सैंड्रा ली बार्टकी एक स्त्रीवादी फिलॉसफर हैं जिन्होंने इस बात का अध्ययन किया है कि कैसे महिलाएं अवचेतन रूप से खुद को पितृसत्ता को सौंप देती हैं। वे यह समझ भी नहीं पातीं कि आख़िर वह कौन-सी गतिविधियां हैं जो उन्हें ऐसा करने पर मजबूर कर रही हैं और इससे पहले ही वे इसकी चपेट में आ जाती हैं। ‘मिशेल फूको, स्त्रीत्व और पितृसत्ता का आधुनिकीकरण,’ बार्टकी का यह निबंध मिशेल फूको की पावर थ्योरी और पुरुष-प्रधान समाज में स्त्रीत्व के निर्माण के रिश्ते को समझाता है। उन्होंने फूको के सिद्धांतों का प्रयोग वर्तमान में महिलाओं के दमन और उन पर हो रहे अत्याचार को समझने के लिए किया है। उनका उद्देश्य यह समझना था कि कैसे आधुनिक समाज में दमन का रूप बदल चुका है और वह किस प्रकार महिलाओं के शरीर और व्यवहार को नियंत्रित करता है।
हम पहले समझते हैं कि फूको के ‘डिसिप्लिनिंग पावर’ कॉन्सेप्ट के क्या मायने हैं और यह किस प्रकार महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों को डिकोड करता है। फूको की थ्योरी इस बात पर ज़ोर देती है कि कैसे सत्ता महज़ व्यक्ति के राजनीतिक और आर्थिक जीवन को ही नहीं निर्धारित करती बल्कि यह भी तय करती है कि वह अपनी रोज़मर्रा की जिंदगी में कैसे बर्ताव करेंगे और खुद पर हो रहे अत्याचार को बिना किसी सवाल के कैसे अपनाएंगे। फूको का यही फ्रेमवर्क बार्टकी के लिए प्रेरणा बना और उन्होंने ‘फेमिनिनिटी’ के निर्माण की थ्योरी दी।
इस ढांचे के तहत यह ज़रूरी नहीं है कि हमेशा कोई बाहरी दबाव हो, बल्कि महिलाएं निरंतर खुद को मॉनिटर करती रहती हैं। वे हमेशा अपने शरीर को एक सर्विलास के भीतर रखती हैं जहां दिन-रात उसे मॉनिटर करना और खुद को अनुशासित करते रहना उनका लक्ष्य होता है। लगातार ऐसा करने से उनके अंदर एक शर्म और अपराधबोध की भावना पनप उठती है जो उन्हें बार-बार उन्हीं जेंडर धारणाओं और महिला होने के मानकों पर खरा उतरने के लिए मजबूर करती है। अगर आप उन नॉर्म्स में फिट नहीं बैठती तो आप एक आदर्श महिला नहीं हैं। बार्टकी अपने निबंध में आगे कहती हैं कि कैसे फैशन इंडस्ट्री और ब्यूटी प्रैक्टिस पितृसत्ता को और भी मज़बूत करने और उसके दमनकारी हथकंडों को जारी रखने में मदद करती हैं।
उदाहरण के लिए, हम रोज़ सोशल मीडिया पर हज़ारों ब्यूटी प्रॉडक्ट्स के इश्तेहार देखते हैं, लेकिन क्या हमनें कभी यह सोचा है कि यह हमें क्यों बेचे जा रहे हैं? हमें इंस्ट्राग्राम ऐसे रील्स दिखाता है जिसे देखकर हमें FOMO (अलग-थलग महसूस) होने लगता है कि हम में ही कुछ कमी है। रील में दिख रहे व्यक्ति के पास तो स कुछ है। अक्सर महिला केंद्रित पत्र-पत्रिकाओं में बॉडी फैट कम करने के टिप्स, डाइट चार्ट और तरह-तरह के ऐसे नुस्खे भरे रहते हैं जो यह दावा करते हैं कि एक सफल महिला को किस तरह दिखना चाहिए, उनकी वेशभूषा से लेकर चलने-फिरने के ढंग तक निर्धारित कर दिए गए हैं। अब तो चेहरे को तथाकथित ‘परफेक्ट’ शेप देने वाले एक्सरसाइज भी चलन में हैं यानी शरीर के किसी निश्चित भाग से चर्बी को दूर कर सकते हैं। यह व्यवस्था पुरुषों के लिए ट्रेंड में नहीं है, सिर्फ़ महिलाओं को हीं इसकी ज़रूरत क्यों पड़ती है?
