राजनीतिक शास्त्र विषय में अलग-अलग देशों में तमाम विचारक हुए, जिन्होंने अपनी बौद्धिकता से समाज को नये विचार दिए और ज्ञान के क्षेत्र में गुणवत्ता बढ़ाई। लेकिन इन सभी क्षेत्रों में एक बात सामान्य थी, वह थी महिलाओं की अनुपस्थिति और उनके विषयों का ज्ञान क्षेत्र से एकदम गायब कर दिया जाना। अरस्तु जो राजनीतिक विज्ञान के पिता कहे जाते हैं उनका ज्ञान महिलाओं के संदर्भ में बेहद स्त्री-विरोधी रहा है। उदाहरण के रूप में अरस्तु का कहना था कि पुरुष से महिला का संबंध स्वाभाविक रूप से श्रेष्ठ से निम्न और शासक से शासित का संबंध है।” ठीक ऐसे ही ज्ञानोदय काल (एनलाइटनमेंट पीरियड) के मुख्य विचारकों में शामिल इमैन्यूल कांट ने कहा कि जो महिलाएं खुद को बौद्धिक समझती हैं वे दाढ़ी भी रख लें। ऐसे दार्शनिकों के बीच हुए जॉन स्टुअर्ट मिल (जे एस मिल) जो उन्नीसवीं सदी के रैडिकल फेमिनिस्ट में गिने जाते हैं।
मिल एक ब्रिटिश दार्शनिक, प्रकृतिवादी, उपयोगितावादी और उदारवादी विचारधारा के समर्थक थे। मिल ने महिलाओं के ख़िलाफ़ होनेवाली हिंसा और भेदभाव के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई ताकि महिलाएं अपनी लड़ाइयां खुद लड़ सकें। अपनी पत्नी हैरियट टेलर से मिलकर उनका नारीवादी लेखन और बेहतर हुआ था। टेलर ने उनके कई कामों में उनका साथ दिया जैसे उनके सबसे सराहनीय काम ‘सब्जेक्शन ऑफ़ वीमेन’ में टेलर ने अपने विचारों के माध्यम से बहुत मदद की थी। मिल ने सिस्टम ऑफ़ लॉजिक (1843), ऑन लिबर्टी (1859) आदि महत्वपूर्ण लेखन से राजनीतिक क्षेत्र को नयी दिशा दी थी। हम मिल के ‘सब्जेक्शन ऑफ़ वीमेन’ के माध्यम से यह समझेंगे कि उनके विचार भारतीय नारीवादियों के संघर्ष में कैसे मदद कर सकते हैं। सब्जेक्शन ऑफ़ वीमेन को चार अलग-अलग अध्याय में बांटा गया है।
पहले अध्याय में, मिल समकालीन विक्टोरियन इंग्लैंड में महिलाओं की सामाजिक और कानूनी स्थिति का वर्णन करते हैं। दूसरे अध्याय में, सामान्य से विशेष की ओर बढ़ते हुए, मिल इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि कैसे विक्टोरियन विवाह की कानूनी असमानताएं महिलाओं पर अत्याचार करती हैं और वे कौन से सुधार हैं जो महिलाओं की निराशाजनक स्थिति को कम कर सकते हैं। तीसरा अध्याय इस बात पर केंद्रित है कि सार्वजनिक क्षेत्र और राजनीति से महिलाओं का बहिष्कार न केवल महिलाओं को बल्कि पुरुषों को भी नुकसान पहुंचाता है। आखिर में, मिल ने स्पष्ट किया कि किस प्रकार समानता के सिद्धांत को अपनाने से समाज में बेहतरी की दिशा में बदलाव आएगा।
मिल समानता के समर्थक थे और यह मानते थे कि महिलाओं को इस तरह पाला जाता है कि वे हमेशा पुरुषों के अधीन रहें और इसे प्राकृतिक करार दे दिया जाता है। जबकि मिल इसे प्राकृतिक मानने से इनकार करते हैं। उनका मानना था कि असमानता केवल पुरुषों और महिलाओं को अलग-अलग क्षेत्रों और क्षेत्रों में विभाजित नहीं करती है; इसने कानूनी रूप से समर्थित संबंधों का निर्माण किया जिसमें पति, यहां तक कि अच्छे इरादों वाले भी, अपनी पत्नियों के जीवन पर हावी हो गए और उनकी संभावनाओं को धूमिल कर दिया। विक्टोरियन समाज में अनुभव करते हुए भी मिल के तर्क भारतीय संदर्भ में भी सटीक बैठते हैं। जो पुरुष खुद को प्रगतिशीलता के लिबास में देखते हैं वे अपनी निजी जिंदगी में हमेशा ही बराबरी से पेश आएं ये ज़रूरी नहीं है। मिल सेक्सुअल हायार्की की बात भी करते हैं लेकिन भारतीय नारीवाद में सेक्सुअल हायार्की की बातें अब भी सीमित हैं। पहले एक मुद्दा उठाएं, उसके हल होते ही दूसरा मुद्दा उठाएं, यह वैचारिकी नारीवादियों के संघर्ष को बहुत लंबा बना सकती है इसीलिए हर मुद्दे को बाकी मुद्दों से जोड़कर देखने में लड़ाई व्यापकता लाएगी।
