ग्रामीण इलाकों में कुछ चीजें इतनी जड़ अवस्था में रहती हैं कि जरा भी गतिशीलता वहां आ ही नहीं पाती। कुछ ऐसी धारणा मानसिक स्वास्थ्य को लेकर यहां के लोगों में बड़े स्तर पर बनी हुई है। मानसिक अस्वास्थ्य का सामना करने वाले किसी व्यक्ति को अगर आप मनोचिकित्सक को दिखाने की बात कीजिए तो इस बात को अन्यथा ले लिया जाता है या तो आपकी सलाह को भ्रामक मान लिया जाता है। ऐसे में अक्सर मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति को पंडितों, पीरों, ओझाओं और तांत्रिकों के पास तो ले जाएंगे लेकिन मानसिक स्वास्थ्य के लिए लिए डॉक्टर को नहीं दिखाते या बहुत देर में जाते। इसका यह परिणाम होता है कि व्यक्ति बहुत खतरनाक स्थिति में पहुंच जाता है।
उत्तरप्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के रानीपुरा गाँव की किरण देवी (बदला हुआ नाम) का पन्द्रह साल के बेटे की आत्महत्या से मृत्यु हो जाती है। सुसाइड का कारण कोचिंग के टेस्ट में नम्बर कम आना और पिता द्वारा लगाई डाँट-फटकार थी। इससे नाराज होकर उस किशोर ने यह कदम उठाया। इस दुर्घटना के बाद से उस किशोर की माँ किरण गहरे डिप्रेशन में रहने लगी थी। घर के लोग उनको डॉक्टर को दिखाते रहे लेकिन आराम नहीं हुआ। फिर उन्होंने कुछ ओझा, पंडितों को भी दिखाया और पूजा-पाठ, ग्रह-शांति आदि का घर मे अनुष्ठान कराया। इन सब चीजों से उनके स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हुआ। वह दिन ब दिन गहरे अवसाद में घिरती जा रही थीं। और एक दिन उन्होंने सुसाइड करके अपनी जान गवां दी।
गाँव में घटी इस भयानक घटना पर सबको बहुत दुःख और अफ़सोस था लेकिन कोई भी मानसिक स्वास्थ्य पर बात नहीं कर रहा था। जबकि बेटे की मौत के बाद से ही किरण का चेहरा देखने से पता चलता था कि वह बहुत गहरे डिप्रेशन में है। घरवालों ने तमाम तरह के इलाज कराए लेकिन मनोचिकित्सक को नहीं दिखाया। इस तरह की अनदेखी और अवैज्ञानिक सोच के कारण एक परिवार उजड़ गया।
मानसिक बीमारी को लेकर गाँव के एक बड़े तबक में लोगों में इसे कोई बीमारी नहीं मानते हैं। उन्हें लगता है कि ये कोई पढ़े-लिखे शहरी लोगों का फैशन है। वे तमाम ढोंगियों, पाखंडियों से झाड़-फूँक कराते हैं लेकिन किसी मानसिक बीमारी के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं करते। इसका सबसे बड़ा कारण समाज में वैज्ञानिक और तार्किक चेतना का भीषण अभाव होना है। लोग एक सदियों से बनी-बनायी धारणा पर ही चलते रहते हैं उससे आगे जाकर सोचना वे गैर जरूरी समझते हैं।
स्त्रियों की मानसिक सेहत को लेकर लापरवाही
