जोयिता मोंडल एक ट्रांस महिला हैं जो 2017 में बंगाल के इस्लामपुर, जिला दिनाजपुर की लोक अदालत के लिए बतौर जज चुनी गई थीं। हालांकि वे लोक अदालत में जज बनने वाली पहली ट्रांस महिला हैं ऐसा कहना पूरी तरह सही होगा या नहीं ये एक संशय का मामला है। हिंदुस्तान टाइम्स में छपी ख़बर के अनुसार मोंडल कहती हैं, “कानून कहता है कि लोक अदालतें स्थापित विश्वसनीयता वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को न्यायाधीश के रूप में नियुक्त कर सकती हैं। मुझे इसलिए नियुक्त किया गया क्योंकि मैं एक सामाजिक कार्यकर्ता हूं इसलिए नहीं कि मैं एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति हूं। मैंने कई राष्ट्रीय संघों और गैर सरकारी संगठनों से जांच की लेकिन कोई भी निश्चित रूप से नहीं कह सका कि क्या पहले किसी ट्रांसजेंडर व्यक्ति को लोक अदालत के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया था।” ये अधिक महत्वपूर्ण सवाल है भी नहीं कि क्या जोयिता मोंडल ऐसी पहली जज नियुक्त हुई हैं, सवाल ये है कि मोंडल के बाद ट्रांस समुदाय के कितने व्यक्ति कानूनी संस्थानों का हिस्सा बने हैं? उनकी कितनी भागीदारी है?
द क्विंट में छपी ख़बर के अनुसार देश में जितने भी जज हैं उनमें नब्बे प्रतिशत सवर्ण पुरुष हैं। देश की ज्यूडिशियरी जो हर समुदाय के मुद्दों पर न्याय करती है, वह न्याय इस बात से सिद्ध होता रहा है कि एलजीबीटीक्यू+समुदाय, महिलाएं, दलित बहुजन आदिवासी के विषयों को सवर्ण पुरुष कैसे समझते हैं। प्रतिनिधित्व का सबसे गैर बराबरी की संस्था न्यायपालिका ही बनी हुई है। ऐसे में समाज में सबसे उपेक्षित ट्रांस समुदाय जो हर जाति, धर्म, वर्ग से आते हैं किसी भी क्षेत्र में अपनी भागीदारी को बड़े स्तर पर कायम नहीं कर पा रहे हैं।
“जो मां अपने बेटे, बेटी के लिए लड़ जाती हैं वो मेरे लिए नहीं लड़ पाईं क्योंकि समाज में ऐसा हो नहीं सकता था, समाज हमारी बधाइयां, दुआ तो लेता है लेकिन हमें जगह क्यों नहीं देता? हर तरफ़ से इतनी परेशानियों का सामना किया कि आख़िर में घर छोड़ना पड़ा।”
आउटलुक में प्रकाशित ख़बर के अनुसार नैशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार 50-60 प्रतिशत ट्रांसजेंडर कभी स्कूल नहीं गए और जो गए उन्हें गंभीर भेदभाव का सामना करना पड़ा। एनएचआरसी ने आगे कहा कि 52 प्रतिशत ट्रांसजेंडरों को उनके सहपाठियों द्वारा और 15 प्रतिशत को शिक्षकों द्वारा परेशान किया गया जिससे उन्हें अपनी पढ़ाई बंद करने के लिए मजबूर होना पड़ा। स्कूल, व्यक्ति की आगे की ज़िंदगी को बेहतर बनाने की परिवार के बाद पहली इकाई होता है लेकिन ट्रांस समुदाय इसी संस्था का हिस्सा नहीं बन पाते हैं जिससे उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति भी गंभीर रूप से प्रभावित होती है।
