इतिहास भारत में उभरते महिला अध्ययन के विकास की जड़ें

भारत में उभरते महिला अध्ययन के विकास की जड़ें

समाज में मजबूती से टिकी हुई लैंगिक असमानता की संकीर्ण जड़ें और संरचनाएं जिसके कारण महिलाएं हाशिये पर बनी हुई हैं। आज आधुनिक समय में, इन जड़ों की दिशा और दशा को गहनता से समझना महिला अध्ययन के तहत अधिक संभव है।

अगर इतिहास में लंबे समय तक किसी वजूद को अनदेखा या उसका दमन किया गया हो तो वह इतिहास ही है जिसका अध्ययन कर उस अनदेखी या दमन को उजागर किया जाता है। यहां अध्ययन शब्द का इस्तेमाल संकुचित अर्थ में नहीं किया जा रहा है। यह ऐसा अध्ययन है जिसके ज़रिये हम किसी विशेष समस्या के संदर्भ को आलोचनात्मक रूप में समझते, विचार करते, उसकी जड़ों को खोजते और विश्लेषण आदि प्रक्रिया से गुजरते हैं। सामान्य भाषा में ऐसा अध्ययन जिसके भीतर शोध की प्रवृति मौजूद होती है। ऐसे गहन अध्ययनों के द्वारा किसी स्रोत को उसके मौजूदा समय की सामाजिक संरचनाओं, राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियों के संदर्भ में समझा जाता है।

इस लेख के ज़रिये हम भारत में महिला अध्ययन (वीमन स्टडीज़) के इतिहास के बारे में चर्चा करने जा रहे हैं, जिसके विकास में क्रमिक घटनाएं मौजूद रहीं हैं। देश में आज़ादी के पहले और आजादी के बाद महिलाओं की परिस्थितियों में सुधार के जितने प्रयास हुए वे मूल कारण तक पहुंचने में कारगर नहीं थे क्योंकि समस्त व्यवस्थाएं जो कि पुरुष केंद्रित हैं उनका विश्लेषण करने के लिए महिलाओं के नज़रिये और लैंगिक परिप्रेक्ष्य का अभाव था। सदियों से महिलाओं के शोषित वजूद और अदृश्यता को प्रकाश की सतह में लाने का प्रयास भारत में 1960 और 1970 के बीच में उभरनेवाले महिला अध्ययन की शाखा ने किया।

आखिर महिला अध्ययन की ज़रूरत क्यों?

समाज में मजबूती से टिकी हुई लैंगिक असमानता की संकीर्ण जड़ें और संरचनाएं जिसके कारण महिलाएं हाशिये पर बनी हुई हैं। आज आधुनिक समय में, इन जड़ों की दिशा और दशा को गहनता से समझना महिला अध्ययन के तहत अधिक संभव है। यह एक ऐसे उपकरण के रूप में काम करता है जो असमान व्यवस्थाओं की जांच करता है। आज 21वीं सदी में नारीवाद के प्रमुख तत्वों और समावेशी नज़रिये को शामिल कर इसके दायरे का और ज्यादा विस्तार हुआ है।

वीना मजूमदार (1987) के अनुसार, “महिला अध्ययन को न केवल राज्य की नीतियों में बदलने लाने के लिए बल्कि खुद के लिए भी महिलाओं से जुड़ी धारणाओं को बदलने के लिए भी, परिवर्तन का एक साधन माना गया।”

महिला अध्ययन एक अंतःविषय(इंटरडिसिप्लिनरी) है

‘अंतःविषय'(इंटरडिसिप्लिनरी) का अर्थ है एक से अधिक विषयों का एकीकरण करके नयी ज्ञान मीमांसा (विषय से जुड़े ज्ञान को पहचानना/निर्माण करना), अवधारणाओं, पद्धतियों और कौशलों का निर्माण करना। महिला अध्ययन का अंतःविषयता के साथ एक खास जुड़ाव है जो सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से परिभाषित लैंगिक भूमिकाओं की जांच करता है। यह पारंपरिक विषयों की सीमाओं को पार करते हुए कई विषय क्षेत्रों जैसे विज्ञान, समाजशास्त्र, सामाजिक विज्ञान, मनोविज्ञान, इतिहास, अर्थशास्त्र, आदि में महिलाओं की सामाजिक वास्तविकताओं और उसमें दिए एंड्रोसेंट्रिक पूर्वाग्रहों को आलोचनात्मक रीति से उजागर करने का काम करता है। 