अवध के जौनपुर जिले में नीभापुर गाँव की रहने वाली कंचन (बदला हुआ नाम) बहुत ही जहीन लड़की थी और पढ़ाई-लिखाई में भी बहुत तेज थी। बेहद कर्मठ वो बच्ची पढ़-लिख कुछ बनना चाहती थी। ये सपना उसने बचपन से ही अपने मन में संजोया हुआ था। लेकिन घरवालों ने जल्दी से विवाह कर दिया। वो भी एक ऐसे परिवार में जहां उसके सपनों की कोई तरजीह नहीं दी गई। विवाह के बाद घर-गृहस्थी के जंजाल में वो फंसकर रह गयी और उसके बाद लगातार बच्चे पैदा करने से और भी टूट गयी। क्योंकि उसके घरवाले बेटा चाहते थे और उसके तीन बेटियां हुईं। बेटे के इंतजार में घरवाले बच्चे पैदा करने का दबाव बनाते रहे। कंचन का सपना तो टूट ही गया था लगातार शरीर भी टूट रहा था। अंततः इस टूटन और थकान ने गहरे अवसाद का रूप ले लिया। बाद में घरवाले डॉक्टर को दिखाये लेकिन उसकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया हमेशा उसका मन बुझा रहता।
घरवालों ने फिर झाड़-फूँक का इलाज शुरू कर दिया। ओझा-तांत्रिक आकर आधी रात तक घर में झाड़फूंक करते। इस तरह वह और भी गुमसुम रहने लगीं। आज की तारीख में कभी खूब बात करती हँसती, मुस्कुराती लड़की का बोलना ही बंद हो गया है। अब वह एकदम चुप मन को मारे एक जगह पड़ी रहती हैं। इतनी उदासीन रहती हैं कि अपनी बच्चियों का भी खयाल नहीं रख पातीं। लेकिन इतना सब कुछ घट जाने के बाद उसके घर वाले ने मानसिक स्वास्थ्य के डॉक्टर को नहीं दिखाया। उन लोगों का कहना हैं कि उस पर किसी ने कोई टोना-टोटका कर दिया है। जबकि सबने देखा है कि वह कितनी कुशाग्र बुद्धि की छात्रा थीं अगर पढ़ने-लिखने का अवसर मिला होता तो वो जीवन में कुछ बेहतर करतीं। लेकिन इसका अफ़सोस न मायके वालों को है न ससुराल वालों को। सब उसकी बीमारी को भूत प्रेत की बाधा मानते हैं। आज भी कंचन उसी हालत में एकदम चुप सी पड़ी रहती हैं।
यहां तो बस दो घटनाओं का जिक्र है बाकी तो गाँवों में इस तरह के अनगिनत मामले होते रहते हैं। जिन विशिष्ट परिस्थितियों में गाँव में लोग मानसिक तनाव झेलते हुए बीमार रहने लगते हैं लोग उसे कोई कारण ही नहीं मानते। इसी तरह हिस्टीरिया के लक्षण गाँव में अगर किसी लड़की में दिख गया तो डॉक्टर को तो कतई नहीं दिखाते। घरवाले भूत प्रेत बाधा ही कहते हैं और वहीं जाकर दिखाते भी हैं। बहुत बार तो ये भी देखा जाता है कि हिस्टीरिया से ग्रस्त लड़की को दिक्कत हुई और डॉक्टर को दिखाया गया डॉक्टर ने किसी मेंटल हेल्थ केयर में दिखाने की सलाह दिया और घरवाले लड़की को लाकर घर में बंद कर देते हैं। यौन-बीमारी को लेकर लोगों में बहुत तरह की भ्रांतियां व्याप्त हैं।
बढ़ती उम्र की महिलाओं में कई तरह की मानसिक तनाव होने लगते हैं और मेनोपॉज के बाद वे कुछ अनमनी सी रहने लगती हैं लेकिन गाँव में इन महिलाओं में ये लक्षण दिखने पर कोई इसपर बात नहीं करता। वे किसी मानसिक बीमारी की बात या तो उसको खारिज करते हैं या मजाक बनाते हैं। इसी तरह बढ़ती उम्र की महिलाओं में बाइपोलर आदि मानसिक बीमारी के खूब लक्षण दिखाई पड़ते हैं लेकिन घरवाले और खुद रोगी भी इस बात को खारिज करता है। अगर बहुत समझाने पर किसी भी तरह मान भी ले कि ये मानसिक बीमारी उक्त व्यक्ति को है तब भी वो मनोचिकित्सक के पास नहीं जाता कि लोग क्या कहेंगे। अक्सर लोग मानसिक बीमारी को सीधे पागलपन से जोड़ देते हैं और लोग कहीं उन्हें या उनके परिवार के बीमार व्यक्ति को पागल न समझने लगें इस व्यर्थ के डर से घिरे रहते हैं।
