फिल्म ‘मार्गरिटा विथ अ स्ट्रॉ’ की मुख्य किरदार लैला (कल्कि कोचलिन) सेरेब्रल पाल्सी से ग्रसित एक युवा लड़की है जो अपनी यौनिकता को समझने का प्रयास कर रही है। शोनाली बोस द्वारा निर्देशित और लिखी गई यह फिल्म संवेदनात्मक रूप से बेहद समृद्ध है। यह फिल्म मुख्य रूप से दो बातों को केंद्र में रखती है विकलांगता और यौनिकता। डॉयरेक्टर ने लैला की विकलांगता को किसी भी प्रकार से उसकी कमज़ोरी नहीं दर्शाया है बल्कि उसकी सेक्सुअलिटी को ज़्यादा तरजीह देते हुए दर्शकों की इस अवधारणा पर चोट किया है कि किसी व्यक्ति के विकलांग हो जाने से उनके भीतर प्रेम-संबंध और सेक्स की भावना खत्म नहीं हो जाती, बल्कि हर आम व्यक्ति की तरह यह चाहत उनमें भी रहती है।
फिल्म के कुछ किरदार सेक्सुअलिटी के अपने मायनों को समझते नज़र आते हैं तो कुछ भारतीय समाज का आईना बन उसे नकारते हैं। इस तरह एक मध्यमवर्गीय परिवार में लैला की अपनी सेक्सुअल पहचान को लेकर कम आउट करने की दास्तां को पूरी ईमानदारी से फिल्म बयां करती है। खुद को पहचानने के अपने सफ़र में लैला पाती हैं कि वह बाइसेक्सुअल हैं अर्थात उन्हें महिलाओं और पुरुष दोनों से आकर्षण महसूस होता है। शुरूआत में अपने कॉलेज के दोस्त नीमा से और बाद में चलकर जेरेड और ख़ानम से उन्हें आकर्षण होता है। यहां थोड़ा रुककर हमें बाइसेक्सुअलिटी और उससे जुड़ी कुछ आम गलतफहमियों को समझते हैं।
बाइसेक्सुअलिटी किसी व्यक्ति की वह सेक्सुअल पहचान है जिसमें उसे एक से अधिक जेंडर के व्यक्तियों से रोमांटिक या यौनिक आकर्षण महसूस हो सकता है। कई बार अज्ञानता और जागरूकता की कमी के कारण लोगों को यह गलतफहमी होती है कि बाइसेक्सुअल लोग असल में मौजूद ही नहीं हैं, यह केवल एक कल्पना है या कन्फ्यूजन के कारण व्यक्ति को ऐसा लगता है। लेकिन सच्चाई यह है कि हर दूसरी सेक्सुअलिटी की तरह यह भी कई लोगों में पाया जाता है।
दूसरी बड़ी गलतफहमी यह है कि बाइसेक्सुअल लोग एक ही समय पर दो लोगों के साथ संबंध में रहते हैं, या उन्हें एक साथ महिलाओं और पुरुष दोनों से आकर्षण होता है। जबकि ऐसा नहीं है। किसी भी आम व्यक्ति की तरह इन्हें भी एक समय पर एक ही व्यक्ति से प्रेम होता है। साथ ही, आकर्षण का प्रतिशत भी 50-50 नहीं होता। यह व्यक्ति की अपनी चाहतों पर निर्भर करता है।
अगर हम फिल्म को क्वीयर चश्मे से देखें तो पाते हैं कि अपनी सेक्सुअल पहचान को समझने और उसे लेकर कम आउट करने की जो चुनौतियां होती हैं, उसे यहां उसी सटीकता से दर्शाया गया है जो हकीकत में होता है। हां, फिल्म के किरदारों का सामाजिक परिवेश ज़रूर अलग हो सकता है, लेकिन चुनौतियां एक-सी हैं।
उदाहरण के लिए, लैला का अपनी पहचान को लेकर खुलना और उसकी माँ का इसे अप्राकृतिक बताकर झुठला देना, ठीक वैसा ही बर्ताव है जैसा लगभग सभी मध्यमवर्गीय परिवारों में होता है। मुझे ठीक-ठीक याद है कि अपने पिता से अपने होमोसेक्शुअल रिश्ते को लेकर बात करने में मुझे ऐसी ही परेशानी हुई थी। उन्हें लगता था एक लड़की का लड़की से या लड़के का लड़के से प्यार करना प्रकृति के ख़िलाफ़ है या सामाजिक नहीं है। यह ‘सामाजिक’ शब्द बड़ा टेढ़ा है। पितृसत्ता इसी के आड़ में सदियों से अपना हुक्म चला रही है। ख़ैर, जब मैंने अपनी पहचान से बिल्कुल समझौता नहीं किया तो धीरे-धीरे वे समझ गए और मुझे इसी तरह स्वीकार किया। हालांकि, मेरे दोस्तों के अनुभव अलग-अलग रहे। कुछ के लिए यह अभी भी मुश्किल है कि वह इस विषय पर घर में बात तक कर पाएं।