वह दौर जब महिला अध्ययन का उभार शुरू हुआ

आज़ादी के तुरंत बाद भारत सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में कई तरह की चुनौतियों और समस्याओं से जूझ रहा था। ऐसी परिस्थिति के दौर में, आज़ाद भारत में बदलती राजनीतिक व्यवस्था, अशिक्षा, गतिशीलता की कमी, गरीबी के चलते महिलाएं देश की नयी व्यवस्था का सामना करने में असमर्थ हो गईं। इनमें से तमाम समस्याएं ऐसी थी जो देश की महिलाओं के लिए पहले जैसी ही बनी हुई थी जिससे उनकी स्थिति और बदतर होती चली गई। नये-नये रचित संविधान में दिए न्याय, स्वतंत्रता और समानता जैसे महत्वपूर्ण आदर्श तमाम क्षेत्रों के धरातल पर अपनी पहचान बनाने में जुटे थे। उम्मीद के मुताबिक इस पहचान को सुनिश्चित आज़ाद भारत की आज़ाद राजनीतिक व्यवस्था ही कर सकती थी। आज़ादी के पहले कुछ दशकों में, सरकार के लिए चिंता का प्राथमिक विषय समग्र आर्थिक विकास करना था।

समाज में मजबूती से टिकी हुई लैंगिक असमानता की संकीर्ण जड़ें और संरचनाएं जिसके कारण महिलाएं हाशिये पर बनी हुई हैं। आज आधुनिक समय में, इन जड़ों की दिशा और दशा को गहनता से समझना महिला अध्ययन के तहत अधिक संभव है।

आज़ादी से पहले और उसके बाद, आर्थिक गतिविधियों के क्षेत्र में महिलाओं (खासकर के मध्यवर्गीय, हाशिये और आदिवासी) की महत्वपूर्ण भूमिकाओं का कोई उल्लेख कहीं नहीं था। जबकि इन महिलाओं की श्रम शक्ति का एक बड़ा हिस्सा इसमें शामिल था। ऐसे कोई विशिष्ट कार्यक्रम भी नहीं थे जिनका उद्देश्य सीधे तौर पर महिलाओं से किसी भी तरीके से जुड़ा हुआ हो। इसके बाद एक दशक और आया, उस दौरान सरकार की समानता और गरीबी उन्मूलन के लिए चिंता बढ़ती हुई दिखाई दी जिसमें लैंगिक मुद्दों का पक्ष गायब रहा।

समाज का वह सबसे बड़ा तबका था जिसने 19वीं और 20वीं शताब्दी के दौरान देश के विभिन्न हिस्सों में हुए सभी किसान और मजदूर आंदोलनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। लंबे समय से चले आ रहे इन संघर्षों में महिलाओं की भूमिकाओं को इतिहासकारों ने बेहद कम उभारा और या अधिकतर इस ओर ध्यान नहीं दिया। इतने बड़े समुदाय की भागीदारी और योगदान कई पीढ़ियों तक पहचान से बाहर रहा। 

आज़ादी के तुरंत बाद भारत सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में कई तरह की चुनौतियों और समस्याओं से जूझ रहा था। ऐसी परिस्थिति के दौर में, आज़ाद भारत में बदलती राजनीतिक व्यवस्था, अशिक्षा, गतिशीलता की कमी, गरीबी के चलते महिलाएं देश की नयी व्यवस्था का सामना करने में असमर्थ हो गईं।