इतना ही नहीं और बहुत बार देखा जाता है कि घर में मानसिक बीमार व्यक्ति के साथ बहुत शारिरिक हिंसा की जाती है। ख़ासकर महिलाओं के साथ तो बहुत खराब व्यवहार होता है। यहां तक कि भूत प्रेत बाधा की बात करके ओझा तांत्रिक भी महिलाओं के साथ यौन-हिंसा के साथ-साथ यौन उत्पीड़न और शारीरिक हिंसा भी करते हैं। यहां तक की पढ़े-लिखे शिक्षित परिवारों भी ये अंधविश्वास और हिंसा खूब दिखती है।
भूत-प्रेत झड़वाने के लगता है मेला
हमारे समाज में मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी का आलम ये है कि भूत-प्रेत बाधा के इलाज करवाने के नाम पर बकायदा मेला लगता है। इन मेलों में मानसिक रोगियों को भूत-प्रेत, पिशाच, जिन्न का प्रकोप बताकर झाड़-फूंक से इलाज किया जाता है। कई जगहों पर देखा जाता है कि कभी-कभी ये इलाज बहुत अमानवीय और उत्पीड़न वाला होता है। उत्तरप्रदेश के कौशाम्बी और प्रतापगढ़ जिले के बॉर्डर पर एक जगह है कड़ा मानिकपुर। इस जगह पर भूत-प्रेत झड़वाने का मेला लगता है। उस स्थान को एक तीर्थ स्थल मान लिया गया है। इसी तरह बिहार राज्य और उत्तरप्रदेश के बॉर्डर पर कैमूर जिले में एक जगह है हरसू-बरम। ये एक बरम मंदिर है जो कैमूर जिले के चैनपुर में स्थित है। यहां कहा जाता है साढ़े छः सौ साल से भूत प्रेतों का इलाज कराने का मेला लगता है। इसी तरह ऐसी बहुत सी जगहें हैं दरगाह, मजारें और आश्रम आदि जहां झाड़फूंक का धंधा खूब चलता है। मानसिक रोगियों को बहुत अजीबोगरीब तरीके से इलाज के नाम पर प्रताड़ित किया जाता है।
जागरूकता लाने के उठाने होगे कदम
मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जैसे कोई जागरूकता गाँव में दिखती ही नहीं बल्कि वो रोगी की उस अवस्था को भूत-प्रेत बाधा कहकर और कठिन बना देते हैं। जबकि आज के इस पूंजीवादी व्यवस्था के समय में हर रोज नैतिकता और सम्बन्धों का मूल्य और मानदंड गिरता जा रहा है मनुष्य बहुत ही अकेला और तनावग्रस्त होता जा रहा है। ऐसे में उसे मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल और तनाव के इलाज की बहुत ज्यादा जरूरत है तो वर्तमान राज्य व्यवस्था और उसका ये समाज उसे और प्रतिगामी मूल्यों की तरफ धकेलता जा रहा है। अंधविश्वास को स्थापित करते बाबाओं और पंडे-पुजारियों को संरक्षण और सुविधाएं दे रहा है। जबकि किसी भी राज्य का यह काम है कि वो समाज को अंधविश्वास और अतार्किक धारणाओं से बाहर निकालने का प्रयास करे। समाज में वैज्ञानिक चेतना और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की तरफ लोगों में जागरूकता लाये। गाँव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में मानसिक रोगियों की चिकित्सा के लिए भी एक मनोचिकित्सक को रखा जाये जो कि गाँव में लोगों मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूक करे और उन्हें मानसिक स्वास्थ्य को लेकर समुचित इलाज के साथ उन्हें मानसिक स्वास्थ्य की सलाह भी दे।