प्रचलित दौर में नारी सौंदर्य की स्वीकृति में ब्यूटी स्टैंडर्ड यानी सुंदरता के मानकों का बहुत बड़ा प्रभाव दिखाई देता है। किसी स्त्री की सुंदरता के संदर्भ में बहुत कुछ हद तक इन मानकों के पूरे होने की अपेक्षा रहती है। स्त्रियां सौंदर्य के प्रति संवेदनशील होती हैं। उनमें नैसर्गिक रूप से सौंदर्य के प्रति रूझान होता है। प्रकृति की अनुपम देन ‘सौन्दर्य’ का सम्मान करना उचित ही है। लेकिन उसके सौंदर्य को सीमाओं में बांधना कितना जायज है, यह सोचने की बात है। सामाजिक नज़रिए के प्रभाव में खुद के शारीरिक सौन्दर्य से संदर्भित बदलाव का प्रयास बौद्धिक दृष्टि से कितना वाजिब है? ऐसी स्थिति में तो महिलाओं का व्यक्तिगत दृष्टिकोण ही पीछे रह जाता है। यह संदर्भ नारियों के प्रति सकारात्मक सोच को प्रदर्शित नहीं करता।
इन सौंदर्य मानकों के निर्धारक कौन हैं?
क्या ब्यूटी स्टैंडर्ड समस्त महिला जगत के लिए उपादेयता हैं? प्रत्येक नारी की प्रकृति प्रदत्त शारीरिक बनावट, कोमलता, मांसलता होती है। उसके नैसर्गिक स्वरूप में बदलाव की अपेक्षा कितनी ठीक है? कष्ट पहुंचाते हुए सौंदर्य मानकों की परिधि में स्वयं को देखना कितना तर्कसंगत है? उल्लेखनीय है कि नारी का सौंदर्य किसी के नज़रिए की अपेक्षा नहीं रखता। साहित्य, संगीत, कला, ज्ञान, विज्ञान भी नारी को वैयक्तिक और सामाजिक रूप से सौंदर्य समृद्ध ही बनाते हैं। इनको नकारते हुए सुंदरता की परिभाषा कदाचित ही पूर्ण हो सकती है।
सौंदर्य के मानकों को निर्धारित करना क्या नारी की स्वतंत्रता या निजता का हनन नहीं है? ब्यूटी स्टैंडर्ड में पश्चिमी सौंदर्य को केंद्रीकृत किया गया है। गोरी, पतली, लंबी, चमकती त्वचा जैसे सुंदरता के इन मानकों के पीछे पुरुष प्रधान समाज है। ब्यूटी स्टैंडर्ड का निर्धारण नारियों के प्रति असंवेदना व्यक्त करता है। इन मानकों का स्त्रियों के जीवन पर प्रभाव तथा इससे जुडे़ हुए अन्य पहलुओं पर विहंगम अवलोकन की सामयिक आवश्यकता है।
सौंदर्य में बदलाव और नारी स्वतंत्रता
देश-प्रदेश की जलवायु के प्रभाव में अलग-अलग रूप, रंग तथा लंबाई का पाया जाना एक वास्तविकता है। किसी प्रदेश में गौर वर्ण के लोग होते हैं। किसी प्रदेश में लंबाई अपेक्षाकृत कम होती है। लंबाई, रूप, रंग, नयन, नक्श में अंतर दिखाई देना एक सामान्य बात है। इस तथ्य को नजरअंदाज कर नकारात्मकता या हीनता को पालना बिल्कुल सही नहीं है। किंतु प्राकृतिक तथा पारंपरिक सौंदर्य की अवधारणा के सापेक्ष वर्तमानकालिक सौंदर्य के मानक अधिक प्रभावी दिखाई दे रहे हैं। यह संकीर्ण-सोच महिलाओं को वास्तविकता से बहुत दूर ले जाती है।