एनएचआरसी की 2018 की रिपोर्ट यह दावा करती है कि “96 प्रतिशत ट्रांसजेंडर्स को नौकरी से वंचित कर दिया जाता हैं और उन्हें आजीविका के लिए कम वेतन या गैर-सम्मानजनक काम करने के लिए मजबूर किया जाता है जैसे बधाइयां, सेक्स वर्क और भीख मांगना। ट्रांसजेंडर्स के अधिकारों पर पहले अध्ययन से यह भी पता चला है कि लगभग 92 प्रतिशत ट्रांसजेंडर देश में किसी भी प्रकार की आर्थिक गतिविधि में भाग लेने के अधिकार से वंचित हैं, यहां तक कि योग्य लोगों ने भी नौकरी से इनकार किया है।” संविधान का अनुच्छेद-16 सभी नागरिकों को काम के अवसर का अधिकार देता है लेकिन ट्रांस समुदाय इस अवसर से बहुत दूर रखे जा रहे हैं। इसकी वजह क्या है? वजह है समाज द्वारा ट्रांस समुदाय का बहिष्कार और काम न देने की मंशा, समाज की पुरुष, महिला हैरारकी में उन्हें पुरुष-महिला से इतर अलग जेंडर बना देने का फैसला।
नालसा द्वारा दायर याचिका की सुनवाई के दौरान उच्च न्यायालय ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को थर्ड जेंडर की पहचान के रूप में जाने के हक़ में फैसला दिया जिसे खूब सराहा गया। लेकिन भारतीय समाज में सेकेंड जेंडर यानी महिलाओं के हक़ हकूक सुरक्षित नहीं हैं वहां एक अन्य जेंडर की संज्ञा अधिकारों के हनन ना होने की कोई पुष्टि नहीं है। परिणामस्वरूप हम देख रहे हैं कि ट्रांस समुदाय की लड़ाई अभी भी जारी है। मोंडल ट्रांस समुदाय से जुड़े रूढ़िवाद को तोड़ती हुई नज़र आती हैं।
एक टेड टॉक कार्यक्रम में वह कहती हैं कि जो मां अपने बेटे, बेटी के लिए लड़ जाती हैं वो मेरे लिए नहीं लड़ पाईं क्योंकि समाज में ऐसा हो नहीं सकता था, समाज हमारी बधाइयां, दुआ तो लेता है लेकिन हमें जगह क्यों नहीं देता? हर तरफ़ से इतनी परेशानियों का सामना किया कि आख़िर में घर छोड़ना पड़ा। आगे वे कहती हैं, बचपन में मां मना करती थी कि किन्नरों के पास मत जाना वे गाली देते हैं, तुम्हें उठा ले जाएंगे लेकिन घर छोड़ने के बाद, सड़कों, रेलवे स्टेशनों पर सोने, भीख मांगने के बाद मैंने सोचा किन्नर घर ही जाना चाहिए और देखना चाहिए कैसे होता है सब, मैं किन्नर घर चली गई और वहीं रहने लगी, काम करने लगी।”
मोंडल एक घनिष्ठ हिंदू परिवार से वास्ता रखती थीं जहां भेदभाव सहते हुए और दसवीं में पढ़ाई छुड़वाने के बाद उन्हें घर से बेदखल होना पड़ा। मुफलिसी में गुज़ारा करते हुए वे बंगाल में ही अपने समुदाय के संपर्क में आई और सोशल वर्क में शामिल हुईं। काम करने के साथ-साथ उन्होंने लॉ की पढ़ाई भी पूरी की और 2010 में वे इस्लामपुर से पहली ट्रांस महिला थीं जो वोटर बनी थीं। उन्होंने अपनी खुद की संस्था शुरू की हुई है जिसका नाम है दिनाजपुर नोटून आलो (दिनाजपुर न्यू लाइट) जिसके बैनर तले वे ट्रांस समुदाय के कल्याण के लिए काम कर रही हैं।