डाइट कल्चर और टॉक्सिक एक्सरसाइजिंग यह सुनिश्चित करते हैं कि मौजूदा समय में महिलाएं अपनी पूर्व-निर्धारित लीक से हटकर कुछ नहीं करें। भारी और हृष्ट-पुष्ट काया नहीं, इन्हें हमेशा बच्चों से जवान दिखते, ज़ीरो साइज़ वाले फिगर चाहिए! बार्टकी यहां ‘tyranny of slenderness’ की बात करती हैं जो बताता है कि कैसे समाज व्यक्ति के शरीर को रेगुलेट करता है, उसे ट्रेन करता है, उसे कई तरह से टॉर्चर करता है और आखिरकार उसे अपने तय किए फ्रेमवर्क में ढाल देता है। आप अपराधबोध और हया की ऐसी जंजीर से बंध जाते हैं कि आपको यही प्रथाएं कानून लगने लग जाती हैं। आपको कम जगह लेकर बैठना है, हमेशा मुस्कुराना है लेकिन ज़ोर से बिल्कुल नहीं हंसना, कुल मिलाकर आपके हावभाव में शालीनता, कामुकता और नम्रता, तीनों एक साथ झलकनी चाहिए।
बार्टकी का मानना है कि पितृसत्ता और पूंजीवाद साथ मिलकर काम करते हैं और इस प्रकार समाज में अपनी जड़ें मज़बूत करते हैं। आपको कई ऐसे ब्यूटी प्रॉडक्ट्स के इश्तेहार मिल जाएंगे जो आपको एक परफेक्ट ‘महिला’ बनाने के दावे करते नज़र आते हैं। साथ हीं, एक ही चीज़ लेकिन जो महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग बनाई जा रही है, उसकी कीमत में आप भारी अंतर देख सकते हैं। अगर आपको कॉरपोरेट जगत में सफ़ल होना है तो सबसे पहले इनके नॉर्म्स में खुद को ढालिए, मेकअप लगाइए और हमेशा मुस्कुराइए!
निःसंदेह, पुरुषों से भी कई सारी ऐसी अपेक्षाएं की जाती हैं जहां उन्हें खुद को टॉक्सिक मर्दानगी के चरणों में समर्पित कर देना होता है। हालांकि, जो अपेक्षाएं महिलाओं से हैं वह पुरुषों की तुलना में काफ़ी अधिक है, यहां उद्देश्य उनकी पूरी जीवनशैली को कंट्रोल करना होता है। अब सवाल यह है कि यह कंट्रोल करता कौन है? यहां कोई जबरदस्ती या दबाव नहीं होता कि हर महिला को फलां डाइट फॉलो करना ही है, ज़ीरो फिगर चाहिए ही, नहीं तो काम नहीं मिलेगा। बल्कि, यह सारे डिसिप्लिनरी ऐक्शन हम अपनी स्वेच्छा से खुद पर लागू करते हैं। हम खुद को इन ब्यूटी स्टैंडर्डस में खुद ही बांध देते हैं। कभी एस्थेटिक दिखने की होड़ में तो कभी अपनी आर्थिक सफलता और सामाजिक स्टेट्स को दर्शाने के लिए। यह सब छोटे-छोटे निर्णय हमें पितृसत्ता के अनुसार डिसिप्लिन करते जाते हैं। बार्टकी कहती हैं कि हमारे लिए हाई हील वाले सैंडल खरीदना पैरों की असहज तरीके से बाइंडिंग नहीं है बल्कि यह महज़ एक मासूम-सी चाहत है जो जाने कब अनिवार्यता बन जाती है।
फूको जैरेमी बेंथम की बताई ‘Panopticon’ की थ्योरी यहां अप्लाई करते हैं। Panopticon एक ऐसा गोलाकार जेल है जिसके बीच में एक टॉवर है जिसमें गार्ड तैनात हैं। टॉवर के चारों तरफ़ गोलाई में सेल्स हैं जिनमें कैदी रह रहे हैं। इसका स्ट्रक्चर ऐसा है कि गार्ड तो कैदियों को देख सकते हैं पर कैदी गार्ड को नहीं देख सकते। इससे कैदियों के मन में भय पैदा हो जाता है कि वह लगातार निगरानी में हैं और दंड मिलने के डर से वे खुद अपनी गतिविधियों को मॉनिटर करने लग जाते हैं। ठीक ऐसा हीं होता है जब नकारात्मक सामाजिक प्रतिक्रियाओं के डर से महिलाएं खुद अपना दमन चुनती हैं। खुद को प्रताड़ित कर वे लगातार जेंडर धारणाओं में फिट बैठने का प्रयास करती हैं और फिर कभी इस चेन से नहीं निकल पातीं। इसी तरह मुख्यधारा में पितृसत्ता का अनुपालन होता है।
पितृसत्ता के इस जंजाल से निकलने के लिए हमें अपनी हर एक गतिविधि को ध्यान से देखने-समझने की ज़रूरत है। हम क्या कदम खुद के विकास के लिए उठा रहे हैं और कौन-सी गतिविधियां पितृसत्ता को मज़बूत करने के लिए कर रहे हैं, उन्हें समझना होगा। हमेशा सेल्फ-सर्विलांस और सेल्फ-पुलिसिंग करते रहना पितृसत्ता की जड़ों को और मज़बूत करता है। इससे बचना होगा।