विद्यार्थी कैंपस में असहज महसूस करता हो, कैंपस के नियम और प्रावधान उसे अपनी पहचान के प्रति भेदभावपूर्ण लगते हो और उसे लगातार हाशिये पर धकेलते हो तो निश्चित हीं कैंपस के समावेशी होने पर सवाल उठते हैं। साथ हीं, सवाल उठते हैं जेएनयू प्रशासन पर भी कि वह इसके लिए क्या कदम उठा रहे हैं? क्या कैंपस को हर जाति, धर्म, लिंग, स्थान और विभिन्न सेक्सुअल ओरिएंटेशन के विद्यार्थियों के लिए समावेशी बनाना जेएनयू प्रशासन की ज़िम्मेदारी नहीं है?
मैंने विश्वविद्यालय के अंतर-हॉल प्रशासन के डीन प्रोफेसर सुधीर प्रताप सिंह से संपर्क करने की कोशिश की लेकिन उनका कोई जवाब नहीं मिला। डीन विद्यार्थियों के वेलफेयर विभाग के प्रमुख होते हैं। प्रोवोस्ट और सीनियर वार्डन के कार्यों की समीक्षा और सलाह देना भी उनकी ही जिम्मेदारी है। चूंकि विद्यार्थियों के हितों से जुड़े सभी महत्वपूर्ण कार्य डीन की निगरानी में हीं होते हैं, मैंने उन्हें कैंपसस और विशेषकर हॉस्टल्स में क्वीयर विद्यार्थियों को होनेवाली परेशानियों से अवगत कराते हुए मेल लिखा। मैंने बताया कि कैसे हमारे लिए यह आसान नहीं है कि हम जेंडर बाइनरी में बंटे इन हॉस्टल्स में रहें। साथ कई लोगों को अपनी पहचान छिपाकर रहना पड़ता है क्योंकि उन्हें बुलिंग का डर रहता है। एक भी हॉस्टल ऐसा नहीं है जहां जेंडर-न्यूट्रल बाथरूम हो। किसी भी तरह के शोषण की शिकायत के लिए क्वीयर और ट्रांस विद्यार्थियों के पास कोई आधिकारिक मंच तक नहीं है। हमनें डीन से यह भी पूछा कि प्रशासन LGBTQIA+ समुदाय के विद्यार्थियों की सुरक्षा और कैंपस को अधिक समावेशी बनाने के लिए क्या कदम उठा रहा है? लेकिन उनका अब तक कोई जवाब नहीं मिला है।
जून महीने में आयोजित किए गए प्राइड परेड में ‘हसरतें’ जो कैंपस का क्वीयर कलेक्टिव है, उसने यह मांग रखी थी कि जेएनयू प्रशासन ट्रांस स्टूडेंट्स के लिए आवश्यक हॉस्टल सुविधाएं मुहैया करवाए। साथ ही यह सुनिश्चित करे कि सारे हॉस्टल क्वीयर-फ्रेंडली हों। लेकिन ऐसा लगता है जेंडर बाइनरी में जी रहे प्रशासन के लिए क्वीयर विद्यार्थी अस्तित्व में ही नहीं हैं। यह बेहद शर्मनाक है कि हम इक्कीसवीं सदी में हैं और अभी भी हमें अपने मूलभूत अधिकारों के लिए लड़ना पड़ रहा है। ऐसे में यह बहुत ज़रूरी हो जाता है कि कम से कम शिक्षण संस्थानों में हर विद्यार्थी को समान अधिकार, अवसर और सुरक्षा मिले ताकि उनका सम्पूर्ण बौद्धिक विकास संभव हो।
नियमित रूप से जेंडर सेंसटाइजेशन वर्कशॉप आयोजित करना, आधिकारिक गतिविधियों में समावेशी अप्रोच होना, ट्रांस और क्वीयर विद्यार्थियों के हितों को ध्यान में रखते हुए एक चयनित स्टूडेंट बॉडी संगठित करना और कैंपस में उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करना, जेएनयू समेत अन्य सभी विश्वविद्यालयों की ज़़िम्मेदारी है। प्रशासन के साथ-साथ यह विद्यार्थियों का भी कर्तव्य है कि वे अपने सहपाठियों के प्रति संवेदनशील बनें और विभिन्न पहचानाें को स्वीकारना सीखें। आखिर शिक्षा का मतलब यही तो है कि हम अपने जीवन में अधिक से अधिक समावेशी बनें।
सामाजिक न्याय के लिए लड़ने वाले और देश के सबसे प्रगतिशील माने जाने वाले जेएनयू कैंपस से हमें यह उम्मीद है कि वह क्वीयर समुदाय के प्रति और अधिक संवेदनशील और सुरक्षित बनेगा और अन्य शिक्षण संस्थानों के लिए एक मिसाल बनेगा। हालांकि, यह तभी संभव है जब विश्विद्यालय में पढ़ने वाले सभी विद्यार्थी इसे अपना कर्तव्य समझेंगे और प्रशासन में बैठे लोग अपने जेंडर बाइनरी के चश्मे को हटाकर समावेशी रूप से अपनी जिम्मेदारियों का पालन करेंगे।