लेकिन सिर्फ़ समुदाय तक सीमित नहीं हैं, बकौल जोयिता, “लगभग नौ साल पहले जब मैं इस्लामपुर आई तो मेरा काम ट्रांसजेंडर और एलजीबीटी समुदाय के अधिकारों और विकास के लिए काम करने तक ही सीमित था। लेकिन जैसे-जैसे मैं धीरे-धीरे आगे बढ़ी और जिला प्रशासन के अधिकारियों के संपर्क में आई, मुझे केवल एक समुदाय के लिए नहीं, बल्कि सभी लोगों के लिए काम करने की इच्छा महसूस हुई।” जब वे जज के तौर पर लोक अदालत का हिस्सा बनीं तब अधिकतर मामलों में उन्होंने दोनों पक्षों के मसले बातचीत के आधार पर ही किए थे ना कि सिर्फ़ अपना फैसला सुनाकर मुद्दा खत्म कर दिया।
“कानून कहता है कि लोक अदालतें स्थापित विश्वसनीयता वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को न्यायाधीश के रूप में नियुक्त कर सकती हैं। मुझे इसलिए नियुक्त किया गया क्योंकि मैं एक सामाजिक कार्यकर्ता हूं, इसलिए नहीं कि मैं एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति हूं।”
द इकनॉमिक टाइम्स में प्रकाशित ख़बर के अनुसार 2022 में एक कार्यक्रम में अपनी बात रखते हुए उन्होंने ट्रांस समुदाय के लिए आरक्षण की मांग पर ज़ोर देते हुए कहा था, “ट्रांसजेंडर समुदाय को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देना बहुत ज़रूरी है। अगर मेरे पास नौकरी नहीं होगी, तो मुझे खाना कौन खिलाएगा?” आगे उन्होंने कहा कि पुलिस फोर्स, रेलवे में ट्रांस समुदाय की भागीदारी न सिर्फ़ उन्हें एक बेहतर ज़िंदगी दे सकती है बल्कि समाज का रूप भी बदल सकती है। मोंडल एक प्रेरणा बनकर समुदाय के बाकी लोगों को राह दिखा रही हैं। हालांकि रास्ते अभी भी मुश्किल हैं लेकिन जोयिता मोंडल, गौरी सावंत, के. पृथिका यशीनी आदि ट्रांस व्यक्ति अधिकारों की लड़ाई में नेतृत्व कर रहे हैं। इस संघर्ष से यह हुआ है कि बड़े शिक्षण संस्थान जैसे हैदराबाद में स्थित नालसार लॉ यूनिवर्सिटी में जेंडर न्यूट्रल स्पेस लीगल स्टडीज में स्थापित किया गया है। एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के सेल/सोसायटी प्रसिद्ध कॉलेजों में बनने लगी हैं जहां वे अपना प्रतिनिधित्व भी कर सकते हैं और अधिकारों के हनन के खिलाफ़ खड़े भी हो सकते हैं।
हालांकि जैसे टेड टॉक में मोंडल बताती हैं, “जब वे बीमार हुईं तो उन्हें हॉस्पिटल में एडमिट करने से डॉक्टर्स ने मना कर दिया था क्योंकि सवाल था कि महिला बर्थ या पुरुष बर्थ में कौन सा उन्हें दिया जाए और जब पुलिस के पास भी एफआईआर के लिए जाया गया तब भी उनकी सुनवाई नहीं हुई।” शिक्षण संस्थानों के साथ-साथ बाकी पब्लिक संस्थानों को भी ट्रांस समुदाय के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए गतिविधियां सरकारों द्वारा की जानी चाहिए। नीतियों को जेंडर न्यूट्रल और संस्थानों को समावेशी बनाने पर ज़ोर देना चाहिए। ऐसी स्थिति कब देखी जाएगी ये अभी तो नहीं कहा जा सकता है लेकिन निरंतर संघर्षों से धीरे-धीरे तस्वीर बदलने की संभावना और एक उम्मीद हैं।