तमाम सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों के बीच, साठ के दशक के दौरान भारतीय अर्थशास्त्री डॉ. डी. आर. गाडगिल द्वारा भारतीय कार्यबल में महिलाओं पर एकमात्र अध्ययन का संचालन किया गया जो कि भारतीय महिलाओं से जुड़ी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं को समझने पर आधारित था। इस शोध में उन्होंने देश की आर्थिक गतिविधियों में महिलाओं की भागीदारी का विश्लेषण किया। निष्कर्ष के मुताबिक कृषि के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी क्षेत्रीय सांस्कृतिक विभिन्नताओं का प्रतिबिंब थी। यह विभिन्नता हर राज्य में अलग-अलग थी। इस अध्ययन के बाद, सत्तर के दशक की शुरुआत तक भी आर्थिक व्यवस्था में महिलाओं से संबंधित अध्ययन अर्थशास्त्रियों की जांच के दायरे से बाहर ही रहा।

इसी बीच भारत के लिए मुख्य रूप से बढ़ती जनसंख्या के कारण बेरोज़गारी और गरीबी का बढ़ता संकट सबसे बड़ी चुनौती बन गए थे। 1971 में ‘बेरोजगारी अनुमान’ पर ‘दंतवाला समिति’ ने पहली बार बेरोजगारी से संबंधित कोई पुख्ता अनुमान तैयार करने की दिशा में लिंग, आयु, व्यवसाय और शहरी/ग्रामीण श्रेणियों के आधार पर अलग-अलग आंकड़ों की मांग की। इसके तुरंत बाद बेरोज़गारी से जुड़ी ‘भगवती समिति‘ ने उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर स्वीकारा की महिलाओं में बेरोज़गारी का स्तर पुरुषों की तुलना में कही ज़्यादा अधिक है।

वीना मजूमदार (1987) के अनुसार, “महिला अध्ययन को न केवल राज्य की नीतियों में बदलने लाने के लिए बल्कि खुद के लिए भी महिलाओं से जुड़ी धारणाओं को बदलने के लिए भी, परिवर्तन का एक साधन माना गया।”

इसी बीच 1971 में, भारत सरकार ने भारत में महिलाओं की स्थिति का अध्ययन करने के लिए ‘भारत में महिलाओं की स्थिति पर समिति‘ (CSWI) की नियुक्ति की। समिति ने उस समय की मौजूदा बढ़ती हुई सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक असमानताओं के तमाम पक्षों में महिलाओं की स्थिति के बीच संबंधों पर ध्यान केंद्रित किया। साल 1974 में, समिति की रिपोर्ट ‘टुवर्ड्स इक्वॉलिटी’ जारी की गई। रिपोर्ट में पुरुषों और महिलाओं के बीच लिंग अनुपात में तेज़ी से गिरावट, जीवन प्रत्याशा में बढ़ती लैंगिक असमानता और मृत्यु, निरक्षर में महिलाओं का बढ़ता अनुपात, शिक्षा और आजीविका का ख़राब स्तर, बढ़ती प्रवासन से संबंधित दर जैसे जनसांख्यिकीय संकेतक चौंकाने वाले थे।

आज़ादी के बाद, समानता की ज़मीनी हक़ीक़तों से पर्दा उठाती इस रिपोर्ट ने देश की महिलाओं की दबी-कुचली और शोषित परिस्थितियों को शैक्षणिक क्षेत्र में शोध का विषय बनाने में एक ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल की जिसके परिणाम के रूप में, 1974 में ‘महिला अध्ययन’ की शोध इकाइयां स्थापित की गईं। महिला अध्ययन की शुरुआत का श्रेय ‘टुवर्ड्स इक्वॉलिटी’ को जाता है। वीना मजूमदार (1987) के अनुसार, “महिला अध्ययन को न केवल राज्य की नीतियों में बदलने लाने के लिए बल्कि खुद के लिए भी महिलाओं से जुड़ी धारणाओं को बदलने के लिए भी, परिवर्तन का एक साधन माना गया।”