सौंदर्य में भौतिक बदलाव असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। अस्थाई तौर पर यदि सौंदर्य के मानकों को पूरा कर भी लिया जाए तो एक समय के बाद बढ़ती आयु में उन प्रयत्नों के निष्प्रभावी होने का अनुभव कदाचित ही सुखद अनुभूति करा सके। इससे संदर्भित भय भी मन में अनुकूलता नहीं जगा सकता। इस सच्चाई से अवगत होने पर भी स्त्रियों द्वारा प्रकृति से मिली सुंदरता के सापेक्ष समसामयिक सौंदर्य मानकों की अपेक्षा का औचित्य विचारणीय पहलू है। सम्भवतः यह पितृसत्तात्मक सोच है जो नारी समाज में स्वतंत्रता को प्रश्नांकित करती है।
सौंदर्य मानक स्त्रियों पर मनोवैज्ञानिक रूप से दबाव या प्रभाव बनाते हैं जिसको मानसिक और शारीरिक स्वस्थ्ता की दृष्टि से तर्कसंगत नहीं ठहराया जा सकता। सवाल यह भी है कि इस तरह क्या नारी सौंदर्य के नियमन से महिलाओं की स्वतंत्रता और स्वास्थ्य चिन्हित नहीं होते? स्वास्थ्य को अनदेखा कर सौंदर्य को केंद्रीकृत करना कितना न्यायोचित है? यही कारण है कि ब्यूटी स्टैण्डर्ड मन को तनाव तो नहीं दे रहे? इस सन्दर्भ में विमर्श आवश्यक बन जाता है।
शारीरिक और मानसिक दृष्टि से सौंदर्य मानक
कक्षा बारह की एक छात्रा का उदाहरण है कि कुछ दिनों से उसके थके-थके दिखने पर अभिभावकों द्वारा चिकित्सक से संपर्क करने पर संज्ञान में आया कि ब्यूटी स्टैंडर्ड पर खरा उतरने के लिए शरीर के लिए आवश्यक मात्रा से कम आहार लेने के कारण उसका हीमोग्लोबिन बहुत कम हो गया था। यह एक छात्रा की ही मनःस्थिति नहीं है। हमारे समाज में कितनी ही युवतियां, छात्राएं, महिलाओं में बॉडी शेप और बॉडी स्ट्रक्चर के मानकों को पूर्ण करने की अभिलाषा में आवश्यकता से कम आहार लेने की प्रवृत्ति देखी जाती है। इसकी निरन्तरता मानसिक तनाव को जन्म दे सकती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि पोषक तत्वों की कमी से व्यक्तित्व उर्जस्विल नहीं हो सकता। एक स्वस्थ महिला ही सौंदर्य से संयुक्त कही जा सकती है।
फिटनेस का अभिप्राय स्वस्थ और संतुलित होना है, जीरो फिगर नहीं। एक अच्छे जीवन के लिए शारीरिक और मानसिक ऊर्जा की जरूरत है। कम वजन दूरगामी दुष्प्रभाव को सामने ला सकता है। वसा की कमी वैयक्तिगत ऊर्जा को ही प्रभावित नहीं करती बल्कि त्वचा को भी निस्तेज बनाती है। शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से वसा की कमी हानिकर है। नारी समाज में बढ़ती यह प्रवृत्ति सोचने का विषय है।
उल्लेखनीय है कि फिटनेस के लिए आहार की गुणवत्ता तथा मात्रा पर ध्यान देना जरूरी है। सही डाइट शरीर को पोषकता देती है तथा मानसिक रूप से सशक्त बनाती है। विशेष डाइट प्लान के बिना ईटिंग डिसऑर्डर की समस्या का सामना भी करना पड़ सकता है। बहुधा युवतियां जीरो फिगर के लिए कम मात्रा में भोजन करना, एक समय भोजन करना आदि अनेक उपाय अपनाती हैं। प्रकृति के विपरीत प्रयासों के शारीरिक और मानसिक साइड इफेक्ट्स