ख़ानम, जो फ़िल्म में एक लेस्बियन किरदार हैं, लैला को अपनी कम आउट करने की कहानी बताते हुए कहती हैं कि उनके परिवार वालों ने यह जानते ही की वह क्वीयर हैं, उन्हे घर से बेदखल कर दिया था। हमारा समाज अभी इतना असहिष्णु और होमोफोबिक है कि एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोगों के लिए हमेशा हिंसा और अलगाव का खतरा बना रहता है। हमें भिन्न-भिन्न स्तर पर लड़ाइयां लड़नी पड़ती हैं। फिल्म के किरदार भी अपनी-अपनी लड़ाइयां लड़ रहे हैं।
फिल्म का एक पहलू मुझे बहुत प्रभावित करता है जहां विकलांगता और समलैंगिकता को व्यक्ति की कमज़ोरी या विकार की तरह नहीं दर्शाया गया है बल्कि उन किरदारों को अन्य लोगों की तरह ही अपनी चुनौतियों से लड़ते-भिड़ते और जीतते दिखाया है। अन्य बॉलीवुड फिल्में जो इन विषयों के इर्द-गिर्द बनी हैं, या तो ऐसे किरदारों को असहाय दिखाते हैं या हास्य का पात्र। दोस्ताना, शुभ मंगल ज्यादा सावधान, आदि कुछ ऐसी ही फिल्में हैं। फिल्म के होमोफोबिक डायलॉग्स, मिस-रिप्रेजेंटिंग, और रूढ़िवादी थीम ट्रिगर वार्निंग के साथ दिखाई जानी चाहिए क्योंकि इससे एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोगों का आत्मविश्वास तो कमज़ोर होता ही है साथ ही यह उनके प्रति लोगों के बर्ताव में भी नकारात्मक बदलाव लाता है। हम घर में अपने बच्चों के मुंह से यही सारे डायलॉग सुनते हैं। सोशल मीडिया पर शेयर किए जा रहे मीम्स में देखते हैं और इसी तरह समाज के एक तबके को हाशिए पर लाने वाले पैटर्न का हिस्सा बन जाते हैं।
हेट्रोनॉर्मेटइव और टॉक्सिक ‘मर्दानगी’ वाले समाज को घेरे में लेने के बजाए ऐसी फिल्में उनके आधिपत्य को जमाने में लग जाती हैं। इसके ठीक उलट, मार्गरिटा विथ अ स्ट्रॉ की पूरी कहानी बेहद संवेदनशीलता से लिखी गई है और इस बात का भी ख्याल रखा गया है कि कहीं किरदारों का अनावश्यक महिमामंडन न हो। लैला की कहानी किसी अतिश्योक्ति को नहीं बयां करती बल्कि हकीकत को सामने रखती है कि जेंडर बाइनरी में फिट नहीं होना, विकलांग व्यक्तियों में सेक्स की चाहत होना और उसे खुलकर व्यक्त करना कोई अद्भुत या असाधारण घटना नहीं बल्कि बेहद सामान्य है। हमें अपने इसी गेज से निकलने की ओर अधिक संवेदनशील बनने की ज़रूरत है।
जिस समय देश में मैरिज इक्विलिटी को लेकर बात चल रही है और हम सब न्याय की आशा लगाए सर्वोच्च न्यायालय की तरफ़ देख रहे हैं, उस दौर में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय, उनकी चुनौतियों और प्रेम के मायने समझाती, साथ ही विकलांगता, सेक्स और उससे जुड़े टैबू को चुनौती देती यह फिल्म बेहद प्रासंगिक हो जाती है।