महिलाओं को स्वतंत्रता का अधिकार
स्वतंत्रता के परिपेक्ष्य में मिल मानते हैं कि यह महिलाओं की मुक्ति के लिए अहम कदम है। मिल का तर्क है कि इतिहास से लेकर अब तक महिलाओं को दबाकर रखा गया है तो हम भला कैसे जान पाएंगे कि वे कौन सा काम करने लायक हैं और क्या नहीं। ऐसा मुमकिन महिलाओं को स्वतंत्र छोड़कर ही होगा। ऐसा करने से उनकी क्षमताएं बढ़ेंगी और उनकी जिस अधीनता को प्राकृतिक कहा जा रहा है वह टूटेगी क्योंकि यह प्राकृतिक नहीं समाज द्वारा बनाई गई है। भारतीय संविधान में मिल का सिद्धांत शामिल है, यहां के प्रत्येक नागरिक के पास स्वतंत्रता का अधिकार है। हालांकि समाज में प्रत्येक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की स्वतंत्रता की परवाह नहीं करता है।
लंबे समय तक भारत की सवर्ण नारीवादियों ने दलित महिलाओं के संघर्ष को मुख्यधारा के नारीवाद से दूर रखा। अभी तक भी जाति नारीवादियों के एक न होने की खाई को खत्म नहीं कर सकी है जिसका नतीजा यह है कि भारतीय महिलाएं अपनी क्षमताएं पहचान नहीं सकी हैं, न ही उन्हें ऐसा वातावरण मिल सका है। स्वतंत्रता के असल मायने से हम भी पीछे हैं। मिल ने बहुत आसान शब्द इस्तेमाल किए हैं लेकिन उनका अर्थ और मायने बेहद जरूरी हैं। अपने लेखन प्रति “ऑन लिबर्टी” में मिल कहते हैं कि स्वतंत्रता का उद्देश्य किसी को नीचे खींचना नहीं है बल्कि शोषित को ऊपर उठाना है। विवाह की व्यवस्था पर मिल की सोचजे एस मिल का कहना है कि मुक्त महिलाएं विवाह और प्रजनन को स्वतंत्रता और तर्क के आधार पर चुनेंगी।
मिल विवाह की पारंपरिक पद्धति के खिलाफ़ थे जो महिलाओं को गुलाम बनाती है। मसलन महिला की संपत्ति उसके पति को दी जाती है। मिल का तर्क है कि एक दास को भी अपना मालिक चुनने का हक होता है तो महिला जब दास ही है तो उसके अपना मालिक चुनने का हक़ क्यों नहीं। विवाह में सब सहते हुए भी उसी व्यवस्था में महिला बनी रहती है क्योंकि उसे यह डर रहता है कि पति को प्रेम न करने पर, उसके लिए चिंतित ना होने पर वह उसे बर्बाद कर सकता है और वह बर्बाद न हो इसीलिए अधीनता चुनती है। मिल कहते हैं कि बेशक आधुनिक दौर में समानता का वर्चस्व बढ़ रहा हो लेकिन विवाह व्यवस्था में हम अभी भी आधुनिकता के दौर से पहले की पद्धति को ही महत्व दे रहे हैं। मिल की बातें एकदम जानी पहचानी लग रही हैं न? विवाह व्यवस्था हमारे यहां भी ऐसी ही है जिसमें महिलाएं अधीन हैं, तलाक़ का डर उनके भीतर कायम है, हिंसा की चपेट में वह रहती ही हैं। इसे चुनौती कैसे दी जा सकती है? इसका सबसे बड़ा हल है महिलाओं की आर्थिक आज़ादी और सुरक्षा।
भारतीय नारीवाद ने महिलाओं की आर्थिक आज़ादी के लिए ना के बराबर लड़ाइयां लड़ी हैं, शिक्षा के क्षेत्र में धीरे-धीरे महिलाएं आगे आई हैं लेकिन इस शिक्षा के बाद वे वर्कफोर्स का हिस्सा नहीं बन रही हैं। समान आय, काम करने की जगह पर वूमेन यूनियन, सुरक्षा आदि के लिए भारतीय नारीवाद को अभी बहुत कदम बढ़ाने हैं। जॉन स्टुअर्ट मिल महिलाओं के संदर्भ में उस वक्त बात कर रहे थे जब महिलाओं को वोट देने तक का अधिकार नहीं था, ऐसे में जब वे खुलकर उनके अधिकारों की बात कर रहे थे तो लोगों द्वारा उनकी खिलाफत भी देख रहे थे। मिल वेस्ट के दार्शनिक होते हुए भी भारतीय परिपेक्ष में महिलाओं के लिए प्रेरणा हैं, उनका लेखन मूल समस्याओं, समाधनों की ओर लेकर जाता है जो निश्चित ही सिर्फ महिलाओं के लिए ही नहीं बल्कि पूरे समाज के विकास के लिए ज़रूरी है।
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