भी हैं। क्या ये प्रयास महिला सशक्तिकरण के लक्ष्य में बाधक नहीं हैं? महिलाएं यदि समुचित आहार नहीं लेंगी तो स्वस्थ कैसे रहेंगी? प्रगतिशील कैसे बनेंगी? भावी पीढ़ियां कैसे स्वस्थ होंगी? अन्य लड़कियों पर इसका क्या प्रभाव होगा? यह विचारणीय तथ्य है। हड्डियों का कमजोर होना, कुपोषण की समस्या, खून की कमी, खिन्नता, चक्कर आना, पीरियड्स की अनियमितता, प्रतिरोधक शक्ति का क्षीण होना आदि अनेक दुष्प्रभाव परिलक्षित सकते हैं।
कम भोजन और अधिक व्यायाम के चलते स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से दो-चार होना भी एक गंभीर बिंदु है। फैशन और मनोरंजन जगत में पतलेपन को आदर्श माना गया। पतलेपन को सुंदरता और सफलता से जोड़कर देखा जा रहा। अधिक पतलापन स्वास्थ्य की दिशा में जोखिम बढ़ा सकता है। इस प्रकार महिला जगत में जाने-अनजाने स्वास्थ्य से खिलवाड़ हो रही है। सौंदर्य की होड़ में स्वास्थ्य को नजरअंदाज करना उसके मौलिक अधिकार को प्रश्नांकित करता है।
तथाकथित सौंदर्य मानक और बाजार
एक ओर चिकित्सा का व्यापक परिक्षेत्र है जिसको उक्त नियमन से लाभ होता है। वजन कम करने की, वजन बढ़ाने की, लंबाई बढ़ाने की, स्लिम करने की आदि। फिटनेस के लक्ष्यगत इन दवाओं के प्रति समाज में पर्याप्त आकर्षण देखा जाता है। सच तो यह है कि पुरूषवादी सोच के तहत नारी सौंदर्य के नियमन के फलस्वरूप अनेक उद्योग फल-फूल रहे हैं। मीडिया इस तथ्य की गतिशीलता में सहायक दिखाई देती है। विविध विज्ञापनों ने महिलाओं की जीवन शैली में ब्यूटी स्टैंडर्ड को पूरा करने के लिए इन संसाधनों को आवश्यक बना दिया है।
एक ओर हष्ट-पुष्ट पुरुष सौंदर्य के दायरे में आते हैं दूसरी और कमजोर नारी। यह विरोधाभास बड़ी ही विडंबना की बात है। क्या कमजोर नारी समाज में सक्रिय योगदान देने में सक्षम हो सकती है? इस सवाल का सकारात्मक जवाब मुश्किल ही दिखाई देगा। सर्दी के मौसम में भी अनेक अवसरों पर स्त्रियां कम कपड़ों में दिखाई देती हैं। शीत के दौरान पुरुष पैंट, कोट, टाई में होते हैं। यह विसंगति क्यों? स्त्रियां कम कपड़ों में सुंदर लगती हैं, यह पुरुषवादी सोच है। कम अथवा अधिक कपड़ो को पहनना नारी का अपना दृष्टिकोण है, अपनी इच्छा है।।
सामाजिक उन्नति के लिए नारी का स्वास्थ्य एक अहम पहलू है। वह समाज में नवसृजित सदस्यों की निर्माता है। स्वस्थ नारी समाज ही राष्ट्रीय गति को तीव्रतर कर सकता है। परिवार संस्था और सामाजिक संस्थाओं को बहुमुखी प्रगति के तहत नारी से बहुत अपेक्षाएं हैं। नारीवादी दृष्टिकोण से यदि देखें तो इस प्रकार के मानक स्त्रियों की मनःस्थिति पर तनाव और दबाव के कारण दिखाई देते हैं। अन्ततः नारी जगत की स्वतंत्रता, स्वस्थता और सबलता को केंद्र में रखने की सामयिक आवश्यकता अनुभूत हो रही है।