महिला अध्ययन की शुरुआत सामाजिक विज्ञान और मानविकी (ह्यूमैनिटीज़) की एक शाखा के रूप में की गई थी। इसका प्रमुख कारण इसका समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान, इतिहास और साहित्य जैसे अन्य सामाजिक विज्ञान के विषयों के साथ गहनता से जुड़ा हुआ होना थी। साल 1969 में, स्थापित भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICSSR) ने महिला अध्ययन के विषय को विकसित करने में अहम भूमिका निभाई। ‘भारत में महिलाओं की स्थिति पर समिति‘ (CSWI) द्वारा पहचाने गए महत्वपूर्ण क्षेत्रों की जांच करने के लिए ICSSR ने महिलाओं के अध्ययन का एक कार्यक्रम शुरू किया।

साल 1974 में, पहली बार किसी विश्वविद्यालय स्तर पर महिला अध्ययन को लाने के उद्देश्य से SNDT महिला विश्वविद्यालय (मुंबई) के भीतर ‘महिला अध्ययन अनुसंधान केंद्र’ (RCWS) की स्थापना की गई। लगभग इसी समय, तीन और संस्थान स्थापित किए गए, जिसमें 1976 में ‘सामाजिक अध्ययन संस्थान ट्रस्ट’ (ISST), 1980 में ‘महिला विकास अध्ययन केंद्र’ (CWD) और 1985 में ‘अन्वेशी अनुसंधान केंद्र’ शामिल थे।

विश्वविद्यालय में महिला अध्ययन को और मजबूती से लाने के संबंध में और अधिक प्रयास किए गए। 1981 में, SNDT महिला विश्वविद्यालय(मुंबई) में पहला ‘महिला अध्ययन पर राष्ट्रीय सम्मेलन’ किया गया। इस सम्मेलन ने आज़ाद भारत में समानता के लिए महिलाओं के संघर्षों पर ध्यान केंद्रित करने से जुड़ी गतिविधियां को शुरू करने की ज़रूरत ज़ाहिर की। सम्मेलन के उद्देश्यों को हासिल करने के लिए, 1982 में ‘भारतीय महिला अध्ययन संघ’ (IAWS) की स्थापना की गई।

इस तरह महिला अध्ययन के क्रमिक विकास ने पुरुष प्रधान परंपराओं के बीच महिलाओं को एक सशक्त एजेंसी के रूप में सामने लाने की कोशिश की है। यह आंकड़ों का गहन विश्लेषण कर लैंगिक असमानता पर टिके परंपरागत मानक और नियमों को कटघरे में खड़ा करने के लिए प्रतिबद्ध है।

भारतीय विश्वविद्यालयों और काॅलेजों में महिला अध्ययन के विकास के लिए, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग(UGC) ने 1986 से ‘महिला अध्ययन केंद्र’ (CWS) की स्थापना को बढ़ावा देना शुरू किया। इसी साल 1986 की ‘नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति‘ में महिला अध्ययन पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया। 1990 में, ‘नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ की समीक्षा के लिए गठित की गई ‘आचार्य राममूर्ति समिति’ (1990) की रिपोर्ट में ‘समानता, सामाजिक न्याय और शिक्षा’ से संबंधित अध्याय में महिलाओं के पिछले दशकों के आंदोलन की झलक शिक्षा के क्षेत्र में और विस्तार से दिखाई देती है जो कि महिला अध्ययन के क्रमिक विकास का ही परिणाम है।

इस तरह महिला अध्ययन के क्रमिक विकास ने पुरुष प्रधान परंपराओं के बीच महिलाओं को एक सशक्त एजेंसी के रूप में सामने लाने की कोशिश की है। यह आंकड़ों का गहन विश्लेषण कर लैंगिक असमानता पर टिके परंपरागत मानक और नियमों को कटघरे में खड़ा करने के लिए प्रतिबद्ध है। इस विषय ने देश के विकास और सामाजिक प्रक्रियाओं में महिलाओं की अपरिहार्य भूमिकाओं को पहचान दिलाने और सदियों के शोषण को उजागर करने के लिए तर्क और प्रश्न के तमाम रास्ते खोले हैं। 


Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content